बेसिक भाषा तो मेरी हिंदी ही थी-मुनव्वर राणा


प्रश्नः- आपको साहित्य के क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा कैसे प्राप्त हुई ?


उत्तरः- मैं रायबरेली का रहने वाला हूं और जब आंखे खोली तो मलिक मोहम्मद जायसी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मुल्ला दाउद जैसे लोगों को देखा तो नहीं लेकिन यह सच है कि उनलोगों की वजह से ही ये शहर था वो साहित्य का एक केंद्र था आज भी वहां सांप्रदायिक सौहार्द का ये नमूना है कि हिंदुस्तान का हर शहर जलाया गया लेकिन हमारे शहर में कभी ये सब हुआ नहीं तो ये उसकी एक अजीबो-गरीब खूबी है वहां शायरी का बड़ा चलन था, कविता का, गजल का, सभी तरह के ड्रामे का, नौटंकी का सभी तरह के प्रोग्राम का बड़ा शौक था । उसमें हमलोगों को बहुत मजा आता था । हमारे दादापरदादा वहां पढ़ाते थे, वहां लोग ये कहते थे कि साहब 'र' से 'राम' कहना हमारे परिवार ने मौलवी साहब के घर में सीखा है। हमारे दादा सिखाते थे, उस जमाने में जो मुहल्ले के बच्चे होते थे सभी तरह के, सब आते थे और हिंदी, ऊर्दू, तमिल मदरसे में सिखाई जाती थी ।


दो-तीन चीजें थी, एक तो यह कि जो सेक्यूलिरिज्म कह रहें हैं जिसको सियासत ने सेक्यूलिरिज्म नाम दे दिया है, लेकिन उसका नाम सिर्फ मुहब्बतकह दीजिए तो इतनी मुहब्बतें थीं, कि एक स्कूल था-सब पढ़ते थे, एक हांडी थी-सब खा लेते थे, एक घर होता था-सब रह लेते थे तो उसी तरह से हम उसमें जन्में तो, उसकी वजह से हमें अपनी शायरी में, अपने जीवन में, अपनी सोच में कहीं से ये लाना नहीं पड़ा कि हम कैसे ढूंढे, क्या करें, सब कुछ मौजूद हैं । इसी वजह से बचपन से जब बहुत छोटे बंदे यानि सात-आठ वर्ष से हमारे दादा हमको ले जाते थे, शायरी में, वो सिखाते थे मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है, वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है । इस तरह से होते-होते मैं शेर-वेर तो उतना नहीं कहता लेकिन तुकबंदी कर लेता था मैं तुकबंदी आज भी करता हूं लेकिन दुनिया कम पढ़ी-लिखी है इसलिए उसको शायरी समझने लगी इसके बाद बुरा वक्त ये आया कि सब मेरे बाकी खानदान के लोगों ने पाकिस्तान के लिए हिज्जत (माइग्रेट) किया तो उसमें हमारी सब बुआयें गयीं, चाचा गये, बड़े बाप गये, उन सबके इश्क में हमारी दादा-दादी तक चले गये । मैंने कहीं किताब में लिखा भी है कि जब वो दादी जो मुझे सबसे ज्यादा चाहती थीं, मुझे वो भी छोड़कर चली गयी तो मुझे ये मुहावरा गलत मालूम हुआ कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है, अगर ऐसा होता तो मेरी दादी मुझे छोड़कर पाकिस्तान नहीं जातीं। लेकिन मेरे वालिद बहुत जिद्दी थें उन्होंने कहा कि नहीं हम नहीं जाएंगे। बाकि सब लोगों ने पूछा भी अवधिया जबान में, कि यहां का करियो-तो कहलें कि कौनो काम ना मिलिहें, तो हम सब्र के बैठे रहिबे जो पूर्वज की सबें हैं, वहीं ताकेंगे यहां बैठ के हम तो वो नहीं गये इसी जिद में तो यहीं रहते थे, जो थोड़ी बहुत जमीनें थी वो बिक गयीं । अपना-अपना हिस्सा ये जाना वो जाना सब खत्म हो गया । मेरे वालिद ने पेट पालने के लिए ट्रक चलाया करीब 25-30 साल जी.टी.रोड पर, फिर कलकत्ते में उन्होंने ट्रांसपोर्ट का काम शुरू किया थोड़े हालात ठीक हुए तो हमलोगों को उन्होंने वहां बुला लिया । मेरी पढ़ाई तीन साल तक लखनऊ में मेरी दादी की एक छोटी बहन के यहां हुई थी । सेंट जॉन्स से हाईस्कूल, बाकि फिर 1968 में हम कलकत्ता चले गये । इस तरह हालात ने हमें प्रेरणा दी ।


प्रश्नः- आपका पारिवारिक कार्य तो व्यापार का रहा है?


