पूर्वाचंल में बोटो की फसल काटने के लिऐ राजनैतिक दल

उत्तर प्रदेश की सियासी गलियों में सियासी संग्राम छिड़ गया है। विकास के वट वक्ष तले सूखता पूर्वाचंल  में बोटो की फसल काटने के लिए राजनैतिक दलो ने पूर्वाचंल स्वाभिमान का राग अलाप दिया है। पूर्वाचंल के लोगांे के हक और हुकुक की बात करने के लिए पूर्वाचंल के सपा से किनारा कर चुके अमर सिह मुलायम के विरूद्ध उन्ही का दांव चलने की मुहिम में है ताकि छोट राज्यों का विरोधी साबित करके मुलायम को पटकनी दे दे। सूबे की मुख्यमंत्री मायावती द्वारा प्रदेश के चार टुकड़े करने का प्रस्ताव बिधान सभा से पास कराने के बाद बात बहुत आगे नही बड़ सकी है ।क्या विधानसभा चुनावों के मद्देनजर विकास और छोटे राज्यों का सवाल निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है? बिहार में विकास के नाम सियासी जंग को मिली जीत ने पूर्वाचंल को महत्वपूर्ण बना दिया है। गौरतलब है कि बंद होते करघे के चलते भुखमरी के कगार पर पहुँचे पूर्वाचंल के कारीगर के सामने रोजी रोटी का सवाल को हल करने के तहत 30 लाख बुनकरो को केन्द्र सरकार की राहत कितना असर दिखाती है। पीस पार्टी के अलाबा अपना दल कौमी एकता दल जनबादी पार्टी भारतीय समाज पार्टी उलेमा काउसिल पूर्वांचल राज्य के  भले बिरोध न करते हो लेकिन पूर्वांचल राज्य के  लिए मुहिम छेड़ने वालों में शतरूद्र प्रकाश और अंजना प्रकाश के सपा मंे चले जाने के बाद मुहिम कमजोर पड़गयी है। जमीनी तौर पर देखा जाये तो तरवां (आजमगढ़) में विश्व की सबसे बड़ी परियोजना समन्वित बाल विकास परियोजना के बावजूद  बीबीपुर मुसहर बस्ती में एक वर्षीय कुपोषित बच्ची नीलम उर्फ बेफाई की मौत हो गयी। आश्चर्य की बात यह है कि आंगन बाड़ी के ठीक सामने निवास करने वाले मुसहर परिवार के बच्चों को आज तक इस योजना से जोड़ा नही जा सका है। उत्तरप्रदेश राज्य में पिछले दो महीनों में मस्तिष्क ज्वर यानि जापानी इंसेफ्लाइटिस रोग से कम से कम 500 व्यक्ति अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं। गाजीपुर मनरेगा के मद से हर ब्लाक में छह निजी तालाब का प्रस्ताव मंजूर हुआ। प्रति तालाब चार लाख रुपये जारी हुए लेकिन ब्लाककर्मियों ने लाभार्थियों को मात्र एक लाख रुपये उपलब्ध कराये। इन रुपयों की बंदरबांट हुई। कहीं कोई निजी तालाब नहीं बना। 


खेत तालाब के निर्माण की जिम्मेदारी लघु सिंचाई विभाग को सौंपी गयी थी। इसके लिए जॉबकार्ड धारक गरीब किसानों के एक बिघा खेत में इसका निर्माण कराना सुनिश्चित किया गया, जिससे उनकी आजीविका बेहतर ढंग से चल सके। उस तालाब में मछली पालन के साथ सब्जी उत्पादन कमाई का जरिया बने। मगर अफसोस यहां मात्र दो-तीन बिस्वा में ही तालाब का निर्माण कराकर मनरेगा के धन की बंदरबांट कर ली गयी। वहीं अधिकतर पहले से खुदे तालाब को ही कागजों में दिखाकर लाखों रुपये का वारा- न्यारा कर दिया गया। मुहम्मदाबाद  गंगा से पुरवा शिवराय, सेमरा व बच्छलपुरा के अस्तित्व को बचाने को लेकर गांव बचाओ समिति की ओर से चल रहा क्रमिक अनशन आमरण अनशन में तब्दील हो गया। 


