ग्रामीण भारत की बदलती नारी हार्पर कॉलिंस द्वारा प्रकाशित "सरपंच साहिब ‍ चेंजिंग द फेस आफ इंडिया" की समीक्षा।

 


“दीपांजलि बात करती है कि धीरे धीरे पंचायत और पंचायत समिति के पुरुष
सदस्य उससे कटते जा रहे हैं, विषेशकर धनुर्जय पटेल जो कि सरकारी नौकरी
में हैं, जिसकी वजह से उनके पास बहुत ताकत है। जब किसी बात पर उनके विचार
नहीं मिलते तो धनुर्जय पटेल उसका कड़ा विरोध करते हैं। पटेल के अपने विचार
हैं, वह कहते हैं – पुरुष सरपंच बेहतर होते हैं क्योंकि उन्हें मालूम
होता कि किस तरह से काम किया जाये। महिला सरपंचों को कुछ अधिक नहीं आता।
हमें उन्हें सिखाना पड़ता है। कभी कभी वह चालाकी दिखाती हैं और कैसे काम
किया जाये इस बात के निर्देश ही भूल जाती हैं।

    …वह लोग अफवाह फ़ैला रहे हें कि दीपांजलि का नये बीडीओ के साथ चक्कर
है, क्योंकि वह उसकी बात सुनता है, औरों की नहीं। उसके पति को मालूम है
कि लोग बातें कर रहे हैं। वह कहते हैं कि उसका चक्कर है…! इस नये शोषण का
अर्थ दीपांजलि अच्छी तरह समझती है। उसके घावों में घुसा कर चाकू घुमाने
वाली बात है। वह सरपंच है पर साथ ही पत्नी, माँ, स्त्री भी तो है – शरीर,
सेक्स और लिंग।”

गरीब, जन जातिय, दलित परिवारों से आयी बहुत सी महिलाएँ अनगिनत कठिनाईयों
के बीच भी सदियों से परम्पराओं की रूढ़ियों में जकड़े ग्रामीण भारत को धीरे
धीरे बदल रहीं हैं।
भा

रतीय समाज में नारी के स्थान की बात हो तो अक्सर गार्गी, दुर्गा, शक्ति
से ले कर विज्ञान, तकनीकी, शौध, गणिकी जैसे क्षेत्रों में काम करने वाली
युवतियों से हो कर, इंदिरा गाँधी, मायावती जैसी नेताओं के उदाहरण दे कर
हम अपना गर्व व्यक्त करते हैं कि भारत ने इस दिशा में कितनी तरक्की की
है, कैसे हर क्षेत्र में नारियाँ पुरुषों से कदम से कदम मिला कर बढ़ रही
हैं। इस बदलते भारत में जहाँ एक ओर नारी विकास और प्रगति की बात होती है,
वहीं दूसरी ओर दहेज के लिए पीड़ित होने वाली या जला दी जाने वाली औरतों की
बात भी होती है। अल्ट्रासाउंड जैसी आधुनिक तकनीकों की मदद से होने वाली
भ्रूण हत्याओं की बात भी होती है। लेकिन यह सब बातें अधिकांश छोटे बड़े
शहरों में रहने वाली औरतों की होती है। भारत के गाँव कितना बदल रहे हैं
और गांवों में रहने वाली औरतों की स्थिति क्या है, इस पर बात या तो कम
होती है या फिर बिल्कुल नहीं होती।




गाँवों में रहने वाली इन्हीं औरतों की बात करती है 2009 में हार्पर
कॉलिंस द्वारा प्रकाशित व मंजिमा भट्टाचार्य द्वारा संपादित पुस्तक
“सरपंच साहिब ‍ चेंजिंग द फेस आफ इंडिया”। पिछले दो दशकों में कुछ औरतों
ने घर के दायरे से बाहर निकल कर पंचायती राजनीति में कदम रखा है और
चुनावों में सफलता भी पायी है, और सरपंच बन कर ग्रामीण भारत को बदलने की
कोशिश कर रही हैं। उन्हीं औरतों की कुछ जीवन कथाएँ हैं इस किताब में।