उत्तरः- जी, जब हम कलकत्ता आ गये, 1968 से 2002 तक तो हम वहीं थे मुस्तिकल आजकल ज्यादातर लखनऊ रहना होता है लेकिन मेरा पोस्टल एड्रेस आज भी कोलकाता ही है । इसलिए कि हमारा जो कारोबार ट्रांसपोर्ट का है उसका बेस ऑफिस कोलकाता है । आसानी से ऐड्रेस चेंज किया नहीं जा सकता है तो मेरी पढ़ाई-लिखाई भी वहीं हुई वहीं हमने कॉमर्स से ग्रेजुएशन किया, हालांकि हम आर्टस लाइन के आदमी थे , मेरे वालिद को शायद किसी ने बता दिया कि लड़का बहुत बड़ा बिजनेसमैन बन जाएगा । लेकिन हुआ ऐसा कुछ नहीं । बारहवें खिलाड़ी की तरह मैं नाउम्मीद ही रह गया । कहीं मेरा नंबर नहीं आया मुझे शौक था कि कहीं मैं प्रोफेसर हो जाऊं या कहीं वकील हो जाऊं, वकील बनने का शौक था, बड़ा वकील बन जाऊं टीचिंग लाइन का शौक था या वकालत का शौक था तो वो सब सपना पूरा नहीं हुआ फिर उन्हीं दिनों बंगाल में नक्सलिज्म का दौर था मैं उसमें उठने-बैठने लगा तो घर से निकाल दिया गया । डेढ़ साल मैं इधर-उधर ट्रक पर घूमता रहा । घर में घुसने की इजाजत नहीं थी क्योंकि पुलिस का ये ऑर्डर हो गया था कि देखते ही गोली मार दी जाए बहरहाल मजे की बात ये है कि पुलिस रिकॉर्ड में आज तक हमारा नाम तो है ही अच्छे काम के रिकॉर्ड नहीं रखे जाते हैं लेकिन हमारी हुकूमतें बुरे काम के रिकॉर्ड रखती है । कोलकाता एक इंकलाबी शहर है ।कोलकाता एक सोचता हुआ शहर है किसी अंग्रेज ने लिखा था कि आज जो कोलकाता सोच रहा है कल सारा हिंदुस्तान सोचेगा वहां कि जब सोच हमारी रायबरेली की सोच में मिली क्योंकि ये भी राम-बेनीमाधव का शहर था, बड़ा बगावती शहर था और यह मिट्टी जब वो इंकलाब की मिट्टी से मिली तो शायद मेरे अंदर बहुत ज्यादा इख्तियाज (Revolution) की ताकत हो गयी कि किसी काम को करने के लिए आदमी कई रात सोचता है हम शायद कई मिनट भी नहीं सोच पाते होंगे, कर देते हैं । नुकसान भी होता है लेकिन ठीक है नुकसान फायदे तो बनिये देखते हैं, साहित्यकार नहीं देखता है ।


प्रश्नः- पूरी तरह से लिखना आपने फिर कब शुरू किया ?


उत्तरः- जब मैं कोलकाता आ गया तो फिर मैं शायरी-वायरी करने लगा फिर मैं कहानियां लिखता रहा और ड्रामों में भी काम किया । ड्रामे लिखे भी । मेरा पहला ड्रामा था जो कोलकाता नेशनल होमियोपैथिक कॉलेज में था और जिसमें मैं सेकेंड आया था ।


प्रश्नः- उसकी थीम क्या थी?