किसान मंच के जिलाध्यक्ष राजेन्द्र यादव ने कहा कि कटान रोकने के लिए ग्रामीणों ने कई बार गुहार लगाया लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। आज हालत इतनी खराब हो गयी कि किसानों की कृषि योग्य भूमि गंगा में समाहित हो गयी। गांव भी गंगा में समाहित होने की कगार पर पहुंच गया है। कटान के चलते पुरवा शिवराय का पश्चिम से पूर्वी सिरा कट गया है। गांव के दक्षिण सिरे से पूर्वी छोर को जोड़ने के लिए बनाया गया खड़ंजा गंगा में समाहित हो गया। 
गंगा के जलस्तर कम होने के बावजूद अभी कटान थमने का नाम नहीं ले रहा है। मधुबन (मऊ)देवरिया, गोरखपुर व मऊ के बंटवारे में हुयी विसंगतियों का दर्द चक्की मुसाडोही, परसिया देवार, विशुनपुर व गोनघट के लोगों को भोगना पड़ रहा है। आवागमन की दुश्वारियों के चलते प्रशासन या जनप्रतिनिधि सुधि लेने की जहमत नहीं उठाते हैं। इसके चलते इन गांवों में विकास की किरण भी मुश्किल से ही पहुंच पाती है। 


स्थानीय तहसील का गांव चक्की मुसाडोही घाघरा नदी के दूसरे छोर पर बसा है। यहां के लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के साथ ही पढ़ाई लिखाई के लिये देवरिया जनपद पर निर्भर है लेकिन जब सरकारी प्रमाण पत्र या सुरक्षा की बात आती है तो इन्हें 70 किमी की दूरी तय करके स्थानीय तहसील पर या 100 किमी की दूरी तय करके जनपद मुख्यालय पर जाना पड़ता है। इसी प्रकार देवरिया जनपद के गांव परसिया देवार व विशुनपुर घाघरा के इस छोर पर स्थानीय तहसील क्षेत्र की सीमा पर स्थित हैं। यहां के लोग जान जोखिम में डालकर नाव से घाघरा नदी को पारकर बरहज या देवरिया जाते हैं अन्यथा सड़क मार्ग से इन्हें 80 किमी की दूरी तय करनी पड़ती है। इन्हीं गांवों के बगल में गोनघट भी पड़ता है जो गोरखपुर जनपद में है। यहां अन्य सरकारी सुविधाओं के मिलने की कौन कहे बाढ़ के दिनों में अहेतुक सहायता राशि व नाव की सुविधा से भी ग्रामीण वंचित रह जाते हैं। सबसे बड़ी बात कि उक्त गांवों में आवागमन की दुश्वारियों के चलते प्रशासन या जनप्रतिनिधि झांकने तक की जहमत नहीं उठाते हैं।


