विवेकानंद का अपमान ः वामपंथियों का जेएनयू छाप नया पाप


जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और वहां के छात्रों और अध्यापकों का कहना यह है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एक से एक महान हस्तियां पैदा हो रही है, जैसे अभी हाल में ही नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी बनर्जी है । परंतु जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अपनी इन महान विभूतियों के कारण इतनी चर्चा में नहीं रहता जितनी उसकी चर्चा बिना मुद्दे के छात्र आंदोलनों, देश विरोधी नारों , राम विरोध, रावण समर्थन, महिषासुर समर्थन के कार्यक्रमों और ऐसे ही नकारात्मक कारणों से होता रहता है ।आपको याद होगा कि प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण के बाद सेक्युलर समाज और वामपंथी तबका फ्रस्टेशन का शिकार था और हताशा में उन्होंने पहला प्रयास जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में फरवरी 2016 में किया । कश्मीरी उग्रवादियों या अलगाववादियों के साथ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के वामपंथी विचारधारा के छात्रों ने छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार उमर खालिद और अनिर्बान सहित और कुछ ऐसे ही लोगों ने जबरदस्त प्रदर्शन किया , देश विरोधी नारे खुलकर लगाए थे। नारे थे - अफजल हम शर्मिन्दा हैं तुम्हारे कातिल जिन्दा हैं, हमें चाहिए आजादी, छीन के लेंगे आजादी , भारत तेरे टुकडे़ होंगे हजार, इंसाअल्लाह इंसाअल्लाह आदि आदि ।इस गद्दारी भरे कार्यक्रम को देश की जानकारी में जी न्यूज चैनल ले आया जिसके एन्कर रोहित सरदाना और सुधीर चौधरी ने इसे एक बडा़ मुद्दा बना दिया था खासकर राहुल गांधी द्वारा गद्दारों , अलगाववादियों के पक्ष में खडे़ होने पर । एक और सेक्युलर चैनल है एनडीटीवी जिसके क्रांतिकारी लेफ्टिस्ट ऐन्कर रवीश कुमार ने बाकायदा गद्दारी कर रहे छात्रों के पक्ष में सीरीज चलाई और जीन्यूजके वीडियों को डाॅक्टर्ड यानी जोड़तोड़ वाला वीडियो बता दिया था । मामले में पूरे 3 साल बाद चार्जशीट दायर हुई पर मुकदमा नहीं चल पा रहा है क्योंकि अभी केजरी सरकार ने मुकदमा चलाने की अनुमति दबा रखी है ताकि मोदी को गाली देने वाला एक औजार सुरक्षित रहे।
बहरहाल जेएनयू के नकारात्मकरूप से अभिव्यक्तिशील वामपंथी छात्रों ने आज फिर एक ऐसी अभिव्यक्ति की है जो देश के मानस पर भारी आघात माना जा रहा है। जेएनयू जो अन्तर्राष्ट्रीय महत्व का संस्थान है , वहां राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक विवेकानन्द की प्रतिमा लगायी गयी और लोकार्पण की प्रतीक्षा में कपडे़ में ढांक कर रखी गयी, शायद विश्वविद्यालय प्रशासन किसी महानुभाव से उद्घाटन करवाना चाहता था। इसी बीच जेएनयू हाॅस्टल की 10 रुपये की मासिक फीस में बढो़त्तरी को लेकर मार्क्सवादी छात्रों ने बवाल शूरू कर दिया ।10 रुपये की फीस यही कोई 40 साल पहले निर्धारित की गयी थी और चार दशकों बाद फीस का पुनरीक्षण आवश्यक था और उसके बाद एक समुचित फीस निर्धारित हुई। उसी के विरोध में वामपंथी आन्दोलन शुरू हो गया । मोदी के खिलाफ कुछ भी बेसिर-पैर का ही सही बवाल करने को उद्यत जेएनयू के मार्क्सवादियों ने इस आशा में बवाल शुरू किया कि देश व्यापी समर्थन मिलेगा कहावत है" भले मारे मैं रुआसा ही था" , इस प्रकरण में सटीक बैठता है।