sarpanch_sahib1993 में भारतीय संसद ने राष्ट्रीय संविधान में 73वाँ
सँशोधन किया जिसमें पंचायती राज के लिए चुनावों की बात थी और इन चुनावों
में एक तिहाई सीटें स्त्रियों के लिए आरक्षित की गयी थीं। इस बदलाव को
“मौन क्रांति”, “हमारे समय का सबसे बड़ा सामाजिक प्रयोग” और “जनता के स्तर
पर होने वाले जनतंत्र का दुनिया का सबसे बेहतरीन नवप्रयोग” आदि कहा गया
है। इस कानून की वजह से 30 लाख महिलाएँ राजनीति में आयी हैं जिसमें से
करीब दस लाख से अधिक महिलाएँ चुनाव में जीत कर पंचायती राज का हिस्सा बनी
हैं। दूसरी ओर, इस प्रयोग को “दिखावा” भी कहा गया है और आरोप लगाया गया
है कि असली ताकत तो पतियों, पिताओं व ससुरों के हाथों में है जिनके हाथों
में यह चुनी हुई महिलाएँ केवल कठपुतलियाँ भर होती हैं।

सन 2006-07 की पंचायती राज की स्थिति की रिपोर्ट में पाया गया था कि
विभिन्न राज्यों में पंचायत सदस्यों में महिलाओं की संख्या आरक्षित सीटों
को पार कर चुकी है, पंचायतो़ में 37 से 54 प्रतिशत सदस्य महिलाएँ हैं।
2008 में लिखी एक अन्य जाँच में पाया गया कि इनमें से अधिकतर महिलाएँ
निर्णय लेने के लिए अपने पति या अन्य पुरुषों पर निर्भर नहीं हैं, अपने
निर्णय स्वयं लेती हैं। लेकिन इन रिपोर्टों के बारे में जनसामान्य में
कुछ न कुछ शंका ही रहती है, न जाने सरकारी जाँच कितना सच बताती हैं और
कितना झूठ।

मंजिमा की किताब में ऐसी ही कुछ महिला सरपंचों की कहानियाँ है जिन्हें
लिखा है जानी मानी लेखक, पत्रकार या अन्य क्षेत्रों से प्रमुख महिलाओं
ने, जिनमें शामिल हैं इंदिरा माया गणेश, तिशानी दोषी, मंजु कपूर, अभिलाषा
ओझा, सोनिया फलेरो और कल्पना शर्मा। यह जीवन कथाएँ उड़ीसा, तमिलनाडु,
मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, असम, बिहार, कर्नाटक आदि विभिन्न राज्यों में
संविधान के 73वें संशोधन के असर की जटिलता को समझने में सहायता करती हैं।
साथ ही यह कहानियाँ यह भी बताती हैं कि ग्रामीण सामाजिक बदलाव इतना आसान
नहीं है, लेकिन हो सकता है।

तमिलनाडू की चिन्नप्पा की जीवन कथा को तिशानी दोषी ने लिखा है। इस कहानी
से महिला सरपंचों की कुछ कठिनाईयों को समझ सकते हैं:

    “नम्बर चिन्नप्पा की कमजोरी हैं। अनपढ़ होने की वजह से उसके मन में
गणित विषय के लिए भय है। जब ललिता ने उससे पूछा कि पंचायत के बजट में
कितने पैसे हैं तो वह बता नहीं पायी, बोली, 'रजिस्टर में लिखा होगा'।
नरसिंहा, पंचायत का कलर्क बताने लगा कि छः लाख रुपये थे बजट में, कितना
खर्च हुआ और किस चीज़ पर, और किस बात पर कितना खर्च होगा।

    ललिता ने डाँटा कि 'तुम्हें यह सब बातें पता होनी चाहिये। और तुम
शीला, तुम्हारा अधिकार है कि तुम इन सब बातों के बारे में पूछो और जानो।
तुम जब चाहो इन रजिस्टरों को जाँच सकती हो, क्या तुम्हें समझ नहीं आता?'

