भोजपुरी पहली फिल्म ऐसे बनी थी

भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मईया तोहे पियरी चढइबो’अपार सम्भावनाएँ लेकर  क्षेत्रीय सिनेमा का अभ्युदय स्थापित
करने के संकल्प ,सांस्कृतिक पुनर्जागरण  में बिहार ने भोजपुरी, मैथिली और मगही फिल्म
निर्माण स्वतन्त्र रूप से भारतीय फिल्म उद्योग का सरोकारी बनाने के  विचार बनाती है, यह विचार ही फिल्म का रूप लेते हैं,बिहार की आञ्चलिक भाषा से फिल्म निर्माण की अवधारणा सबसे पहले अभिनेत्री
नरगिस की माँ जद्दनवाई की थी । मूलतः वाराणसी की रहने वाली जद्दनवाई ने
इस सर्न्दर्भ में वाराणसी के ही प्रख्यात हिन्दी फिल्मों के खलनायक
कन्हैयालाल से सर्म्पर्क किया । श्री लाल ने अपने मित्र गाजीपुर -उत्तर
प्रदेश) के हिन्दी फिल्मों के चरित्र अभिनेता व लेखक नाजीर हुसैन को इसके
लिए प्रेरित किया । जद्दनवाई की बात मन में रखकर नाजीर हुसैन ने भोजपुरी
में एक अच्छी पटकथा तैयार की । पटकथा इतनी सशक्त और दमदार बनी की अनेक
हिन्दी फिल्मकारों ने इसे हिन्दी में भी फिल्माने की पेशकश की थी । लाख
प्रलोभन देने के बावजूद नाजीर हुसैन से वह पटकथा प्रख्यात फिल्मकार विमल
राय भी हासिल नहीं कर सके । ये वही जद्दनवाई थीं, जो दरभंगा राज परिवार
के संगीत परम्परा के दौरान दरभंगा में कई वर्षो तक रही थीं । उस समय बेबी
फातिमा रसीद के नाम से जानी जानेवाली नरगिस मात्र दस वर्षकी थी ।
हुआ वही जो लोगों को उम्मीद थी नाजीर हुसैन की उस पटकथा पर निर्मल
पिर्क्चर्स बैनर के अर्न्तर्गत भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मइया तोहे
पियरी चढÞइबो’ फिल्म बनी । अच्छे परिणाम से भी आगे निकलने वाली यह मात्र
एक फिल्म भर नहीं थी बल्कि भोजपुरी क्षेत्र की एक जबरदस्त पहचान बनी ।
हालांकि नजिर हुसैन के सामने फिल्म निर्माण के लिए आर्थिक मदद प्राप्त
करना अहम समस्या थी । उस समय क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्म निर्माण को
वित्तीय सहायता मुहैया करना जोखिम भरा काम था । फाइनान्सरों की तलाश में
पटना, वाराणसी, कलकत्ता, लखनऊ, दिल्ली और बर्म्बई तक का अनगिनत दौरा किया
। परन्तु कोई भी उनकी प्रस्तावित फिल्म को फाइनान्स करने के लिए तैयार
नहीं हुआ । यहाँ तक कि भोजपुरीभाषी राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से
भी सर्म्पर्क कर मदद की गुहार की गई, लेकिन बात नहीं बन पाई ।अन्ततः नाजीर हुसैन ने अपने प्रिय मित्र पटना के ही बच्चालाल पटेल को
तैयार कर  लिया । इस प्रकार पटेल की मदद से भोजपुरी की पहली फिल्म को
बिहार में ही फइनान्सर मिल गया । पटेल ने हजारीबाग के विश्वनाथ प्रसाद
शाहबादी को भी प्रेरित कर फिल्म के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था कर ली ।
तभी फिल्म निर्माण की विधिवत् घोषणा समाचार पत्रों के माध्यम से हो सकी ।
इस प्रकार बिहार की आञ्चलिक भाषा भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा भइया तोहे
पियरी चढÞइबो’ का भव्य मुहर्ूत १६ फरवरी १९६१ को पटना स्थित शहीद स्मारक
पर सम्पन्न हो सका । वहीं से फिल्म की विधिवत् शूटींग भी शुरु हो गई पूरे
एक वर्षकी अवधि में बनी यह फिल्म १९६२ को फरवरी माह में र्सवप्रथम
वाराणसी के प्रकाश टाकीज में प्रदर्शित हर्ुइ । जो बिहार के सिनेमा दर्शक
के लिए एक सुखद आर्श्चर्य से कम नहीं था ।
फिल्म की आधारभूत संरचना कुछ इस प्रकार तैयार की गई थी- लेखक निर्माता-
नाजीर हुसैन, निर्देशक- कुन्दन कुमार, गीतकार- शैलेन्द्र, संगीतकार-
चित्र गुप्त आदि के अलावे मुख्य कलाकार के रूप में असीम कुमार -नायक),
कुमकुम -नायिका), पद्मा खन्ना, नाजीर हुसैन, बच्चालाल पटेल, भगवान सिन्हा
आदि रहे । अपने मधुर और कर्ण्र्ाा्रय गीत-संगीत और सशक्त पटकथा पर आधारित
कलाकारों के अभिनय के बदौलत पाँच लाख की लागत से बनी इस फिल्म ने नौ लाख
का व्यवसाय कर प्रादेशिक भाषा की फिल्म को जागृत किया । वहीं हिन्दी
फिल्म उद्योग को चुनौती भी दे डाली । फिल्म में भोजपुरी भाषी क्षेत्रों
की कठिनाइयों और सामाजिक परिवेश को बडÞी मार्मिकता से उजागर किया गया था

