एकात्म संस्कृति-साधक : पंडित दीनदयाल उपाध्याय

मानस के राजहंस डॉ. बलदेवप्रसाद मिश्र जी ने लिखा है - 

 

जो कुछ मनुष्य का, मनुष्य का कहाँ है वह,

आँखें खुलती हैं तो रहस्य खुल जाता है। 

न्यास जो मिला उसको, उसकी समृद्धि को ही,

मनुज निज आयु के बरस कुछ पाता है।। 

 

मुझे लगता है उक्त पंक्तियाँ एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की जीवन-साधना के सन्दर्भ में अक्षरशः सही हैं। वास्तव में जीवन एक अवसर है, अपने ही जीवन के सृजन और पुनर्सृजन का अवसर। किसी की चार दिन की ज़िंदगी में सार होता है तो किसी का सौ बरस का जीना भी निस्सार होता है। किसी के एक आँसू पर हजारों दिल तड़प उठते हैं तो किसी का उम्र भर का रोना भी बेकार होता है। परन्तु, भारत भूमि पर जिन महान व्यक्तित्वों ने अपने विचार, कर्म और आचरण से जीवन के सार का उपहार दिया है उनमें पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम अत्यंत सम्मान और गौरव के साथ लिया जाता है। वे भारतीय संस्कृति के सच्चे अग्रदूत थे। भारतीयता के प्रतिमान थे। माँ भारती के अक्षर-वैभव की सीधी-सच्ची पहचान और साहू अर्थ में अखंड भारत देश गौरव-गान थे। 

 

स्वामी विवेकानंद ने कहा है - संभव की सीमा जानने का केवल एक तरीका है, असंभव से भी आगे निकल जाना। इसीलिए यह भी सच है कि जीवन की सबसे बड़ी खुशी उस काम को करने में है जिसे लोग समझते हैं कि आप नहीं कर सकते। पंडित दीनदयाल जी ने जब धर्म को संस्कृति से जोड़कर, मनुष्य की सोच को नई दिशा में मोड़कर, संकुचित राष्ट्रीयता से नाता तोड़कर, चिंतन और जीवन दर्शन को जीने की मानवतावादी कला का नया रूप देने की कोशिश की तब आश्चर्य नहीं कि उन्हें एकबारगी शक की निगाहों से देखा गया। किन्तु,वे जूझते रहे और लोग उनके साथ आते गए। दूसरी तरफ लोग ऐसे भी मिले जो उनके कार्यों की आलोचना करने से भी बाज नहीं आए। फिर क्या, तमाम सवालों के जवाब यकायक देने के बदले उन्होंने जो राह चुनी थी उस पर चलते जाने के संकल्प के साथ पंडित जी ने धीरज का दामन थामा और जैसे दुनिया वालों से कह दिया कि -

 

आँखों में अगर मुस्कान है तो इंसान तुमसे दूर नहीं, 

पांवों में अगर उड़ान है तो आसमान तुमसे दूर नहीं। 

शिखर पर बैठकर पंछी को तुम गाते देखो, 

श्रद्धा में अगर जान है तो भगवान् तुमसे दूर नहीं।। 

 

इतिहास साक्षी है कि भारत की आजादी के समय विश्व दो ध्रुवी विचारों में बंटा था पूंजीवाद और साम्यवाद। यद्यपि हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के जन-नायकों का इस विषय पर मत था कि भारत अपने पुरातन जीवन-मूल्यों से युक्त रास्ते पर चले। परंतु इसे विडंबना है कि देश ऊपर लिखे दोनों विचारों के व्यामोह में फँस कर घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलता रहा। भारत की स्वतंत्रता के बाद ही प्रसिध्द चिंतक, दार्शनिक, राजनीतिज्ञ लेखक, पत्रकार, संगठनकर्ता एवं समाजसेवक पं. दीनदयाल उपाध्याय ने इन दोनों विचाराें,पूंजीवाद एवं साम्यवाद के विकल्प के रूप में एकात्म मानववाद का दर्शन रखा था। उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया - आज़ादी तभी सार्थक हो सकती है जब यह हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति बन जाए। अब भारत एवं विश्व के समक्ष इस दर्शन की प्रासंगिकता पर नए सिरे से विचार का समय आ गया है। उन्हीं के शब्दों में यदि जोर देकर कहें तो मानवीय और राष्ट्रीय दोनों तरह से, यह आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों के बारे में सोचें।  

