प्रो.मलिक जादा मंजूर अहमद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे

17 अक्टूबर 1919 को उ.प्र. के विधनूपुर में जन्में प्रो.मलिक जादा मंजूर अहमद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उर्दू के मशहूर अदीब होने के बावजूद उनका शुमार अंग्रेजी जबान के माहिरीन में था। तकरीबन डेढ़ दशक तक वह अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे और फिर उर्दू के विभागाध्यक्ष बन गये। वे एक उच्चकोटि के शाइर होने के साथ ही उपन्यासकार, कहानीकार, गद्यकार, निबन्धकार और उससे भी बढ़कर मुशाइरा संचालक थे। सस्तेपन से दूर मुशाइरों के संचालन के अनूठे साहित्यिक अन्दाज ने उन्हें एक विशिष्ट पहचान अता की। उनकी गजलों को हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के तमाम बड़े गायक-गायिकाओं ने स्वर देकर अमर बना दिया। मेरे लिये उनका शुमार डॉ.बशीर बद्र, प्रो.'वसीम' बरेलवी, डॉ.'राहत' इन्दौरी, 'सागर' त्रिपाठी, डॉ.कुँवर 'बैचेन', प्रो.'सोम' ठाकुर, गोपाल दास 'नीरज' डॉ.कलीम कैसर और डॉ.'नवाज' देवबन्दी जैसे दुनिया के उन चुनिन्दा उर्दू अदीबों में रहा है, जिनसे मैं अदबी बातचीत के दौरान दोस्ताना गुफ्तगू भी कर लिया करता हूँ। उनका निधन मेरे लिये दिल के बैठ जाने जैसा है, लेकिन नियति यही है कि जो इस फानी संसार में आता है, उसे एक न एक दिन जाना जरूर है। उनकी शख्सियत और शाइरी पर जब कलम चली तो तमाम छुये-अनछुये पहलू निकलते चले गये, जिनको 'दैनिक जागरण' ने कवरेज देकर जन-जन तक पहुँचा दिया। आप भी जानिये मलिक जादा मंजूर अहमद साहब के बारे में कुछ ऐसी बातें, जिनसे शायद आप वाकिफ न रहे हों।
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झाँसी को अदब की जरखेज सरजमीं कहते थे : प्रो. मलिक जादा मंजूर
'अंजुम' जहाँ से कौन ये शाइर चला गया/
लफ्जों की रहगुजर का मुसाफिर चला गया



...शाइर का नाम बताने की जरूरत नहीं। आप बखूबी ये बात जानते हैं कि जाने वाले का नाम- मलिक जादा मंजूर अहमद था, जिनका दिल पिछले कुछ समय से उनसे आँख मिचौली का खेल रहा था। यह क्या हो रहा है कि जिन अदीबों (साहित्यकारों) से इस दौर में अदब की विरासत महफूज है, वह एक-एक कर इस दुनिया से विदा होते जा रहे हैं। अभी 'निदा' फाजली को गुजरे कितने दिन हुये हैं। उनकी मौत भी दिल की बेवफाई का सदमा न झेल पाने की वजह से हुयी थी। ...और अब मंजूर भाई के साथ भी वैसा ही हादसा। उफ..!