    जब वापस चिन्नप्पा के घर की ओर जा रहे थे तो विदा लेने से पहले ललिता
हताश हो कर बोली, 'यह बहुत निराशा की बात है। इनको यह जानकारी ही नहीं
है। यह कैसे हो सकता है कि यह सरपंच हो कर भी पैसे के बारे में न जाने?
यही परेशानी है कि आखिरकार, बड़े फैसले यह अभी भी पुरुषों के हाथ छोड़ देती
हैं।'”

सरपंच होने की क्या ज़म्मेदारी होती है, कैसे काम करना चाहिये, क्या इसकी
जानकारी देना आवश्यक नहीं था, इन नये सरपंचों को? कल्पना शर्मा द्वारा
लिखी बिहार की वीणा देवी की जीवन कथा में इस प्रश्न का उत्तर मिलता हैः

    “क्या राज्य सरकार ने कोई ट्रेनिंग का आयोजन नहीं किया उन महिलाओं के
लिए जो ग्राम स्वराज्य की राजनीति में पहली बार चुनी गयी थीं? किया क्यों
नहीं, लेकिन दस मिनट की ट्रेनिंग में क्या समझते? उन्हें एक दिन के लिए
पटना बुलाया गया था, बस का किराया दिया गया और रजिस्टर में दस्तख्त कराये
गये कि वे लोग ट्रेनिंग के लिए आयी थीं। लेकिन हकीकत में उन्हें कुछ
सिखाया बताया नहीं गया।”

वीणा को मुखिया के काम बारे में जानकारी मिली एक संवयंसेवी संस्था की
सहायता से। उनका साथ दिया पुलिस सुप्रिंटेंडेंट और स्थानीय जिला
मजिस्ट्रेट श्रीमति विजय लक्ष्मी नेः

    “वह कहती थीं कि जब सब पुरुष बोल रहे हैं तो किसी महिला को भी बोलना
चाहिये। मैं मना कर देती थी, लेकिन वह ज़ोर देती थीं कि मैं कुछ बोलूँ।
उन्होंने मुझे सिखाया कि धन दौलत तो कभी तुम्हारे साथ होती है कभी नहीं
होती, लेकिन विचारधारा असली चीज़ है। मेरे पास पैसा नहीं है, एक भिखारन,
विधवा औरत हूँ लेकिन मैं दो बार चुनाव जीती हूँ, और जिसने एक लाख का
खर्चा किया वह नहीं जीत पाया। मैं बस घर घर हाथ जोड़े हुए गयी। तो कौन बड़ा
है, पैसा या विचारधारा?”

यह कहानियाँ बताती हैं कि गरीब, जन जातिय, दलित परिवारों से आयी बहुत सी
महिलाएँ अनगिनत कठिनाईयों के बीच भी सदियों से परम्पराओं की रूढ़ियों में
जकड़े ग्रामीण भारत को धीरे धीरे बदल रहीं हैं। कभी उनकी चेष्ठाएँ सफ़ल
होती हैं, कभी असफ़ल। केवल प्रशिक्षण और जानकारी से भ्रष्टाचार और पैशेवर
राजनीतिज्ञों के फन्दों को नहीं तोड़ा जा सकता। कई औरतों नें बदलते समाज
की हिंसा की कीमत अपनी जान से चुकाई है। लेकिन एक बार यह बदलाव शुरु हुआ
है जो किसी नदी की तरह अपना रास्ता निकाल ही लेगा, यही आशा की जा सकती
है:

    “सिकंदरा के लोगों के पास अपने मुखिया के लिए केवल प्रशंसा के शब्द
ही हैं। गाँव के चौक में खड़े हुए तो लोगों नें पक्की सड़क और नालियों की
ओर इशारा किया। अब उनके घर पानी से नहीं भरते। मुखिया ने तालाब बनवाया है
और नदी से पानी लाने के लिए छोटी सी नहर भी जिससे गाँव में पानी आता है।
पहले पानी के लिए दूर जाना पड़ता था। और बिना बिजली के गाँव में अब सूर्य
की प्रकाश शक्ति से जलने वाली चार बत्तियाँ लगायी हैं जिससे अँधेरे के
बाद सड़कों पर औरतों के लिए चलना आसान हो गया है। दलित बस्ती में भी
इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत नये घर बन रहे हैं। गाँव में किसी से कोई
शिकायत नहीं सुनने को मिली।”