सामाजिक कार्यकर्ता मुश्ताक अहमद के अनुसार पिता धर्मू पत्तल बनाकर आजीविका चलाता है। धर्मू के  10 बच्चों मंे से सबसे छोटी बच्ची नीलम उर्फ बेफाई की उम्र मात्र 1 साल व वजन मात्र 3 किलो थी। उसकी लम्बाई मात्र 19 इंच था। यह डाटा  7 अगस्त 2010 को रोजा सामाजिक संस्था आंगनबाड़ी की उपस्थिति मंे स्वास्थ्य शिविर मंे लिया था। धर्मू का परिवार बच्ची को सुखण्डी मानकर पास के जीयापुर गांव मंे 5 बार झरवाया था। इस परिवार में एक तीन साल की बच्ची व 4 साल का बच्चा भी कुपोषण के शिकार है, लेकिन सामने चलायी जा रही आगनबाड़ी योजना का लाभ इनको नसीब नहीं हैं
आगनबाड़ी केन्द्र में कुपोषित बच्चों के लिये सामान्य बच्चों से दूना यानि 180 ग्राम प्रतिदिन पोषाहार व विशेष चिकित्सकीय सेवा/देखरेख करने का प्रावधिान है। मासिक आधार पर 0-5 साल के बच्चों के लिये स्वास्थ्य जांच कर सेवायें प्रदान करना हैं, लेकिन समाज का अंतिम व्यक्ति/परिवार क्या इस सेवाओं से जुड़ा है यह एक प्रश्नचिन्ह हैं। 22 दिसम्बर 2004 को उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव के शासनादेश के अनुसार भूख व कुपोषण के शिकार परिवारों को स्थानीय प्रशासन द्वारा न्यूनतम 1000 रूपये की आकस्मिक सहायता दी जानी चाहिये। 
पूर्वाचंल के स्याह सच से रूबरू कराती नीलम की कुपोषण  से हुई मौत मात्र इस पिछड़े इलाके की बानगी ही है लगातार विकास के चक्र में पिछड़ते चले जा रहे इस क्षेत्र मंे सरकारी योजनाऐं तो जमकर आई लेकिन इसका लाभ आम आदमी की जिन्दगी नही बदल सकी है भ्रष्टाचार की भेट चढ़ चुकी परियोजनाओं का लेखा-जोखा लेने वाली महालेखा परीक्षक सीएजी की टिप्पणी भी काबिले गौर है। सी ए जी के मुताबिक योजनाएं अनियमितताओं से भरी पड़ी है, जिसे शासन ने भी स्वीकारा है। पूर्वाचंल विकास निधि से वर्ष 2004-05 मंे 148.16 करोड़ खर्च वर्ष 2005-06 में 169.89 करोड़ वर्ष 2006-07 में 306.36 करोड़ तथा वर्ष 2007-08 में 419.00 करोड़ रूपये खर्च होने के बाद भी तस्वीर नहीं बदली है।
पिछड़ने की वजह विकास पर करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद और भी पिछड़ जाने की मुख्य वजह रही कृषि, ऊर्जा, शिक्षा, उद्योग, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य जैसे महत्पूर्ण सेक्टर की परियोजनाओं को न लिया जाना। 
पूर्वाचंल के 29 जिले इलाहाबाद, अम्बेडकर नगर, आजमगढ़, बहराइच, बलिया, बलरामपुर, बाराबंकी, बस्ती, चंदौली, देवरिया, फैजाबाद, फतेहपुर, गाजीपुर, गोंडा, गोरखपुर, जौनपुर, कौशाम्बी, महाराजगंज, मऊ, मिर्जापुर, कुशी नगर, प्रतापगढ़, संत कबीरनगर, संत रविदासनगर, सिद्धार्थनगर, सोनभद्र, श्रावस्ती, सुल्तानपुर और वाराणसी। कानून का रक्षक ही जब भक्षक हो जाए तो हाल-बेहाल ही होगें कुछ-कुछ हालात हयाँ भी इसी तरह के है। नियम कानून को ठंेगे पर रखते हुऐ लूट का खेल खेलने मंे महारात तिकड़ी ने हैरत अंगेज कारनामे कर डाले है। 
पांच सालों में (2004 से 09 तक) बुन्देलखण्ड और पूर्वाचंल मंे 6763 पयिोजनाएं स्वीकृत की गयी, जिनमंे 5648 परियाजनाएं पूरी की गयी। जानकर ताज्जूब होगा कि ग्रामीण अभियंत्रण सेवा, उप्र प्रोजेक्ट कारपोरेशन लिमिटेड, उप्र समाज कल्याण निर्माण निगम और गन्ना विकास विभाग ने 2425 परियोेजनाओं को सम्बंधित प्रशासनिक विभागों से रखरखाव की सहमति लिए बिना ही क्रियान्वित कर डाला। नियम यह है कि पूर्वाचंल विकास निधि और बुन्देलखण्ड विकास निधि की परियेाजनाओं को शुरू करने से पहले सम्बंधित प्रशासनिक विभागों से उनका रखरखाव विभागीय बजट से करने की सहमति प्राप्त की जाएं। पर, ऐसा नहीं हुआ। परिणामस्वरूप परियोजनाएं भगवान भरोसे ही रही है। कार्यदायी संस्थाओं ने देखरेख इसलिए नही की क्योंकि उनके पास इस कार्य के लिए बजट नही था। सम्बन्धित विभाग, जिसे अपने बजट से इस परियोजनाआंे का रखरखाव करना था, उससे कोई सहमति नहीं ली गयी थी।
तकनीकी स्वीकृति की अनदेखी
नियम है कि किसी परियोजना को तब तक नही शुरू किया जा सकता, जब तक उस पर तकनीकी स्वीकृति न हासिल हो जाये। अधिकारियों ने किस तरह इस नियम को ठेंगा दिखाने का काम किया, इसका अंदाजा सीएजी रिपोर्ट मंे दर्ज तथ्यों से आसानी से लगाया जा सता है। सीएजी ने जांच के लिए बतौर नमूना, जौनपुर जिले की परियोजनाआंे का चुना। जांच से पता चला कि सिर्फ 2006-07 यानी एक सला में स्वीकृत 34 परियोजनाओं मंे से 16 परियोजनाओं को तकनीकी स्वीकृति नहीं थी, जबकि इनमंे 12 पूरी भी हो गयी थी।