मलिक जादा मंजूर साहब के जाने का गम तो हर अदीब को होना लाजिमी है, लेकिन मुझे यह शिद्दत से परेशान कर रहा है तो इसकी वजह ये है कि वह मुझे दिल की गहराइयों से प्यार करते थे। मैथिली शरण गुप्त और बाबू वृन्दावन लाल वर्मा के सबब मलिक जादा साहब झाँसी को अदब की जरखेज सरजमीं कहा करते थे। जब भी झाँसी आने का कोई प्रोग्रेम उनका बनता, यहाँ तक कि किसी मुशाइरे के सिलसिले में उनकी टे्रन झाँसी से होकर गुजरती तो पहले से मुझे इत्तला कर दिया करते थे। और मैं भी सारे काम छोड़कर उनसे मिलने पहुँच जाता। मलिक जादा साहब से मेरी पहली टेलीफोनिक गुफ्तगू मरहूम 'अयाज' झाँसवी साहब की मा'रिफत हुयी। उन दिनों मैं 'अयाज' साहब की गज़लों के दूसरे संग्रह पर काम कर रहा था, जो उनके असामयिक इन्तकाल की वजह से उस वक्त मुकम्मल न हो सका। 'अयाज' साहब अपने गजल कलेक्शन को देवनागरी में छपवाना चाहते थे, लेकिन कुछ फाइनेन्शियल प्रॉब्लम दरपेश आ रही थी। उस वक्त मलिक जादा साहब उ.प्र.उर्दू अकैडमि के चेयरमैन थे। उनका शुमार 'अयाज' साहब के अच्छे दोस्तों में था। मैं 'अयाज' साहब से कह रहा था कि देवनागरी की बजाय गजल कलेक्शन को उर्दू जबान में प्रिन्ट करा लें तो उर्दू अकैडमि से आर्थिक मदद मिल जायेगी। 'अयाज' साहब निहायत गैरत पसन्द थे। बोले-'अंजुम' मैं तो मलिक जादा साहब से इस्रार करने से रहा। मैंने कहा कि आप टेलीफोन लगाकर मुझे दे दें, मैं बात करूँगा। मैं अच्छी तरह से इस बात को जानता था कि कहने भर की देर है। मलिक जादा साहब को 'अयाज़' साहब के मज्मुअ' के लिये मंजूरी देने में वक्त कहाँ लगना था। यही हुआ भी। मैंने कहा कि तमाम दीगर शाइरों के गजल संग्रहों के लिये आपसे सिफारिशें करने वाला 'अयाज' अपने गजल कलेक्शन के लिये कहने में गुरेज कर रहा है। फौरन बोले कि 'अयाज' को फोन दो। मेरे ऐसा करते ही उन्होंने 'अयाज' साहब से कहा कि मियाँ 'अयाज' तुम्हारा पहला गजल कलेक्शन 'सिलसिला' तो देवनागरी में है। कम-अज-कम ये दूसरा मज्मुअ' तो उर्दू रस्मुलखत (लिपि) में छपवा लें। 'अयाज' साहब को भी मज्मुअ' देवनागरी में छपवाने की अजब सनक थी। उस वक्त तो हामी भर दी, लेकिन बाद में मुझसे इन्कार कर दिया। बोले-'अंजुम' उर्दू वाले किताब खरीद कर नहीं पढऩा चाहते और मैं मुफ्त में अपनी किताबें बाँटने से रहा। उन्होंने 'सिलसिला' की मिसाल देते हुये कहा कि देवनागरी में होने की वजह से ही सारी किताबें बिक गयीं। मैं भी उनकी बात से इत्तफाक रखता था। मेरे 8 गजल संग्रहों और 2 दीगर किताबों में से 2 उर्दू रस्मुलखत में हैं, जिनमें से एक भी किताब नहीं बिकी, जबकि देवनागरी के सारे कलेक्शन इतने बिके कि पब्लिशर को बार-बार उनके एडिशन कराने पड़े।
बहरहाल, बात आयी-गयी हो गयी। तकरीबन दो सालों के बाद मलिक जादा साहब एक मुशाइरे के सिलसिले में झाँसी आये। मैं उनसे मिला। हालाँकि टेलीफोनिक गुफ्तगू के बाद मेरी उनसे यह पहली मुलाकात थी, लेकिन वह ऐसे मिले, जैसे बरसों पुराना साथ हो। मैंने तब भी और उसके बाद भी जब-जब वह झाँसी आये, उनके इन्टरव्यूज लिये, जो 'दैनिक जागरण' और दीगर रिसालों में छपते रहे। यह तो हुयी मेरी बात। मेरे एक शाइर दोस्त हैं-इकबाल हसन 'सहबा'। वह बरसों से मलिक जादा साहब के