मैं इस किताब को हर उस भारतीय से पढ़ने को कहुंगा जो यह समझते हैं कि वे
भारत को जानते हैं और नये प्रगतिशील भारत का निर्माण कर रहे हैं। उनके मन
में उन कंचमाओं और चिन्नप्पाओं के प्रति सम्मान जागेगा जो सुदूर भारत के
ग्रामीण क्षेत्रों में, कई बार ऐसे खतरे उठाकर भी जिनसे शायद हम डर
जायें, छोटे छोटे बदलाव ला रही हैं।
परिचय:

जन्म: 13 जून 1954 को लखनऊ, उत्तरप्रदेश में। हिंदी लेखन और शिक्षण से
जुड़ा परिवार। दिल्ली विश्वविद्यालय से चिकित्सा शास्त्र में स्नातक।
विभिन्न जगहों से उच्च शिक्षा जिनमें अमरीका में जॉन्स हॉप्किन्स तथा
इंग्लैंड में लीडस् विश्वविद्यालय भी हैं। हिंदी के अतिरिक्त अँग्रेजी
तथा इतालवी भाषा में चिट्ठाकारी और लेखन। संप्रति बोलोनिया (इटली) में एक
गैर सरकारी संस्था में वैज्ञानिक और चिकित्सा विशेषज्ञ और विश्व
स्वास्थ्य संस्थान, (जेनेवा, स्विटज़रलैंड) में विकलाँगता विषय पर
सलाहकार।
 जीवन बदलने वाली शिक्षा
शिक्षा को जीवन की व्यवाहरिक आवश्यकताओं को पाने के माध्यम, विषेशकर
नौकरी पाने के रास्ते के रूप मे देखा जाता है. यानि शिक्षा का उद्देश्य
है लिखना, पढ़ना सीखना, जानकारी पाना, काम सीखना और जीवन यापन के लिए
नौकरी पाना.

शिक्षा के कुछ अन्य उद्देश्य भी हैं जैसे अनुशासन सीखना, नैतिक मू्ल्य
समझना, चरित्रवान व परिपक्व व्यक्तित्व बनाना आदि, लेकिन इन सब
उद्देश्यों को आज शायद कम महत्वपूर्ण माना जाता है.



ब्राज़ील के शिक्षाविद् पाउलो फ्रेइरे (Paulo Freire) ने शिक्षा को पिछड़े
व शोषित जन द्वारा सामाजिक विषमताओं से लड़ने तथा स्वतंत्रता प्राप्त करने
के माध्यम की दृष्टि से देखा. इस आलेख में पाउले फ्रेइरे के विचारों के
बारे में और उनसे जुड़े अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभवों की बात करना चाहता
हूँ.

पाउलो फ्रेइरे के विचारों से मेरा पहला परिचय 1988 के आसपास हुआ जब मैं
पहली बार ब्राज़ील गया था. उस समय मेरा काम स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के
प्रशिक्षण से जुड़ा था, तब शिक्षण का मेरा सारा अनुभव लोगों को लैक्चर या
भाषण देने का था, जिस तरह से मैंने स्वयं स्कूल और मेडिकल कोलिज में अपने
शिक्षकों तथा प्रोफेसरों को पढ़ाते देखा था. ब्राज़ील में लोगों ने मुझे
फ्रेइरे की व्यस्कों के लिए बनायी शिक्षा पद्धिति की बात बतायी जिसका सार
था कि व्यस्कों की शिक्षा तभी सफल होती है जब वह उन लोगों के जीवन के
अनुभवों से जुड़ी हो, जिसमें वे स्वयं निणर्य लें कि वह पढ़ना सीखना चाहते
हैं, उनको भाषण देने से शिक्षा नहीं मिलती.

उन्हीं वर्षों में मुझे उत्तर पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी बिसाउ में कुछ
काम करने का मौका भी मिला, जहाँ पर पाउलो फ्रेइरे ने भी कुछ वर्षों तक
काम किया था. वहाँ भी उनके शिक्षा सम्बंधी विचारों को समझने का मौका
मिला. तब से मैंने अपनी कार्यशैली में, स्वास्थ्य कर्मचारियों के
प्रशिक्षण से ले कर सामाजिक शोध में फ्रेइरे के विचारों का उपयोग करना
सीखा है.