उत्तरः- बाग्लादेश नया-नया बना था । 'जय बंग्लादेश' उसका नाम ही था । तो थीम वही थी । शेख मुजीबुर्रहमान और बांग्लादेश । बहरहाल ये है कि ड्रामों में काम करने का शौक हुआ और मैं ड्रामों में काम करता रहा । उस जमाने में बाबू रामनिसार एक फिल्म डायरेक्टर हुआ करते थे जिन्होंने फिल्म चेतना, जरूरत, दो राहें बनाई थी वे बड़े आशिक हुए, मुझे कोलकाता व मुंबई ले जाने के लिए लेकिन मेरे वालिद ने इजाजत नहीं दिया और हम नहीं गये । घर की हालत भी इतनी अच्छी नहीं थी मेरे वालिद ने बाबू राम-निसार से कह दिया कि भाई देखिए यही लड़का है, हमारी तबियत ठीक नहीं रहती है और यही सबसे बड़ा है अगर हम नहीं रहेंगे तो कम से कम ये घर संभाल लेगा ।मुझे और लोगों ने भी समझाया तो मैं नहीं गया, छोड़ दिया मैंने । अच्छा ये आदत बहुत ज्यादा है कि कुछ समझ नहीं आया तो छोड़ दो मेरे वालिद बहुत बीमार हुए तो एक दिन मैं गया उन्हें देखने के लिए तो देखा कि उनके आंसू बह रहे थे मैंने पूछा कि अब्बू हुआ क्या ? उन्होंने कहा कुछ नहीं । तो मैंने कहा बताइए अब्बू । तो कहने लगे कि बेटा हम ये सोचते हैं कि अगर अस्पताल से मेरी वापसी नहीं हुई तो तुम अपनी अम्मा को और भाई - बहनों को पाल लोगे क्योंकि सबसे बड़े तुम हो । तब मैंने कहा और दिलासा दिया उनको कि कैसी बात कर रहे हैं अब्बू, आपको रहना है इंशा-अल्लाह । फिर मैंने उसी दिन से ड्रामा और एक्टिंग, फेक्टिंग ये सब और एजुकेशन भी छोड़ दिया । ग्रेजुएट भी पूरा नहीं कर पाए हमारे यहां तीन साल का कोर्स था, कॉमर्स का । हमारे यहां हायर सेकेंड्री से जाते थे हमलोग, सेकेंड ईयर करने के बाद फिर भाग आए फिर नहीं गए । फिर ट्रांसपोर्ट में बैठ गए आके । एक मुहब्बत थी वो नाकाम हो गयी जैसे होती है जो छोटी सी मुहब्बत की दुकान थी, वो भी जो इन कॉल्ड फिरकापरस्तों ने लूट ली मैं सीधी-सादी शायरी-वायरी करने लगा तो मेरे उस्ताद थे वालिया जी । एकाध मुशायरा में उन्होंने मुझे बुला लिया स्टेज का मुझे बेपनाह तजुर्बा था दूसरे शायर को सीखना पड़ता है या कुछ करना पड़ता है या कॉन्फिडेंस तलाश करना पड़ता है, हमलोगों में इतना सब सिखा दिया जाता है कि कैसे पीठ की जाती है कैसे बोला जाता है । कुछ नसीब भी ऐसा था कि मशहूर होते चले गए । फिर हमारी जिंदगी में सोमवंशी हिंदुस्तान अखबार वाले का काफी योगदान है । उन दिनों हम इलाहाबाद बराबर आते थे वहीं मेरी मुलाकात प्रताप सोमवंशी से हुई उस जमाने तक ऊर्दू में तो हम मशहूर थे अच्छे खासे लोग पहचानते थे और ज्यादातर लोग कलकते में पहचानते थे क्योंकि हमारा काम इतना बड़ा था । माशाअल्लाह कि हमें कोई जरूरत नहीं थी ये सब उस जमाने में हालांकि इतने पैसे भी नहीं मिलते थे और फुरसत भी नहीं मिलती थी मैंने कहीं लिखा भी है कि ट्रांसपोर्ट का काम, बैंक की नौकरी और बुढ़ापे की शादी इसमें आदमी को सोते में जागना पड़ता है मुश्किल जिन्दगी थी उससे निकल नहीं सकते थे । बड़े-बड़े मुशायरे आये हैं। एक दिन मैं अपना पासपोर्ट चेक कर रहा था तो पहली बार अमेरिका का मुशायरा 21 वर्ष पहले आया था और मैं गया हूं । 16 वर्ष के बाद क्योंकि हम सोचते थे मैं जब छोटा था और हमने जिस आदमी ने अपने बाप को 150 रू में ट्रक चलाते देखा हो वो एक छोटे से कारोबार को बचाने की कोशिश में लगा हो, अगर वो अमेरिका जाता है तो फिर मुमकिन है कि बच्चे यहां खराब हो जाए और आईना हुस्न देखने के लिए होता है आईना बीमारी देखने के लिए नहीं होता है । मैंने कहा नहीं-नहीं अम्मा पहले हमें इसको ठीक कर लेने दो । अच्छा इत्तफाक हुआ यह कि लाइन से लड़किया पैदा हो गई अब और एक जिम्मेदारी कि खुदा न खास्ता कुछ हो गया तो कौन इनको पालेगा । ये वजह है कि पिक्चर में हमने नस्ल लिखी तो लोग यही कहते हैं कि ठीक ही कहते हैं मुनन्वर राणा का जो कद है उनके पद से अच्छा है ।