यह फिल्म जब पटना के वीणा टाकीज में २२ फरवरी १९६३ को प्रदर्शित हर्ुइ तो
सडÞको पर बैलगाडिÞयों की लम्बी कतारंे लग गई थीं । टिकट नहीं मिलने पर
लोग पटना में रात बिता कर दूसरे दिन फिल्म देख कर ही गाँव लौटते थे ।
सपरिवार फिल्म देखना तब किसी उत्सव सा होता था । इस फिल्म का संगीत और
गीत हर गली, मुहल्ले और गाँव के चौराहों पर गूँजने लगा । इस फिल्म ने
कलकत्ता में भी सिल्वर जुबली मनाई थी । इसी कारण इस फिल्म के कई नवोदित
कलाकार मुर्म्बई फिल्म उद्योग के स्थापित कलाकार हो गए । जिस में रामायण
तिवारी, भगवान सिन्हा, मदन सिन्हा, कोइलवर के गीतकार एसएस बिहारी,
छायाकार द्रोणाचार्य आदि प्रमुख थे । यह वही एसएच बिहारी थे, जिन्हे सुर
स्रमाज्ञी लता मंगेश्वर ने शादी का प्रस्ताव भी दिया था ।
लेकिन कटिहारवासी अधिवक्ता दुखमोचन ठाकुर की चर्चित उपन्यास ‘गाँव की
गोरी’ पर आधारित इस फिल्म पर विवाद उठ खडÞा हुआ । बात अदालत तक जा
पहुँची, कुछ दिनों के बाद पटना उच्च न्यायालय के वरीय अधिवक्ता पं.
तारकान्त झा -पर्ूव सभापति, बिहार विधान परिषद्) की मध्यस्थता पर श्री
ठाकुर का नाम भी कास्टींग में जोडÞा गया । लेकिन इस फिल्म की सफलता का
कुछ श्रेय दिलीप कुमार की फिल्म ‘गंगा-जमुना’ को भी जाता है । शुरु से
अन्त तक अवधि भाषा में बनी यह फिल्म जहाँ गीतकार शकील बदायूँनी और
संगीतकार नौशाद के प्रतिफल का नतीजा था, वहीं इसने भोजपुरी दर्शक को भी
बढÞावा दिया था । परिणामस्वरुप गंगा मइया तोहे पियरी चढइबो की आशातीत
सफलता ने बिहार में मैथिली, मगही फिल्म निर्माण के लिए भी उत्पे्ररक का
काम किया ।
इसकी प्रस्तुति, गीत, संगीत से प्रभावित होकर पटना आकावणी द्वारा रविवार
को प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ‘प्राइम टाइम’ में ३१ मार्च १९८५ को
प्रसारण भी किया था । इसके अलावा अनेकों बार लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी और
सुमन कल्याणपुर के गाए गीत ‘हे गंगा मइया तोहें पियरी चढइबो सैयाँ से कर
द मिलनवा’, ‘सोनमा के पिंजरा में बन्द भेल हाय राम’, ‘काहे बाँसुरिया
बजउले’, आदि सैकड बार आकाशवाणी से प्रसारित होकर प्रादेशिक फिल्म
निर्माण के बन्द द्वार खोलने का सेहरा प्राप्त किया । यही नहीं कमसार
फिलम्स के बैनर तले नाजीर हुसैन की दूसरी फिल्म ‘बलम परदेसिया’ भी सिल्वर
जुबली हिट हर्ुइ थी ।
यह तथ्य है कि क्षेत्रीय भाषा की फिल्म दर्शकों के मनोभाव, संस्कृति और
धरोहर के आदान-प्रदान पर चलेगी, न कि सितारों के जमघटों, आकर्ष शूूटींग
स्थलों आदि पर । सत्तर के दशक में तो भोजपुरी फिल्म निर्माण ने तो
वाराणसी और इसके आस-पास के क्षेत्रों की शूटींग का शहर ही बना दिया ।
लेकिन ५० वर्षों का सफर पर यह प्रश्न उठता ही है कि अपनी नकारात्मक वजहों
से एक क्षेत्र और भाषा समूह की अस्मिता को वाणी देनेवाले सिनेमा के रूप
में विकास करनेवाला भोजपुरी सिनेमा कहाँ फिसल रहा है, जिससे यह अपने अतीत
को यादगार बनाने में सक्षम नहीं हो पा रहा है ।


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