पाउलो फ्रेइरे की क्राँतीकारी शिक्षा

फ्रेइरे ब्राज़ील में 1950-60 के दशक में पिछड़े वर्ग के गरीब अनपढ़
व्यस्कों को पढ़ना लिखना सिखाने के ब्राज़ील के राष्ट्रीय कार्यक्रम में
काम करते थे. ब्राज़ील में तानाशाही सरकार आने से उनके काम को उस सरकार
ने अपने अपने विरुद्ध एक खतरे की तरह देखा और उन्हें देशनिकाला दिया.

इस वजह से फ्रेइरे ने 1960-70 के दशक में बहुत वर्ष ब्राज़ील के बाहर
स्विटज़रलैंड में जेनेवा शहर में बिताये. उन्होंने व्यस्क शिक्षा के अपने
अनुभवों पर कई पुस्तकें लिखीं, जिन्होंने दुनिया भर के शिक्षाविषेशज्ञों
को प्रभावित किया. फ्रेइरे का कहना था कि अपनी शिक्षा में व्यस्कों को
सक्रिय हिस्सा लेना चाहिये और शिक्षा उनके परिवेश में उनकी समस्याओं से
पूरी तरह जुड़ी होनी चाहिये.

Paulo Freiere & Brazilian experiences

उनका विचार था कि व्यस्क शिक्षा का उद्देश्य लिखना पढ़ना सीखने के साथ साथ
समाज का आलोचनात्मक संज्ञाकरण है जिसमें गरीब व शोषित व्यक्तियों को अपने
समाजों, परिवेशों, परिस्थितियों और उनके कारणों को समझने की शक्ति मिले
ताकि वे अपने पिछड़ेपन और गरीबी के कारण समझे और उन कारणों से लड़ने के लिए
सशक्त हों. इसके लिए उन्होंने कहा कि किसी भी समुदाय में पढ़ाने से पहले,
शिक्षक को पहले वहाँ अनुशोध करना चाहिये और समझना चाहिये कि वहाँ के लोग
किन शब्दों का प्रयोग करते हैं, उनकी क्या चिँताएँ हैं, वे क्या सोचते
हैं, आदि. फ़िर शिक्षक को कोशिश करनी चाहिये कि उसकी शिक्षा उन्हीं
शब्दों, चिताँओं आदि से जुड़ी हुई हो.

फ्रेइरे की शिक्षा पद्धति को सरल रूप में समझने के लिए हम एक उदाहरण देख
सकते हैं. वर्णमाला का "क, ख, ग" पढ़ाते समय "स" से "सेब" नहीं बल्कि
"सरकार" या "साहूकार" या "समाज" भी हो सकता है. इस तरह से "स" से बने
शब्द को समझाने के लिए शिक्षक इस विषय से जुड़ी विभिन्न बातों पर
वार्तालाप व बहस प्रारम्भ करता है जिसमें पढ़ने वालों को वर्णमाला सीखने
के साथ साथ, अपनी सामाजिक परिस्थिति को समझने में भी मदद मिलती है -
सरकार कैसे बनती है, कौन चुनाव में खड़ा होता है, क्यों हम वोट देते हैं,
सरकार किस तरह से काम करती है, क्यों गरीब लोगों के लिए सरकार काम नहीं
करती, इत्यादि. या फ़िर, क्यों साहूकार के पास जाना पड़ता है, किस तरह की
ज़रूरते हैं हमारे जीवन में, किस तरह के ऋण की सुविधा होनी चाहिये,
इत्यादि.

इस तरह वर्णमाला का हर वर्ण, पढ़ने वालों के लिए नये शब्द सीखने के साथ
साथ, लिखना पढ़ना सीखने के साथ साथ, उनको अपनी परिस्थिति समझने का अवसर बन
जाता है. फ्रेइरे मानते थे कि व्यस्क गरीबों का पढ़ना लिखना व्यक्तिगत
कार्य नहीं सामुदायिक कार्य है, जिससे वह जल्दी सीखते हैं और साथ साथ
उनकी आलोचनक संज्ञा का विकास होता है, ताकि वे अपने अधिकारों के लिए लड़
सकें.