प्रश्नः- उर्दू भाषा से हिंदी की ओर लिखना किस प्रकार प्रारंभ हुआ ?


उत्तरः- हां तो प्रताप सोमवंशी ने हमारे ऊपर कई लेख लिखे । अपने अखबार में मेरा इंटरव्यू छापा । इस तरह से हिंदी वालों को तब जाकर मालूम हुआ कि कोई मुन्नवर राणा नामक शायर है लोग बहुत दावा करते हैं कि पाकिस्तान में ये शायरी है, वो शायरी है, वो हमारे मुल्क का शायर है जो पाकिस्तानी शायरी से आंख मिलाकर खड़ा हुआ है वगैरह-वगैरह । हम ऊर्दू के पहले आदमी हैं, हमने अपनी पहली किताब हिंदी में छापी गजलगांव । दूसरी किताब हिंदी में छापी पीपलछांव । तीन किताबें हमने लगातार हिंदी में छापी । उन दिनों हम कहते थे कि साहब हम तो इसमें मारे गये कि ऊर्दू वाले कहते है कि ये हिंदी में लिखते है इनका ऊर्दू से कोई लेना-देना नहीं है तो हम हरिनाम से और शोहरत से महरूम और हिंदी वाले कहते थे कि ये ऊर्दू के आदमी हैं इनका हमारे यहां कहां गुजर होगा हमने कहा हम दोनों तरफ से चटाई बाहर हो गए लेकिन ये इमानदारी से कहता हूं कि बाद में हिंदी वालों ने अपना हाथ बड़ा कर दिया उन्होंने जिस तरह से मुझे अपने कंधों पर बिठाए रखा उसका शुक्रगुजार हूं और हिंदी वालों का ये एहसान कभी नहीं भूलूंगा ।


प्रश्नः- अपने लेखन में आपने दोनों भाषाओं को महसूस किया है । इस बारे में क्या कहना चाहेंगे ?


