विकास की बूंद- बूंद को तरसता बुंदेलखंड



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देश के बीमारू राज्यों में शामिल उत्तर प्रदेश के सात जिलों में फैला बंुदेलखंड आज भी जल, जमीन और जीने के बाद के लिए तड़पते लोगांे का केंद्र बना हुआ है। महिलाओं, दलितों और वंचितों की जिंदगियां मानवीय विसंगतियों की बेपनाह गाथाओं की पुनरावृत्तियों में समाती जा रही है। रोजी-रोटी और कहीं-कहीं पानी की विकट समस्या से त्रस्त लोग साल-दर-साल पलायन के लिए मजबूर होते रहते है। सामंती मानसिकता में जकड़े कुछ लोगों की मुटठी में इन गरीब बेबस लोगों के साथ कानून की सिसकिया भरता नजर आ रहा है। प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का आठवां हिस्सा अपने में समेटे यह समूचा अंचल भूमि उपयोग व वितरण, कार्यशक्ति, जलवृष्टि, सिंचाई, उत्पादन, सूखा व बाढ़, आजीविका जैसे तमाम मसलों पर बहुत ही पीछे है। मानवाधिकारों का तो यहां कोई पुरूसाहाल नहीं है। झांसी और चित्रकूट मडलों मं विभाजित बुंदेलखंड में प्रदेश की कुल आबादी की लगभग पांच प्रतिशत जनसंख्या है। औसत से कम बरसात के कारण प्रत्येक दो-तीन वर्ष बाद बुंदेलखंड सूखे की चपेट मंे आ जाता है। कभी खरीफ तो कभी रबी और कभी दोनों फसलें चैपट हो जाती है। हर साल तकरीबन अठारह प्रतिशत बाल/आवस्यक विवाह होते हैं। लगभग सोलह प्रतिशत जमीन बंजर अथवा गैर कृषि योग्य कार्यो में है। बेसिक व हायर सेकंेडरी स्कूलों की स्थिति प्रदेश के अनुपात मंे कही दो, कही तीन तो कहीं एक प्रतिशत के लगभग ही है। विकास के तमाम कामों के बावजूद गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों की संख्या लगभग चालीस प्रतिशत है, जो लोकतंत्र के मुंह पर एक करारा तमाचा है। बुंदेलखंड के चित्रकूट मंडल में तो हालात और भी बदतर है। यहां चार-चार दशकों से लोग पट्टे की जमीन पर कब्जे के लिए भटकते नजर आते है। ग्रामीण क्षेत्रों मंे विशेष तौर से महिलाओं और गरीबों, वंचितों की हालत गुलामी जैसी है। अनेक तरह की खनिज सम्पदाओं पर सामन्ती विचार के लोगों के कब्जे है। एक ही जमीन पर वन विभाग और राजस्व विभाग अपने-अपने कब्जे बताते हुए आदिवासियों को खदेड़ देते है। सरकारी राशन के दुकानों में खाद्ययान उपलब्ध कराने वाली गोदाम का प्रभारी पंकज कुमार चित्रकूट में आत्म हत्या करने को विवश होता है ? 