फ्रेइरे के विचारों को दुनिया में बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है, केवल
व्यस्कों की शिक्षा पर नहीं बल्कि अन्य बहुत सी दिशाओं में भी. मैं इस
सिलसिले में ब्राज़ील से सम्बंधित तीन छोटे छोटे अनुभवों के बारे में
कहना चाहुँगा, जहाँ उनके कुछ विचारों को प्रतिदिन अभ्यास में लाया जाता
है.

आशाघर की साँस्कृतिक लड़ाई

गोयास वेल्यो शहर, ब्राज़ील के मध्य भाग में गोयास राज्य की पुरानी
राजधानी था. पुर्तगाली शासकों ने यहाँ रहने वाले मूल निवासियों को मार
दिया या भगा दिया, और उनकी जगह अफ्रीका से लोगों को खेतों में काम करने
के लिए दास बना कर लाया गया. इस तरह से गोयास वेल्यो में आज ब्राज़ील के
मूल निवासियों, अफ्रीकी दासों की संतानों तथा यूरोपीय परिवारों के
सम्मिश्रण से बने विभिन्न रंगों व जातियों के लोग मिलते हैं.

जैसे भारत में गोरे रंग के प्रति आदर व प्रेम की भावनाएँ तथा त्वचा के
काले रंग के प्रति हीन भावना मिलती हैं, ब्राज़ील में भी कुछ वैसा ही है
‍‌- वहाँ का समाज यूरोपीय मूल के सुनहरे बालों और गोरे चेहरों को अधिक
महत्व देता है तथा अफ्रीकी या ब्राज़ील की जनजातियों को हीन मानता है.

इस तरह की सोच का विरोध करने के लिए तथा बच्चों को अफ्रीकी व मूल
ब्राज़ीली जनजाति सभ्यता के प्रति गर्व सिखाने के लिए, मेक्स और उसके कुछ
साथियों ने मिल कर "विल्ला स्पेरान्सा" (Vila Esperanca) यानि आशाघर नाम
का संस्थान बनाया. आशाघर में स्थानीय प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों के
बच्चों को पौशाकें, संगीत, नृत्य, गीत, कहानियाँ, भोजन, आदि के माध्यम से
अफ्रीकी व मूल ब्राज़ीली संस्कृतियों के बारे में बताया जाता है और इस
साँस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने के प्रति प्रेरित किया जाता है.

आशाघर में काम करने वाले आरोल्दो ने मुझे बताया कि "मैं यहीं पर खेल कर
बड़ा हुआ हूँ और आशाघर की सोच अच्छी तरह समझता हूँ. मेरे मन में भी अपने
रंग और अफ्रीकी मूल के नाक नक्क्षे के प्रति हीन भावना थी. यह तो बहुत से
स्कूल सिखाते हैं कि सब मानव बराबर हैं, ऊँच नीच की सोच ठीक नहीं है,
लेकिन वे केवल बाते हैं, लोग कहते हैं लेकिन उससे हमारी सोच नहीं बदलती.
यहाँ आशाघर में हम कहते नहीं करते हैं, जब अन्य संस्कृतियों का व्यक्तिगत
अनुभव होगा, उनके नृत्य व संगीत सीख कर, उनके वस्त्र पहन कर, उनकी कथाएँ
सुन कर, वह भीतर से हमारी सोच बदल देता है."

प्रश्नों का विद्यालय

आशाघर के पास ही एक प्राथमिक विद्यालय भी है जहाँ पर बच्चों को पाउलो
फ्रेइरे के विचारों पर आधारित शिक्षा दी जाती है. इस शिक्षा का सबसे
महत्वपूर्ण हिस्सा है कि बच्चों को हर बात को प्रश्न पूछ कर अपने आप
समझने की शिक्षा दी जाये. इस विद्यालय की कक्षाओं में बच्चों को कुछ भी
रटने की आवश्यकता नहीं, बल्कि सभी विषय प्रश्न-उत्तर के माध्यम से बच्चे
स्वयं पढ़ें व समझें.