मुरीद रहे हैं। सभी जानते हैं कि मलिक जादा साहब बेहतरीन शाइर होने के साथ-साथ गजब के मुशाइरा संचालक थे और 'सहबा' साहब उनके संचालन के मुरीद रहे हैं। वह चाहते थे कि मैं किसी तरह उनकी मुलाकात मलिक जादा साहब से करा दूँ, लेकिन मलिक जादा साहब को बड़े सवेरे झाँसी से निकल जाना था। मुलाकात मुमकिन ही नहीं थी। मैं सुबह 6 बजे ही मलिक जादा साहब को टे्रन से छोडऩे के लिये उनके होटल पहुँच गया। वह जल्दी-जल्दी तैयार होने में लगे थे। मैंने बातों ही बातों में जिक्र किया कि इसी शह्र में उनका एक जबर्दस्त प्रशंसक मौजूद है। आपसे मिलना चाहता था, लेकिन आप सुबह-सुबह डिस्टर्ब होंगे, इसलिये मैंने इन्कार कर दिया। बोले-कौन है, मोबाइल फोन पर मेरी गुफ्तगू कराओ। मैंने बात करायी तो अपने उसी यारबाज और सधे हुये अन्दाज में बोले-'सहबा' साहब मैं मलिक जादा मंज़ूर अहमद बोल रहा हूँ। 'सहबा' साहब के पैरों तले से मानो जमीन निकल गयी। इतना बड़ा अदीब और गुफ्तगू का ऐसा पुरखुलूस अन्दाज। वह मलिक जादा साहब के अदब के तो पहले से ही मुरीद थे, उनकी शख्सियत के भी काइल हो गये। उनका भी एक गजल संग्रह 'तेरे ख्याल की परछाइयाँ' छप रहा था। मुझसे जिद पकड़ गये कि किसी तरह मैं उनकी किताब के लिये मलिक जादा साहब का कमेण्ट हासिल कर लूँ। काम बहुत मुश्किल था। मैं जानता था कि मलिक जादा साहब किसी की किताब पर अपनी राय का इजहार करने में कितने मुस्तैद रहा करते हैं। दूसरे अदीब तो महज नमूने के तौर पर 10-20 गजलें भेज देने भर से अपनी राय दे दिया करते हैं, लेकिन मलिक जादा साहब कई बार किताब की पूरी स्क्रिप्ट ही माँग लिया करते थे ताकि यह देख लें कि 10-20 गजलें भेजने वाले की पूरी शाइरी किस स्टैण्डर्ड की है। मैंने 'सहबा' साहब की 10 गजलें भेजते हुये उनसे खास इस्रार किया तो वह मेरी खातिर अपनी राय लिखने के लिये राजी हो गये। उन्होंने जो स्क्रिप्ट तैयार करके दी, उस पर उनके दस्तख्त नहीं थे। 'सहबा' साहब ठहरे पुराने अदीब। कहने लगे कि अगर कल के रोज कोई कहेगा कि यह राय मलिक जादा साहब ने लिखी ही नहीं तो मैं कैसे साबित करूँगा। कुछ अर्से बाद मलिक जादा साहब फिर झाँसी आये। मैंने 'सहबा' साहब से कहा कि होटल में सुबह 6 बजे चलना होगा, क्योंकि इसके बाद तमाम मुकामी अदीब मलिक जादा साहब को घेर लेंगे और मुलाकात मुमकिन न हो सकेगी। इसके अलावा वह मूडी भी हैं। मुमकिन है कि स्क्रिप्ट पर दस्तखत करने की जगह अपनी दी हुयी तहरीर ही वापस ले लें। हम लोग होटल पहुँचे तो उनके कमरे का दरवाजा अन्दर से लॉक नहीं था, लेकिन वह सोते हुये नजर आये। शायद जागने के बाद उनकी आँख फिर से लग गयी थी। 'सहबा' साहब ने लौट चलने और थोड़ी देर में दोबारा आने को कहा। मैं जानता था कि तनहाई का ऐसा मौका फिर हाथ नहीं लगेगा। मैंने दरवाजे पर हल्की-सी दस्तक दी और एहतियातन् पीछे हट गया। वह हड़बड़ा कर उठे और उनींदे सुर में बोले-कौन? मैंने जरा आगे बढ़कर कहा, जनाब मैं हूँ-'अंजुम', लेकिन लगता है, आप सो रहे हैं। मुआफ करना, हम लोग थोड़ी देर से आयेंगे। बोले-नहीं, आओ भई! अब तो मैं जाग ही गया हूँ। यही तो मैं चाहता था। मैंने 'सहबा' साहब को पीछे आने के लिये कहा और कमरे में दाखिल हो गया। कहा कि 'सहबा' साहब