पुर्वाचंल के दुख दर्दो को जानने के लिए 8 वर्ष पूर्व एक जज की आंखों देखी कहानी आज भी उतनी ही ताजी है जितनी उस वक्त थी। इसे पढ़कर सोचना होगा कि क्या इस देश के लिए कामनवेल्थ जरूरी था या भूखों के लिऐ रोटी?
वर्ष 2002 मंे केरल व मुम्बई होईकोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस के. सुकुमारन की अगुवाई मंे इंडियन पीपुल्स ट्रिब्ूनल ने पूर्वाचंल मंे आदिवासियों और दलितों के गांवों का दौरा कर सुनवपई की थी, यह ट्रिब्यूनल नरकटी (नौगढ़), बाबतपुर, बेलवां और पिपरी (वाराणसी) गांवों मंे गया। नरकटी के लोग तंेदूपत्ता तुड़ाई की मजदूरी बढ़ाने की मांग के लिए हड़ताल कर रहे थे। पुलिस ने पूरे गांव को नक्सली बताकर पीटा और उजाड़ दिया था। बाबतपुर मंे हवाईअड्डें के लिए जमीन लेने का विरोध कर रहे लोगों पर पुलिस ने गोली चलायी, एक आदमी मारा गया। बेलवां मंे मुसहर बंधक थे और बच्चों को स्कूल जाने से रोक दिया गया था। पिपरी मंे अम्बेडकर की मूर्ति तोड़ दी गयी थी। आजादी के बाद सुकुमारन पहले जज थे जो खुद चलकर इन गांवांे तक आये और अपनी आंखों से वहां का हाल देखा। ट्रिब्यूनल जिस निष्कर्ष पर पहुंचा और उसने जो रपट पेश की वह आंखें खोल देने वाली है। यह रपट राजय सरकार की किसी आलमारी में धूल खा रही है। पेश है रपट के खास अंशः'
दरिद्र बनाये रखने का षड्यंत्रः- इन गांवों मे भयानक गरीबी है, लेकिन सरकारी योजनाआंे का कहीं अता-पता नही है। स्कूल, हैण्डपम्प, अस्पताल और सरकारी कर्जे के लाभार्थी कहीं नहीं मिले। ट्रिब्यूनल का मत है कि ऐसा जानबूझकर किया गया है, क्यांेकि अगर इन लोगों की हालत योजनाओं से सुधर जाएगी तो वे बड़ी जातियों कम अत्याचारों का विरोध करने लगंेगे। 
नरकटीः- पुलिस से कानून-व्यवस्था सम्भालने वाली निरपेक्ष संस्था होने की उम्मीद की जाती है लेकिन नरकटी मंे पुलिस ने तेंदूपत्ता ठेकेदारों से मिलकर जुल्म ढाया ताकि लोगों का मनोबल टूट जाए। अगर हड़ताल के बाद तेंदूपत्ता तु़ड़ाई की मजदूरी बढ़ाने पड़ती तो ठेकेदारों का नुकसान होता और गांववालों की जीवन स्थितियां बेहतर हो जातीं।
बाबतपुरः- हवाई अड्डा प्राधिकरण और राज्य सरकार दोनों कानूनी ढंग से ग्रामीणांे की जमीन लेना चाहते थे। इसका विरोध करने पर पुलिस ने बगैर चेतावनी दिये फायरिंग की जिसमेें एक आदमी मारा गया और कई घायल हुए। ट्रिब्यूनल का मत है कि अगर यह जमीन दलितों की नहीं होती तो अफसरों की ऐसा करने की हिम्मत भी नहीं पड़ती।
बेलवांः- दलित बच्चों को स्कूल भेजना चाहते थे लेकिन प्रधान ने बड़ी जातियों के साथ मिलकर स्कूल पर ही कब्जा कर लिया। अगर दलितों के बच्चे पढ़ने लगते तो उन्हें अपना अधिपत्य बनाये रखने मंे खतरा होता। यहां शिक्षा के अधिकार से उन्हे बलपूर्वक वंचित कर दिया गया। 
पियरीः- यहां बड़ी जाति के माफिया ने पुलिस से मिलकर अम्बेडकर की मूर्ति तोड़ डाली। बच्चों, औरतों को पीटा गया, घर तोड़े गये ताकि आतंक फैले। वे नहीं चाहते कि दलितों के सशक्तीकरण के सांस्कृतिक प्रतीक सलामत रहें।
वर्दी मंे छिपा माफियाः- इस इलाके मंे पुलिस निर्बलों को दबंगों से बचाने का काम कतई नहीं करती। ऊंची जाति के माफिया के साथ वह ढेरों अवैध दबंगों मंे लिप्त है। पुलिस यहां सर्विस रूल्स, शिड्यूल कास्ट एवं शिड्यूल ट्राइब्स एक्ट, मानवाधिकार, नागरिक व राजनीतिक अधिकारों का खुला उल्लंघन करती हैं। रिपोर्ट न लिखन, अवैध ढंग से हिरासत मंे रखना, यातना देना और घरों मंे घुसकर लूटपाट करना आम हथकंड़े है। लोग पुलिस को रक्षक नहीं 'गुण्डा' के रूप मंे देखते है।