चूंकि जेएनयू में पूरे देश से छात्र पढ़ने आते हैं और उनका पूरा उद्देश्य उच्च स्तर की पढाई ही होती है , लेकिन उनको मार्क्सवाद, नक्सलवाद का प्रचारक और सिपाही बनाने का काम भी उनके पहले साल से शूरू हो जाता है । हास्टल में किसी न किसी बहाने से 10 रू मासिक किराये पर रह रहे लेफ्टिस्ट रिक्र्यूटर्स अपनी मेंटार पार्टी माकपा, नक्सलियों, माओवादियों आदि के लिए कैडर बनाने का काम शुरू कर लेते है। फर्जी मुद्दों पर आन्दोलन खडा़कर हमेशा की तरह सरकारों को अस्थिर करने वाले जेएनयू के इन लेफ्टिस्ट बवालियों को मेन मीडिया ने तवज्जो नहीं दी , उलटे आन्दोलनकारियों के मुद्दे के खोखलेपन को उजागर कर दिया । जनसमर्थन मिलता न देखकर वामपंथी और हताश हो गये और नये मुद्दे की तलाश में लेफ्टिस्ट ने विवेकानन्द का अपमानकर सेल्फ गोल कर लिया है। उन्होंने जब गद्दारी वाले नारे लगाये थे तब यह काम बडे़ धूमधाम से मीडिया के समक्ष किया था पर देश के दिल विवेकानन्द का अपमान की योजना बनायी तो उसे अंजाम देने में बडा़ पर्दा रखा । चुपचाप रात के अंधेरे में लोकार्पण के इंतजार मेंखडी़ प्रतिमा का कपडा़ फाडा़, तोड़-फोड़ की और चरों तरफ पैडस्टल पर लिखा -- भगवा, फासिस्ट और अन्य अपमानजनक शब्द।
विवेकानन्द एक ऐसी शख्सीयत हैं जिन्होंने भारतीय दर्शन के पुन: उद्धार का काम किया था। स्वामी विवेकानन्द वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। विवेकानन्द के शिकागो भाषण से पूरा भारत जाग पडा़ था और स्वतंत्रता आन्लोलन में एक नया प्राण संचरित हुआ। उनके महत्व का आकलन इसी बात से हो जाता हैकि हिन्दमहासागर में कन्याकुमारी में उनकी विशालकाय प्रतिमा है और जिस समुद्री चट्टान पर बैठकर उन्होंने ध्यान किया उस पर मेमोरियल बनाया गया है। संसद में उनका तैल चित्र स्थापित है । आजतक किसी भी विचारधारा के किसी भी राजनेता को उनके विचारों, अभिव्यंजनाओं, शब्दों पर कोई आपत्ति नहीं हुई । वे सर्वस्वीकार्यता प्राप्त संत हैं , हिन्दुत्व के वक्ता हैं और भारत के फिर से उठ खडे। होने के दिग्दर्शक भी हैं।
वामपंथी इस देश के सरकारों में भागीदार रहे हैं, कम्युनिस्ट इन्द्रजीत गुप्ता गृहमंत्री रहे, सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष रहे, कभी किसी को विवेकानन्द से कोई दिक्कत नहीं रही। वामपंथियों की सबसे बडी दिक्कत मार्क्सवाद है जो धर्म की परिकल्पना से परे एक अतिवादी धर्म ही है। मार्क्सवादियों को आज तक मार्क्सिज्म का नशा इतना बुरी तरह चढा़ है कि वे मानव अस्तित्व में धर्म के सकारात्मक प्राणवन्त स्थान और मार्क्सवाद की दारिद्र्यवादी परिणति को समझ हीनहीं पाते। महाशक्ति रूस दरिद्र होकर दुर्बल हो गया और माओवादी चीन कम्युनिस्ट तानाशाही के साथ पूंजीवादी रास्ते पर चल पडा। है पर मार्क्सवाद कायह रूपांतरण भारत के इन जेएनयू ब्रान्ड कम्युनिस्टों को दिखता नहीं। वे उसी युग में रहना चहते हैं जिस युग में भारत में मार्क्सवादी सिद्धांत प्रविष्ट हुआ था । भारत के मार्क्सवादी सिद्धांत को व्यवहार और ग्राउंड रियालिटी में फिट करने में हमेशा अनफिट रहे हैं।
विवेकानन्द से दिक्कत का मतलब सनातन सर्व समावेशी, सह अस्तित्वपूर्ण वसुधैव कुटुम्बकम् की हिन्दू विचारधारा से विरोध है । जेएनयू के लेफ्टिस्ट लगता है मोदी विरोध की राजनीतिक असफलता में इतना हताश हो गये हैं कि वे सेल्फ गोल दागने लगे।


दिनेश कुमार गर्ग की फेस बुक से साभार


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