अपनी किताब के लिये आपके साथ एक तस्वीर के मुन्तजिर हैं। बोले-इस हाल में?, अभी तो मैं सोकर उठा हूँ। फिर खुद ही बोले-अच्छा दो मिनट बैठो, तैयार हो जाता हूँ। मैं कैमरा साथ ही ले गया था। तस्वीर निकालने के बाद मैंने कागज आगे बढ़ाते हुये कहा-'सहबा' साहब इस पर आपके दस्तखत चाहते हैं। थोड़ा झुँझला गये, कहने लगे-मैंने कह तो दिया था कि छपने के लिये दे दो। दस्तखत क्या करने हैं। मैंने कहा-मज्मून के साथ यह आपके दस्तखत भी स्कैन करवा के साथ में ही लगाना चाहते हैं। पता नहीं, क्या समझ में आया सो दस्तखत भी कर दिये। मैंने 'सहबा' साहब को इशारा किया, जितनी जल्दी मुमकिन हो, निकल लो। 'सहबा' साहब ने वह कागज मढ़वा कर अपनी बेशकीमती चीजों के साथ आज भी सहेज कर रखा हुआ है। बाद में मेरे एक और अजीज दोस्त 'अरमान' तिवारी साहब के गजल कलेक्शन 'नुकूश-ए-मुहब्बत' पर भी मेरे कहने से उन्होंने अपनी राय का इजहार किया, जो अभी अण्डर पब्लिकेशन है। 'अरमान' साहब की दिली ख्वाहिश थी कि वह अपने हाथ से मलिक जादा साहब के हाथ में अपना शे'री मज्मुअ' सौंपने का गौरव हासिल करते। खैर...। इन वाकियात को यहाँ बयान करने का मेरा मकसद महज इतना है कि एक इतना बड़ा अदीब मिजाज से इतना सीधा-सादा था कि मुझ जैसे मुआ'मूली शाइर भी उन्हें अपने मुताबिक चलाने में कामयाब हो जाता था।
मैं उर्दू शाइरी के व्याकरण और मीटर-अरूज पर काम करता रहा हूँ। इसमें कई ऐसे मस्अ'ले दरपेश आये हैं, जिनका हल किताबों में मौजूद नहीं है। ऐसे वक्त में या तो पद्मश्री डॉ.बशीर बद्र या मलिक जादा साहब से मैं इन मस्अ'लों को डिस्कस करता रहा हूँ। एक बार मैंने ऐसी की किसी समस्या के समाधान के लिये मलिक जादा साहब को फोन किया तो बोले-एक मुशाइरे में आया था। इस वक्त गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर टे्रन के इन्तजार में बैठा हूँ। मेरे उस्ताद भी नजदीक ही बैठे हैं, वह तुम्हारे सवाल का जवाब बेहतर तरीके से दे सकेंगे। मैं चौंक गया। मलिक जादा साहब तो उम्र और फन दोनों ही ऐ'तबार से उस्तादों के उस्ताद हैं। उनका भला कौन उस्ताद है, जिससे वह बात कराना चाहते थे। अगले ही पल वहाँ से सीनियर शाइर और एनाउन्सर अनवर जलालपुरी साहब की आवाज सुनायी दी। मैं उनकी आवाज को खूब पहचानता था और वह भी मेरे अच्छे परिचितों में हैं। मैं यह भी जानता था कि मलिक जादा साहब ने यूनिवर्सिटि में अनवर साहब को पढ़ाया था। या'नी उस्तादी और शागिर्दी का मुआ'मला उल्टा था। उस वक्त मलिक जादा साहब का वह मजाकिया लहजा मुझे अच्छा लगा और यह भी पता लगा कि किस तरह संजीदा बातों में भी वह मजाक करने के पहलू निकाल लिया करते थे।
उनके साथ मेरे इस तरह के अनेक किस्से हैं, जिनको मैं यहाँ बयान कर सकता हूँ, लेकिन यह अखबार है, कोई अदबी मैगजीन नहीं और एक अखबार में इस तरह के कवरेज की सीमायें हुआ करती हैं। अगर आप विस्तार से पढऩा ही चाहते हैं तो आपको मेरी शीघ्र प्रकाश्य आत्मकथा 'मैं कहाँ-कहाँ से गुजर गया? ' का इन्तजार करना होगा, जिसमें कला, साहित्य और फिल्म जगत् के दिग्गजों के ऐसे अनेकानेक संस्मरण आपको मौजूद मिलेंगे।
 राजकुमार अंजुम की एफबी वॉल से



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