लोकतंत्र और पंचायती राज बेमानीः- आदिवासियांे, दलितों के लिए इस इलाके में लोकतंत्र व्यर्थ है। दण्ड देने के तरीके सामंती हैं और कानूनों का खुलेआम दबंग उपहास करते है। उन्हेें वोट डालने से भी रोका जाता है। पंचायती संस्थाआंे पर दबंगों और सार्मतोे का काब्जा है। वहां दलितों, आदिवासियांे की किसी किस्म की सुनवाई होने का सवाल ही नहीं उठता। मानवाधिकारांे के हनन की शिकायतें राज्य सरकार तक नहीं पहुंच पाती क्यांेकि यहां राज्य मानवाधिकार आयोग है ही नहीं।प्रदेश में 1990 के दशक के प्रारम्भ से ही मण्डल और कमण्डल की राजनीति के प्रभाव से उत्तर प्रदेश की राजनीति के प्रभाव से उत्तर प्रदेश की राजनीति से राशन, रोशनी, रोजगार, शिक्षा, सेहत जैसे प्रगतिशील और राष्ट्रीय मुद्दे परिदृश्य से गायब हो गयें मण्डल के खिलाफ भाजपा ने प्रचण्ड हिन्दुत्व के मुद्दे को रगर्म कर देश व प्रदेश की सत्ता पर काबिज हुई। लेकिन जल्द ही कमंडल का तेज कम हो गया। उसके बाद पूरा समाज जातियों उपजातियों में इस कदरबंटा की विकास का मुद्दा बेमानी माने जाने लगा। जातीय गौरव का बार चैरतफा होने लगा। जातियों और उपजातियों  के आधार पर सियासी पहियांनुमा जातीय गिरोह बनने लगे। मुसलमान भी विभिन्न फिरको में बंटे नजर आये लेकिन वे भी विशुद्ध मज़हबी तौर पर संगठित हुए।
लगभग दो दशक की जातीय ओर फिरकापरत सियासत के दौर में निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश विकास के पैमाने पर दूसरे राज्यों की तुलना में पिछडा। दर्जनो चीनी मिले, डाला चुर्क, चुनार जैसी सीमेन्ट फैक्टट्रियाँ कताई मिले बन्द हुई। हजारों की तादाद में जो भी-रोजगार थे बेरोजगार हो गये। प्रदेश में करोडों बेकारों की फौज मगजमारी कर रही हैं गांवो से शहरों की ओर पलायन तेज हुआ। अपराधीकरण से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। इसके बावजूद हर सियासी दल जातीय ब्यूह तैयार करने में व्यस्त है। भाईचारे को छिन्न-भिन्न करने की प्रयास किया जा रहा है। इस स्थितियों-परिस्थितियों में जनता को निश्चित तौर पर किसी प्रगतिशील और अग्रगामी सोच वाले विकल्प की तलाश है। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में दलित, पिछड़ी जातियांे और मुसलमान मतदाताओं में तेजी से विखण्डन हो रहा है। बसपा के दलित वोट बैंक पर कांग्रेस ने डांका डाला है। पिछड़े कई हिस्सो में विभक्त हो चुके हैं ऐसे में शिक्षित मध्यम वर्ग के मतदाताओं के सामने विकल्प का चुनाव करना कठिन हो गया है कांग्रेस  के एंग्री एंग मैन राहुल गांधी अपने जीवन की सबसे कड़ी परीक्षा से गंुजर रहे है। वही दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के युवराज अखिलेश यादव, राष्ट्रीय लोकदल के जयन्त चैधरी, राष्ट्रीय जनक्रान्ति पार्टी के राजबीर सिंह तथा अपना दल की अनुराधा पटेल को अपनी राजनैतिक विरासत की कड़ी परीक्षा में खरा उतरकर आना है। पूर्वाचंल के बिकास की सुध लेने के लिऐ कोई दल खरा नहीं दिख रहा है। बोटर आखिर किस पर बिश्वास कर अपना भाग्यबिधाता बना दे।



