वेद स्मृति ग्रन्थों में गुरूत्वाकर्षण के नियम





वेद और वैदिक आर्ष ग्रन्थों में गुरूत्वाकर्षण के 

नियम को समझाने के लिये पर्याप्त सूत्र हैं ।

परन्तु जिनको न जानकर हमारे आजकल के 

युवा वर्ग केवल पाश्चात्य वैज्ञानिकों के पीछे ही श्रद्धाभाव रखते हैं ।

 

जबकि यह करोड़ों वर्ष पहले वेदों में सूक्ष्म ज्ञान 

के रूप में ईश्वर ने हमारे लिये पहले ही वर्णन कर दिया है ।

 

तो ऐसे मूर्ख लोग जिसको Newton's Law Of Gravitation कहते फिरते हैं ।

वह वास्तव में Nature's Law Of Gravitation होना चाहिये ।

 

हम अनेकों प्रमाण देते हैं कि हमारे ऋषियों ने जो बात पहले ही वेदों से अपनी तपश्चर्या से जान ली 

थी उसके सामने ये Newton महाराज कितना ठहरते हैं ।

 

आधारशक्ति :- बृहत् जाबाल उपनिषद् में गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त को आधारशक्ति

नाम से कहा गया है ।

 

इसके दो भाग किये गये हैं :-

(१) ऊर्ध्वशक्ति या ऊर्ध्वग :- 

ऊपर की ओर खिंचकर जाना ।

जैसे अग्नि का ऊपर की ओर जाना ।

 

(२) अधःशक्ति या निम्नग :- 

नीचे की ओर खिंचकर जाना ।

जैसे जल का नीचे की ओर जाना या 

पत्थर आदि का नीचे आना ।

 

आर्ष ग्रन्थों से प्रमाण देते हैं :-

(१) यह बृहत् उपनिषद् के सूत्र हैं :-

अग्नीषोमात्मकं जगत् ।

( बृ० उप० २.४ )

आधारशक्त्यावधृतः कालाग्निरयम् ऊर्ध्वगः ।

तथैव निम्नगः सोमः ।

( बृ० उप० २.८ )

अर्थात :- सारा संसार अग्नि और सोम का 

समन्वय है ।

अग्नि की ऊर्ध्वगति है और सोम की अधोःशक्ति ।

इन दोनो शक्तियों के आकर्षण से ही संसार रुका हुआ है ।

 

(२) १५० ई० पूर्व महर्षि पतञ्जली ने व्याकरण महाभाष्य में भी गुरूत्वाकर्षण के सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए लिखा :-

 

लोष्ठः क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यक् गच्छति नोर्ध्वमारोहति ।

पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्छति आन्तर्यतः ।

( महाभाष्य :- स्थानेन्तरतमः, १/१/४९ सूत्र पर )

 

अर्थात् :- पृथ्वी की आकर्षण शक्ति इस प्रकार की 

है कि यदि मिट्टी का ढेला ऊपर फेंका जाता है तो 

वह बहुवेग को पूरा करने पर,न टेढ़ा जाता है और 

न ऊपर चढ़ता है।

 

वह पृथवी का विकार है,इसलिये पृथिवी पर ही 

आ जाता है ।

 

(३) भास्कराचार्य द्वितीय पूर्व ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि में यह कहा :-

 

आकृष्टिशक्तिश्चमहि तया यत्

खस्थं गुरूं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या ।

आकृष्यते तत् पततीव भाति

समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे ।।

( सिद्धान्त० भुवन० १६ )

 

अर्थात :- पृथिवी में आकर्षण शक्ति है जिसके 

कारण वह ऊपर की भारी वस्तु को अपनी ओर 

खींच लेती है ।

वह वस्तु पृथिवी पर गिरती हुई सी लगती है ।

पृथिवी स्वयं सूर्य आदि के आकर्षण से रुकी हुई है, अतः वह निराधार आकाश में स्थित है तथा अपने स्थान से हटती नहीं है और न गिरती है ।

वह अपनी कील पर घूमती है।

 