उत्तरः- देखिए बेसिक भाषा तो मेरी हिंदी ही थी । यहां रायबरेली में जो हमने पढ़ा, शोएब विद्यालय में जो पढ़ा, या गवर्नमेंट कॉलेज में कुछ दिन पढ़ा, संत जॉन केजी हाईस्कूल में पढ़ा, वह सब तो हिंदी ही थी, ऊर्दू तो थी नहीं और मेरा कहना है कि साहित्य को भाषा नहीं बांधती । भाषा तो बहनों की तरह है । भाषाएं अलग नहीं है । इसे राजनीति अलग करती है । नफरतें अलग करती है भाषाएं तो बिल्कुल जुड़ी हुई है आपस में वजह क्या है कि जिस तरह से भगवान ने सबका खून एक नहीं रखा है ए,बी,सी,डी अलग-अलग ग्रुप के हैं उसी तरह से जबानें भी सबकी हैं लेकिन इसमें खून सबका मिलाया जा सकता है उसका पूरा फार्मूला मौजूद है । जबान का फार्मूला भी बहुत सुंदर है लेकिन जबान को हम नहीं मिलने देते हम एक बात ये कहते हैं कि दुनिया की सबसे अच्छी जबान है जो, वो है हिंदुस्तानी । लोग कहते हैं कि मैंने शेक्सपीयर को पढ़ा, मैंने शैल को पढ़ा, वड्सवर्थ को पढ़ा, लोग दुनिया भर के नाम गिना देते हैं । हम कहते हैं कि आपने पूरा हिंदुस्तान को पढ़ा क्या ? आपने कन्नड़ नहीं पढ़ा, आपने तमिल नहीं पढ़ा, आपने केरल की जबान नहीं पढ़ी, आपने उड़िया नहीं पढ़ी आपने बांग्ला नहीं पढ़ी आपने कुछ पढ़ा नहीं आपने इतने बड़े हिंदी के कुनबे को पढ़ा और आप कह रहे हैं कि यही सब कुछ हैआपने एक कुनबा ऊर्दू में झाकां और कहा कि मैं बहुत बड़ा शायर हो गया । 


प्रश्नः- इस समस्या का निदान क्या हो सकता है ?


उत्तरः- महीने में एक कहानी किसी दूसरे जबान की इसमें आपको डाल देनी चाहिए बढ़िया-सी बांग्ला से, कन्नड़ से, फारसी से, यहां से, वहां से, कहीं से भी । तो आपको मालूम होगा कि भाषाओं का आपसी तालमेल कितना बेहतर होगा । एक बार कोई हिंदी की किताब रखी थी किसी कन्नड़ साहित्य के किसी लेखक की मैंने देखा वो साहित्य एकेडमी अवार्ड प्राप्त पुस्तक थी । मैंने किताब पढ़ी और जैसे-जैसे कहानियां पढ़ीं तो ये मालूम हुआ कि हम तो बिल्कुल इतने-इतने पानी में खड़े हैं और उसको समंदर बोल रहे हैं इतने कम पानी में एक कहानी आती है, उसी के नाम बदलकर, कहानी बदलकर, जगह बदलकर, हीरो बदलकर, विलेन बदलकर, ड्रेस बदलकर, एक्ट बदलकर, रिएक्ट बदलकर, 20 कहानियां आ जाती हैं इसलिए मैं कहता हूं कि अन्य भाषाओं का साहित्य अनूदित होना चाहिए।


हमारे यहां साहित्य के क्षेत्र में कार्य करने वालों को बहुत अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है बहुत से लोग हैं जो अंग्रेजी में लिखते हैं और बुकर सम्मान प्राप्त हो जाता है । लेकिन हिंदी साहित्य में नोबेल और बुकर सम्मान की पहुंच नहीं है । मेरा कहना यही है कि दुनिया को सबसे अच्छा साहित्य होने के बाद भी हमें सम्मान नहीं मिलता दुनिया के किसी भी मुल्क में 40 गांव पार करने के बाद मिट्टी नहीं बदलती है । 40 गांव पार करने के बाद धर्म या मजहब नहीं बदलता है, बोली नहीं बदलती है । इस सूरत में हिंदी जबान को बड़ा बनाने में हमारी भूमिका बड़ी होनी चाहिए । लेकिन हम ऐसा करते नहीं हैं। अगर हम दूसरे प्रांतों से साहित्य को लाएं उसे पकाएं और इत्र के रूप में बनाने के बाद उसको प्रस्तुत करें तो उसका मजा ही कुछ और होगा । लेकिन हम ऐसा करते नहीं हैं । क्योंकि अगर हम हिंदी में लिखते हैं तो हमें यह गुरूर है कि हम सदी के सबसे बड़े विद्वान है । अगर हम उर्दू में लिखते हैं तो हमें महसूस होता है कि गालिब के बाद हम ही सबसे बड़े उर्दू जबान है।


प्रश्नः- हिंदी भाषा के विकास के लिए दूसरी भाषाओं के साथ मिलकर काम करने में किस प्रकार का कार्य किया जा सकता है ?