 

आज सर्वविदित है कि संचार एवं सम्पर्क की दृष्टि से विश्व एक ग्राम बनता जा रहा है।  हम संचार-विचार के युग में जी रहे हैं।  वहीं, दूसरी ओर व्यक्ति का व्यवहार एवं कार्य स्वकेन्द्रित होते जा रहे हैं। सुख की खोज में अधिक से अधिक भौतिक साधनों की प्राप्ति ही मनुष्य के जीवन का उद्देश्य बन गया है। परिणाम स्वरूप मनुष्य के व्यक्तित्व, समाज तथा सम्पूर्ण विश्व में आन्तरिक विरोधाभास दिखलाई पड़ रहा है। हमारे प्राचीन चिंतकों ने मनुष्य के आन्तरिक व्यक्तित्व के पहलुओं तथा व्यक्ति समाज एवं सृष्टि के बीच गूढ़ सम्बन्धों पर गहन चिन्तन किया। इन विचारों के आधार पर पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद के दर्शन का प्रतिपादन किया। अर्थ के एकांगी मोह में व्यर्थ हो रहे मानव जीवन को उन्होंने सही माने में समर्थ बनाने का मार्गदर्शन किया। उन्होंने जीवन के मूल्यों को नैतिकता की आँच में तपाकर देखा, परखा और उन्हें कुंदन की तरह पा कर उन्हें समूची मानवता की धरोहर बनाने का महानतम पुरुषार्थ किया। 

 

पंडित दीनदयाल जी ने एक ऐसे आर्थिक विकास के प्रारूप की बात कही जो व्यक्ति के आन्तरिक व्यक्तित्व एवं परिवार, समाज तथा सृष्टि के साथ  सम्बन्धों में कोई संघर्ष उत्पन्न न करे।  हमारे शास्त्रों में धर्म के साथ अर्थ को जोड़कर कामनाओं के पूर्ति की बात कही गई है, जिसका अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है,  किन्तु अर्थ यानि पैसा आज जीवन का आवश्यक आधार नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवन का लक्ष्य बन गया है।  पं. दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार आर्थिक विकास के तीन लक्ष्य हैं।  हमारी आर्थिक योजनाओं का प्रथम लक्ष्य राजनीतिक स्वतंत्रता की रक्षा का सामर्थ्य उत्पन्न करना, दूसरा लक्ष्य प्रजातंत्रीय पद्धति के मार्ग में बाधक न होना और तीसरा हमारे जीवन के कुछ सांस्कृतिक मूल्य जो राष्ट्रीय जीवन के कारण, परिणाम और सूचक हैं तथा विश्व के लिये भी उपादेय हैं, उनकी रक्षा करना होना चाहिये। यदि उन्हें गवांकर कर हमने अर्थ कमाया तो वह अनर्थकारी और निरर्थक होगा। इस प्रकार पंडित जी ने अर्थ को भी एक नया अर्थ दिया। 

 

उल्लेखनीय है कि एकात्म मानवतावाद व्यक्ति के विभिन्न रूपों और समाज की अनेक संस्थाओं में स्थायी संघर्ष या हित विरोध नहीं मानता। उन्होंने यह भी साफ़ कर दिया कि संघर्ष सांस्कृतिक स्वभाव का एक संकेत नहीं है बल्कि यह उनके गिरावट का एक लक्षण। है यदि यह कहीं दीखता है तो वह विकृति का प्रतीक  है। वर्ग संघर्ष की कल्पना ही धोखा है। राष्ट्र के निर्माण व्यक्तियों या संस्थाओं में संघर्ष हो तो यज्ञ चलेगा कैसे? वर्ग की कल्पना ही संघर्ष की जन्मदात्री है। हम मानते हैं कि समानता न होते हुए भी एकात्मता हो सकती है। विविधता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की विचारधारा में रची-बसी हुई है। 