(४) वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका 

में कहा :-

 

पंचभमहाभूतमयस्तारा गण पंजरे महीगोलः ।

खेयस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः ।।

( पंच०पृ०३१ )

 

अर्थात :- तारासमूहरूपी पंजर में गोल पृथिवी 

इसी प्रकार रुकी हुई है जैसे दो बड़े चुम्बकों के 

बीच में लोहा ।

 

(५) आचार्य श्रीपति ने अपने ग्रन्थ सिद्धान्तशेखर 

में कहा है :-

 

उष्णत्वमर्कशिखिनोः शिशिरत्वमिन्दौ,.. निर्हतुरेवमवनेःस्थितिरन्तरिक्षे ।।

( सिद्धान्त० १५/२१ )

नभस्ययस्कान्तमहामणीनां मध्ये 

स्थितो लोहगुणो यथास्ते ।

आधारशून्यो पि तथैव सर्वधारो 

धरित्र्या ध्रुवमेव गोलः ।।

( सिद्धान्त० १५/२२ )

 

अर्थात :- पृथिवी की अन्तरिक्ष में स्थिति उसी 

प्रकार स्वाभाविक है,जैसे सूर्य्य में गर्मी,चन्द्र में शीतलता और वायु में गतिशीलता ।

दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहे का गोला स्थिर 

रहता है,उसी प्रकार पृथिवी भी अपनी धुरी पर 

रुकी हुई है ।

 

(६) ऋषि पिप्पलाद ( लगभग ६००० वर्ष पूर्व ) 

ने प्रश्न उपनिषद् में कहा :-

 

पायूपस्थे - अपानम् ।

( प्रश्न उप० ३.४ )

पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्यापानमवष्टभ्य० ।

( प्रश्न उप० ३.८ )

तथा पृथिव्याम् अभिमानिनी या देवता ...

सैषा पुरुषस्य अपानवृत्तिम् आकृष्य....

अपकर्षेन अनुग्रहं कुर्वती वर्तते ।

अन्यथा हि शरीरं गुरुत्वात् पतेत् 

सावकाशे वा उद्गच्छेत् ।

( शांकर भाष्य, प्रश्न० ३.८ )

 

अर्थात :- अपान वायु के द्वारा ही मल मूत्र नीचे 

आता है ।

पृथिवी अपने आकर्षण शक्ति के द्वारा ही मनुष्य 

को रोके हुए है,अन्यथा वह आकाश में उड़ जाता ।

 

(७) यह ऋग्वेद के मन्त्र हैं :-

 

यदा ते हर्य्यता हरी वावृधाते दिवेदिवे ।

आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे ।।

( ऋ० अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ३ )

 

अर्थात :- सब लोकों का सूर्य्य के साथ आकर्षण 

और सूर्य्य आदि लोकों का परमेश्वर के साथ 

आकर्षण है ।

इन्द्र जो वायु , इसमें ईश्वर के रचे आकर्षण,प्रकाश और बल आदि बड़े गुण हैं ।

उनसे सब लोकों का दिन दिन और क्षण क्षण के 

प्रति धारण,आकर्षण और प्रकाश होता है ।

इस हेतु से सब लोक अपनी अपनी कक्षा में चलते रहते हैं,इधर उधर विचल भी नहीं सकते ।

 

यदा सूर्य्यममुं दिवि शुक्रं ज्योतिरधारयः ।

आदित्ते विश्वा भुवनानी येमिरे ।।३।।

( ऋ० अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ५ )

 

अर्थात :- हे परमेश्वर ! जब उन सूर्य्यादि लोकों 

को आपने रचा और आपके ही प्रकाश से प्रकाशित हो रहे हैं और आप अपने सामर्थ्य से उनका धारण कर रहे हैं,इसी कारण सूर्य्य और पृथिवी आदि लोकों और अपने स्वरूप को धारण कर रहे हैं ।

 

इन सूर्य्य आदि लोकों का सब लोकों के साथ आकर्षण से धारण होता है ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि परमेश्वर सब लोकों 

का आकर्षण और धारण कर रहा है।

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