चित्रकूट मंडल की धरती का दर्द बहुत ही गहरा है। इसे जहां से छुएं सिसकियां ही सिसकारियां हैं। वन विनाश, पहाड़ों का विनाश, नदी तटों की कटान, उनकी क्षमता का हास, उद्योगांे के नाम पर स्टोन क्रेसर, गे्रनाइट आदि कार्यो के अनियमित विस्तार, धन-बलियों के साथ सत्ता के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग, वनीकरण के नाम पर यूकेलिप्टस अथवा विलायती बबूल के रोपण, जड़ी-बूटियों और अन्य वन उपजों के क्षरण, प्राकृतिक अंसतुलन, रासायनिक खादों के बेहिसाब प्रयोगांे से खेतों की उर्वरता नष्ट होने, अधिक पानी वाली फसलों के उत्पादन पर जोर और निष्प्रभावी प्रशासन तंत्र आदि-आदि व्याथियों से घिरी यह धरती वेदना के अथाह सागर में डूबी है। चित्रकूट मंडल के पाठा क्षेत्र में पानी की त्राहि-त्राहि है। जबकि इसके भूगर्भ में 12 किलोमीटर चैड़ी और 110 किलोमीटर लंबी नदी बहती है। जहां से जहां से तीस से चालीस हजार गैलन प्रति घंटे के हिसाब से पानी निकाला जा सकता है। यह सब एक भगीरथ प्रयास से ही संभव है। यदि काई भगीरथ ऐसा ठान ले तो हर साल बुंदेलखंड में साठ से सत्तर करोड़ रू. का बजट केवल पानी की उपलब्धता के लिए बनाने की जरूरत नहीं रह जायेगी।
सरकारी ग्रामीण विकास योजना मनरेगा कबीना मंत्री यही के होने के बाद गांव की अर्थव्यवस्था को सुधार नहीं पायी है। गरीबी, असमानता, बेरोजगारी और पलायन जैसी विकराल समस्याएं आज भी बरकरार है। आज तक ग्रामीणों को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पायी और दूसरी ओर सत्ताधारी प्रदेश सरकार उत्तर प्रदेश के बुन्देलखंड कें  गांवों में मनरेगा का दायित्व मंत्री दद्दू प्रदसाद को सौपे है तो केन्द्रसरकार ने प्रदीप जैन आदित्य को केन्द्रीय राज्यमंत्री बनाया है यही कुछ हाल मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड का है वहां कबीना मंत्री गोपाल भार्गव सागर मध्य प्रदेश के निवासी है। लेकिन बुन्देलखंड के उत्तर प्रदेश तथा मध्यप्रदेश के भू-भाग मंे  आज जनता के पास दो वक्त खाने का अनाज नहीं है। और न कोई  रोजगार उपलब्ध है। सिंचाई, स्वास्थ्य  और शिक्षा की सारी योजनाएं अपना व्यापक असर नहीं डाल पायी है। सरकारी वायदें और नीतियों ने ऐसें चैराहे पर  लाकर खड़ा कर दिया है। जहां से लौटना कठिन है समाजवादी विचारक राजेन्द्र रजक कहते है कि सत्ता के दलालों का बुन्देलखण्ड मंे बोलबाला है। मजदूरों की मजदूरी हड़पना इनकी नीति बन गयी है। महात्मा गांधी  रोजगार गारंटी योजना  बेरोजगारी की समस्या का हल नहीं कर पायी। लाखों लोग गांव छोड़कर छह से आठ मास के लिए पलायन कर जाते है। सामाजिक सुरक्षा योजना द्वारा गरीबों को मिलनेवाले अनाज डीलरों द्वारा खुले बाजार में बेच दिया जाता है।