बच्चा कुछ भी सोचे और कहे, उसे बहुत गम्भीरता से लिया जाता है. बच्चे
केवल स्कूल की कक्षा में नहीं पढ़ते बल्कि उन्हें प्रकृति के माध्यम से भी
पढ़ने सीखने का मौका मिलता है. स्कूल की कक्षाओं में एक शिक्षक के साथ
बच्चे अधिक नहीं होते हैं, केवल आठ या दस, ताकि हर बच्चे को शिक्षक ध्यान
दे सके.

सुश्री रोज़आँजेला जो इस प्राथमिक विद्यालय की मुख्याध्यापिका हैं ने
मुझे कहा कि, "हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे दुनिया बदल दें, उनमें इतना
आत्मविश्वास हो कि किसी भी बात के बारे में पूछने समझने से वे नहीं
झिकझिकाएँ. जब माध्यमिक स्कूल के शिक्षक मुझे कहते हैं कि हमारे स्कूल से
निकले बच्चे बहस करते हैं और प्रश्न बहुत पूछते हैं और हर बात के बारे
में अपनी राय बताते हैं, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है."


कृषि विद्यालय का अनुभव

शिक्षा का तीसरा अनुभव ब्राज़ील के तोकान्चिन राज्य के "पोर्तो
नास्योनाल" (Porto Nacional) नाम के शहर से है. पाउलो फ्रेइरे के पुराने
साथी डा. एडूआर्दो मानज़ानो (Dr Eduardo Manzano) ने यहाँ 1980 के दशक
में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करना शुरु किया. फ़िर समय के साथ उनके
इस काम में एक कृषि विद्यालय भी जुड़ गया.

यह कृषि विद्यालय सामान्य विद्यालयों जैसा है और प्राथमिक से ले कर हाई
स्कूल तक की शिक्षा देता है. लेकिन इसकी एक खासयित यह भी है कि यहाँ के
बच्चे अन्य विषयों के साथ साथ यह भी पढ़ते हैं कि कृषि कैसे करते हैं,
मवेशियों का कैसे ख्याल किया जाना चाहिये, इत्यादि.

डा. मानज़ानो ने मुझे बताया कि, "हमारी शिक्षा पद्धिति ऐसी बन गयी है कि
हमारे विद्यार्थी कृषि व किसानों को अनपढ़, गवाँर समझते हैं. किसान
परिवारों से आने वाले बच्चे भी हमारे विद्यालयों में यही सीखते हैं कि
अच्छा काम आफिस में होता है जबकि कृषि का काम घटिया है, उसमें सम्मान
नहीं है. हम चाहते हैं कि किसान परिवारों से आने वाले बच्चे कृषि के
महत्व को समझें, अच्छे किसान बने, किसान संस्कृति और सोच का सम्मान करें.
हमारा स्कूल इस तरह से काम करता है कि बच्चों के मन में कृषि व कृषकों के
प्रति समझ व सम्मान हों, वे अपने परिवारों व अपनी पारिवारिक संस्कृति से
जुड़े रहें."


निष्कर्श

पाउले फ्रेइरे के विचारों का दुनिया भर में ग्रामीण विकास, शिक्षा, मानव
अधिकारों के लिए लड़ाईयाँ जैसे अनेक क्षेत्रों में बहुत गहरा असर पड़ा है.
उनके विचार केवल तर्कों पर नहीं बने थे, उनका आधार रोज़मर्रा के जीवन के
ठोस अनुभव थे.

भारत में भी शिक्षा के क्षेत्र में बहुत से सुन्दर व प्रशँसनीय अनुभव हैं
जिनके बारे में मैंने पढ़ा है. पर भारत में सामान्य सरकारी विद्यालयों में
और गाँवों के स्कूलों में शिक्षा की स्थिति अक्सर दयनीय ही रहती है. इस
स्थिति को कैसे बदला जाये यह भारत के भविष्य के लिए चुनौती है.


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