 

स्मरणीय है कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बाल्यकाल अत्यंत कष्टों में बीता। अपने प्रयासों से उन्होंने शिक्षा-दीक्षा हासिल की। बाद के समय में भारतीय विचारों से प्रभावित नेताओं का साथ मिला। यहीं से उनके जीवन में बदलाव आया लेकिन जो कष्ट उन्होंने बचपन में उठाये थे, उन कष्टों के चलते वे पूरी जिंदगी सादगी से जीते रहे। सादगी,उनकी पहचान बन गई, वह आज भी उनकी पहचान है। असीम अभाव और विपुल वेदना से निखरे उनके व्यक्तित्व पर राष्ट्रकवि दिनकर जी की निम्नांकित पंक्तियाँ उपयुक्त प्रतीत होती हैं -

 

ह्रदय अगर छोटा हो 

तो दुःख उसमें नहीं समाएगा 

और दर्द दस्तक दिए बिना ही लौट जाएगा 

टीस उसे उठती है 

जिसका भाग्य खुलता है 

वेदना गोद में बिठाकर 

सबको निहाल नहीं करती है 

जिसका पुण्य प्रबल होता है 

वही अपने आँसुओं में धुलता है !

 

अध्ययन-अध्यापन, लेखन,वक्तृत्व,संवाद,सम्प्रेषण आदि में पंडित जी की विशेष अभिरुचि थी। विद्यार्थियों के प्रति उनका विशेष अनुराग था। वे चाहते थे कि समाज में शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार हो ताकि लोग अधिकारों के साथ कर्तव्यों के प्रति जागरूक हो सकें। उन्हें इस बात का रंज रहता था कि समाज में लोग अधिकारों के प्रति तो चौंकन्ने हैं लेकिन कर्तव्य पूर्ति की भावना नगण्य हैं।  उनका मानना था कि कर्तव्यपूर्ति के साथ ही अधिकार स्वयं ही मिल जाता है. 

 

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण।  उनके द्वारा स्थापित एकात्म मानववाद की परिभाषा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ज्यादा सामयिक है। उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है. जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता ह, बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी। यही उसका सार भी है। 

 

आइए, उनकी विचार-गंगा में कुछ देर और डुबकी लगा लें। पंडित जी कहते हैं - राष्ट्रीयता का आधार भारत माता हैं, केवल भारत ही नहीं। माता शब्द हटा दीजिये तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जायेगा। नैतिकता के सिद्धांतों को कोई एक व्यक्ति नहीं बनाता है, बल्कि इनकी खोज की जाती है। जब स्वभाव को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार बदला जाता है, तो हमें संस्कृति और सभ्यता प्राप्त होते हैं। भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है कि यह जीवन को एक एकीकृत रूप में देखती है। जीवन में विविधता और बहुलता है लेकिन हमने हमेशा उनके पीछे छिपी एकता को खोजने का प्रयास किया है। बीज की एक इकाई विभिन्न रूपों में प्रकट होती है – जड़ें, तना, शाखाएं, पत्तियां, फूल और फल. इन सबके रंग और गुण अलग-अलग होते हैं। फिर भी बीज के द्वारा हम इन सबके एकत्व के रिश्ते को पहचान लेते हैं। 

 

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है।  वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं। अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है। सच कहूँ, पं. दीनदयाल जी के व्यक्तित्व को शब्दों में पिरो पाना बड़ा कठिन है। इसलिए, अंत में बस इतना ही कि -

 

शब्द तो शोर है, तमाशा है। 

भाव के सिंधु में बताशा है।। 

मर्म की बात होंठ से क्या कहूँ, 

मौन ही भावना की भाषा है। 

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डॉ. चन्द्रकुमार जैन 

प्राध्यापक ( राष्ट्रपति सम्मानित ) 

हिंदी विभाग 

शासकीय दिग्विजय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, 

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