आय वृद्धि योजना के तहत अनेक ग्रामीणां को कर्ज के फंदे में लटका दिया गया है। राशन की दुकानों से गरीबी रेखा से नीचे के लोगों द्वारा राशन का उठाव बहुत कम है। विकास कार्यो के निर्माण मंे कमीशन, लेबी और चोरी आम है। कई ठेकेदार बताते है कि किसी भी निर्माण कार्य मंे उन्हें 35 प्रतिशत तक अफसरों को कमीशन देना पड़ता है। ग्रामीण विकास कार्य ठोस नीति और जनभागीदारी के अभाव में विफल साबित हुआ है। अभी तक ऐसी कोई नीति नहीं बनाई गइ्र जो ग्रामीण समुदाय के लिए संरचनात्मक ढांचा उपलब्ध करा सके। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद सूचनाएं आम जनता तक नहीं पहुंच पाती है।
असंवेदनशील अफसरों की सामन्ती मानिकसता के कारण कई दिशा-निर्देशों का अनुपालन नहीं किया जाता। गरीब आदिवासी अपने पेट की आग शांत करने के लिए सामा घास की रोटी खाने को मजबूर है। स्थानीय प्रशासन भूख की समस्या को सामने नहीं आने देता चाहता है क्यांेकि उनकी कलई खुलने का खतरा रहता है। सकरा का सच सामने आने के बाद ललितपुर के मड़ावरा ब्लाक मंे स्थानीय प्रशासन की नींद थोड़ी टूटी है, लेकिन सामंतो का यहां भी शासन है। ललितपुर जनपद में ग्रामविकास मंत्री ने खाॅदी बिजरौठा में जाॅब कार्ड की गड़बड़ी पकड़ी लेकिन सीडीओ की उदाशीनता के चलते मामला जस का तस बना हुआ है। कांग्रेस के झांसी जिलाध्यक्ष सुधांशु त्रिपाठी कवि अग्निवेद की यह कविता कोड करते है 
'ऊचे बंगले और घर 
तभी तक रहेगे कायम 
जब तक झोपड़ियों में
जलते दीपक में है दम!'
बुंदेलखंड में विकल्प एवं पहल की संभावनाएं पर ध्यान देने के लिए ठोस पहल की आवश्यकता है क्योंकि पिछले लगभग एक दशक मंे चित्रकूट मंडल के बांदा, महोबा, हमीरपुर, चित्रकूट जिलों में औसत वर्षा होती रही है। लेकिन जरूरत के समय एक-एक महीने तक लगातार बारिश न होने से फसले सूख जाती है। बेतवा,केन, धसान, सहजाद, मंदाकिनी जैसी नदियांे के बावजूद सिंचाई के संसाधनों का समुचित विकास नहीं किया गया। फलतः सिंचाई के अभाव में यह क्षेत्र लगातार सूखा झेलता आ रहा है। समाजसेवा की आढ़ में अनेक स्वयंसेवी संस्थाऐं बुन्देलखंड को चारागाह के रूप में इस्तेमाल कर रही है उन्हें इस क्षेत्र के गरीबांे से कोई मतलब नहीं है। खादी का कुर्ता और जीन्स पहनकर बुद्धिजीवी बने तथा कथित लोग पुरूस्कार पाने की होड़ में सेवा का का नाटक करते हुये करोड़ों रूपये का अनुदान हड़प रहे है। इन स्वयंसेवी संस्थाओं ने एक भी कार्य ऐसा नहीं किया है जिसका उललेख किया जा सके। फर्जी सेमीनार और गोष्ठीयों के बल पर बिल बावचर बनाकर मालामाल हो रहे है। झांसी मण्डल तथा  चित्रकूट मंडल से जुड़े ललितपुर एवं चित्रकूट जिले में खासतौर से प्राकृतिक संसाधनों के समतामूलक स्वामित्व और उपयोग को गरीबी अन्मूलन के प्रमुख हथियार के रूप मंे इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन मड़ावरा, जखौरा, बार ब्लाक ललितपुर के उपेक्षा का दर्द सह रहे है।  चित्रकूट जिले के मानिकपुर और मऊ ब्लाकों में शुरूआती दौर में कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने थोड़ा बहुत कार्य किया है।  चित्रकूट जिले की लगभग छह लाख की आबादी में एक लाख साठ हजार अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग निवास करते है। मऊ और मानिकपुर ब्लाकों में अनुसूचित जाति और जनजाति के तिहत्तर हजार लोग रहते है, इन दोनों ब्लाकों की कुल आबादी लगभग दो लाख चालीस हजार है। इस क्षेत्र मंे रहने वाले ज्यादातर कोल तथा शहरिया आदिवासी पहले अपनी भूमि के मालिक होेते थे। लेकिन पिछली लगभग एक शताब्दी के दौरान शोषण के गहन कुचक्र के कारण वे अपनी ही जमीन पर बंधुवा मजदूर बनकर रह गये। डेढ़ दशक पहले उत्तर प्रदेश डेवलपमेंट कारपोरेशन (यूपीडेस्को) के सर्वेक्षण मंे बताया गया था कि पाटा के 7336 अनुसूचित जाति के परिवारों मंे से 2316 परिवार बंधुवा मजदूर थे। पूरे क्षेत्र में डाकुओं के गिरोह भी अरसे से सक्रिय है। ललितपुर के मड़ावरा में आदिवाशी भारी कुपोषण के शिकार है तो विद्यालयों में घटिया खाद्ययान का वितरण हो रहा है। पेंशन के लिए चित्रकूट में महिलायें भटक रही है। झांसी तथा हमीरपुर के नागरिक प्रदूषण पैदा कर रही है क्रेसर और मौंरग की खदानो से परेशान है तो महोबा में शिक्षा के लिए बच्चे मध्यप्रदेश में पलायन कर रहे है। चारों ओर आक्रोश फैला हुआ है। भूख से पाह मेहरौनी सहरिया आदिवासी खुमान पुत्र चिन्ने आत्म हत्या करता है। प्रशासन उसकी मौत को गरीबी और भुखमरी मानने को तैयार नही जबकि इसके घर में खाने को एक भी दाना नहीं होता है। परिवार के पास गरीबी रेखा का राशन कार्ड भी नहीं कवि पाश के शब्दों में 
आपके मानने या न मानने से
सच को कोई फर्क नहीं पड़ता।
इन दुखते हुए अंगों पर सच ने एक जून भुगती है।
और हर सच जून भुगतने के बाद
युग में बदल जाता है
और यह युग अब खेतों और मिलों मंे ही नहीं
सेना की पांतों में भी विचर रहा है।
कल जब यह युग
लाल किले पर परिणाम का ताज पहने
समय की सलामी लेगा
तो आपको सच के असली अर्थ समझ आएंगे।
अब हमारी उपद्रवी जाति को
चाहे इस युग की फितरत कह लें,
यह कह देना,
कि झोपड़ियों में फैला सच
कोई चीज नहीं।
कितना सच है?
आपके मानने या न मानने से
सच को कोई फर्क नहीं पड़ता।



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यह स्टोरी 2009 में कई पत्र और पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी,दस्तावेज-2009 के तहत तत्कालीन समय के राजनैतिक माहौल को समझाने के उद्देश्य  से पुनः प्रकाशित कर रहे है।


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यह आलेख कापीराइट के कारण लेखक की अनुमति आवाश्यक है।


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लेखक का पता


सुरेन्द्र अग्निहोत्री
ए-305, ओ.सी.आर.
बिधान सभा मार्ग,लखनऊ
मो0ः 9415508695,8787093085


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