दलीय चोला बदलने मंे माहिर पूर्वाचंल के बाहुबली 
समय के साथ दलीय चोला बदलने मंे माहिर पूर्वाचंल के बाहुबली नेता रहे है उन्हे हर हाल मे सत्ता का साथ जरुरी रहता है। चुनाव 
में भले ही दागियों का मुद्दा सुर्खियों में हो परन्तु इससे आपराधिक छवि वाले नेताओं की सेहत पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। क्योंकि ये दल बदल मंे माहिर होते है और सभी दलों में अपना नेटवर्क मजबूत रखते है।
इन नेताओं के दलबदल का रिकार्ड भी बेहद रोचक है। अंसारी बन्धुओं की बात करें तो कांग्रेसी पृष्ठ भूमि वाले परिवार में पैदा हुए बड़े भाई अफजल अंसारी 1985 में भाकपा के टिकट पर मोहम्दाबाद गाजीपुर से पहली बार विधायक चुने गये और 1984 में जेल में बन्द अपने भाई मुख्तार को बचाने की गरज से समाजवादी पार्टी मे शामिल हो गये। इतेफाक देखिए कि वही भाई जेल से छूटने के बाद घोसी लोकसभा क्षेत्र से बसपा उम्मीदवार बना परन्तु उसे हार का सामना करना पड़ा, बाद में यही की मऊ सीट से विधायक बना। भाजपा विधायक कृष्णानन्द राय की हत्या के बाद इन भाईयों के चलते सपा सरकार की खूब किरकिरी हुई। सत्ता बदली तो ये दोनों भाई बसपा में शामिल होकर गाजीपुर व वारणसी से प्रत्याशी भी बने लेकिन चुनाव हार गये। निष्कासन के बाद इन भाइयों को नये घर की तलाश है। 
यहीं स्थिति गोरखपुर के तिवारी परिवार की थी है। अस्सी के दशक में चिल्लूपार से निर्दल विधायक चुने गये हरिशंकर तिवारी की गोरखपुर व आस पास के इलाके मे एक जमाने मे तूती बोलती थी। बाद में श्री तिवारी कांग्रेस के टिकट पर कई बार विधायक चुने गये परन्तु 1996 में उनका कांग्रेस से मोहभंग हुआ तो तिवारी कांग्रेस के टिकट पर विधायक हुए और कल्याण सिंह राम प्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह, मायावती और मुलायम समेत सभी सरकारांे में कबीना मंत्री पद सुशोभित किया। दुर्भाग्य से पिछला चुनाव वे हार गये ऊपर से वर्तमान सरकार की नजर बेटों के ठेकेदारी के धन्धे पर पड़ी थी। इसलिए बपा से जुड़ गये आज बेटा  सांसद है और तिवारी मौज मंे है। पुराने कम्युनिस्ट मित्रसेन यादव की कहानी भी कम रोचक नहीं है। आजीवन कारावास की सजा माफ होने के बाद 1977 में मिल्कीपुर क्षेत्र से विधायक का चुनाव भाकपा के टिकट पर जीते श्री यादव का सन् 1994 मंे धन धरती बांटते बांटते ऊब गया और वे लालबत्ती की चाहत मंे भाकपा राज्य सचिव का पद छोड़ सपा में शामिल हो गये। यहां उनकी सपा प्रमुख से ज्यादा दिनों तक पटी नहीं और 1999 में टिकट कटने के बाद उन्होंने पार्टी छोड़ दी। बाद मंे बसपा मंे गये वहां से भी निकाले गये फिर सपा में आये और कुछ समय बाद पुनः बसपा में गये सांसद बने तथा बेटे को सरकार में मंत्री बनवा दिया। परन्तु मंत्री बेटे का नाम एक युवती की हत्या मेें आने के बाद फिर से एक बार बसपा छोड़ सपा में शामिल हुए। इसी प्रकार बसपा सांसद धनजंय सिंह की कहानी भी रोचक है। 1997 मंे जिन धनंजय को मुठभेड़ में मारने का दावा युवी पुलिस कर रही थी वहीं 2002 में लोजपा से विधायक बने और कई सरकारों को समर्थन दिया और वापस लिया। 2007 में जदयू के टिकट पर फिर विधायक बने और पिछले वर्ष बसपा में शामिल होकर सांसद चुने गये तथा पिता को विधायक बनवा दिया।अब बसपा से बाहर है इनकी पत्नी र्निदल प्रत्याशी के रुप में बिधान सभा का चुनाव लड रही है। इस लिस्ट मंे प्रदेश के कई दिग्गज शामिल है। चाहे मधुमिता काण्ड वाले अमरमणि हों या अतीक अहमद हों या, बृजभूषण शरण सिंह हो या रमाकान्त उमाकान्त बन्धु सबके दलबदल के रिकार्ड लम्बे चैड़े है। इनके लिए दलीप निष्ठा का काई मतलब नहीं रह गया है। जहां मामला फिट हो जाय वही धन्धा फैला दिया। कई बाहुबली छवि के नेता रहते किसी और पार्टी मे है और टिकट का जुगाड़ किसी और पार्टी से करते रहते है। किसी भी सरकार के अभियानों का इन पर कोई असर नहीं होता है क्योंकि इन्हें पता है कि इनक जिताऊ ताकत की सभी दलों को जरूरत है।