उत्तरः- यह मान लेना चाहिए कि हिंदी के अलावा भी अन्य भाषाएं हमारी भाषा है जैसे खाने के मेज पर कई चीजें सजी होने के बाद उसका निखार बढ़ जाता है उसी प्रकार हिंदी के साथ अन्य भाषाओं के सजे होने से हिंदी भाषा का भी सम्मान बढ़ता है आजकल पढ़ने का चलन बहुत कम हो गया है । इसलिए हमें चाहिए कि अब बुके की जगह बुक देने का प्रचलन शुरू करना चाहिए और हमने लखनऊ में यह शुरू भी किया है।


प्रश्नः- प्रकाशक तो कहते हैं कि अब पुस्तक को पढ़ने वालों की बहुत कमी हो गयी है .


उत्तरः- यह सही है कि कमी है लेकिन अभी भी हम उस जमाने में जिंदा कि किसी के कान में कह दिया जाए कि हमें एक कार लेनी है फिर आप पायेंगे कि एक से एक नई-नई कारें प्रस्तुत करने के लिए कार वालों की भीड़ जमा हो जाएगी और वो उस कार के साथ तमाम तरह के ऑफर भी हमें प्रस्तुत करेंगे । यही हाल साहित्य में भी है कि मान लीजिए पब्लिकेशन से किताब छपी और बैठे हुए हैं तो किताब कहां से बिकेगी । लेकिन जो पब्लिक चाहती है किताब वैसी ही छपी तो किताब बहुत बिकती है किताबों के क्षेत्र में भी वही होना चाहिए कि प्रकाशक पढ़ने वालों तक पहुंचे दोनों ही तरह से किताबों की बिक्री बढ़ायी जा सकती है दूसरी ओर कई बार पाठक सोचते हैं कि किताब वाला उसके घर पर किताब देने आयें लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि ज्ञान प्राप्त करना हमारी आवश्यकता है । मैं आपको लाहौर का एक उदाहरण देता हूं मेरे मिलनेवाले एक शायर है जो बहुत ही रंगीनियत के साथ शायरी लिखते हैं तो मैंने उनसे पूछा कि आप की किताब तो खूब बिकती होगी उन्होंने हमें अपने पुस्तकालय में ले जाकर दिखाया कि किस प्रकार वहां किताबें बेची जाती हैं । उन्होंने हमें दिखाया कि उनके पास ऐसा डाटाबेस है, बहुत सारे लोगों का डिटेल है जैसे मिस्टर एक्स क्या पढ़ते हैं । दूसरे शायरी पढ़ते हैं या कविता पढ़ते हैं या कहानी पढ़ते हैं ये लोग कहां रहते हैं आदिआदि । जैसे ही उनकी शायरी की किताब छपी उन्होंने डाटा बैंक से उनलोगों के नाम पता निकाले और एक-एक पुस्तक उनके पते पर भिजवा दी थोड़े दिनों के बाद उनको पुस्तकों का मूल्य प्राप्त हो गया । इस प्रकार शायद एक पुस्तक अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच सकती है।


प्रश्नः- आपकी मनपसंद विधा कौन सी है


उत्तरः- मैं भाषा की बात करूं तो आसानी से मैं उर्दू में लिख पाता हूं लेकिन विधा की बात करूं तो मैंने शायरी समझने की कोशिश की पर कई बार उसको गजल में बांधना मुश्किल होता है तो मैं जैसा समझ आता हूं वैसा लिख देता हूं बाकी विधा तय करना पाठकों का काम है।


प्रश्नः- राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय हिंदी के विकास में और किस प्रकार महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है?


 


उत्तरः- देखिए राजभाषा विभाग का कार्य सरकारी कार्यालयों में हिंदी को बढ़ाना है लेकिन अभी भी कार्य हिंदी में कितना हो रहा है यह हम सभी जानते हैं आपके विभाग को हिंदी के साथ-साथ दूसरी भाषाओं पर भी कार्य करना चाहिए क्योंकि हिंदी के साथ दूसरी भाषाएं यदि बढ़ेगी तो हिंदी में कार्य करने की रूचि भी जागेगी । इस प्रकार हिंदी भाषा का जन-जन तक विकास हो सकता है ।


 


 


राजभाषा भारती  से साभार


इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सबसे बड़ा वेद कौन-सा है ?