सत्ता के साथ बनाकर चलते है समीकरण
दागियों क दल-बदल का रिकार्ड
मुख्तार अंसारी- बसपा, निर्दलय, सपा, फिर बसपा अब कौमी एकता दल
मित्रसेन यादव- भाकपा, सपा, बसपा , सपा, बसपा, सपा
धनजंय सिंह- लोजपा, निर्दल, जदयु, बसपा निर्दल,
हरिशंकर तिवारी- निर्दल, कांग्रेस, कांग्रेस तिवारी, बसपा
अतीक अहमद- निर्दल, सपा, अपना दल, सपा, अपनादल
अमरमणि त्रिपाठी- कांग्रेस, कांग्र्रेस तिवारी, कांग्रेस, बसपा, सपा
रमाकान्त यादव- कांगे्रस स., बसपा, सपा, जदयु, बसपा, भाजपा
रिजवान जहीर- निर्दल, सपा, बसपा, सपा, बसपा
अशोक चन्देल- सपा, बसपा, सपा, बसपा,  से निष्कासित निर्दल,
बृजभूषण शरण सिंह- कांग्रेस, भाजपा, बसपा, सपा


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यह स्टोरी 2012 में कई पत्र और पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी,दस्तावेज-2012 के तहत तत्कालीन समय के राजनैतिक माहौल को समझाने के उद्देश्य  से पुनः प्रकाशित कर रहे है।


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यह आलेख कापीराइट के कारण लेखक की अनुमति आवाश्यक है।


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लेखक का पता


सुरेन्द्र अग्निहोत्री
ए-305, ओ.सी.आर.
बिधान सभा मार्ग,लखनऊ
मो0ः 9415508695,8787093085


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