23मई गामा पहलवान की पुण्यतिथि पर -रुस्तमे-जमां-गामा
गामा को बुन्देलखण्ड का गौरव कहें तो अनुचित नहीं होगा ,क्यों कि गामा के परिवार का दतिया महाराजा से घना सम्बन्ध रहा और कहते हैं कि गामा के भाई इमामबख्श का तो जन्म ही दतिया में हुआ था।
.............काश्मीरी मूल के वट परिवार के गामा का जन्म 22मई 1878को अमृतसर में हुआ था उनका पूरा नाम गुलाम मुहम्मद गामा था जिन्हें दतिया के राजा भवानी सिंह ने दस साल की उम्र में जोधपुर के एक आयोजन में उन्हें देखा था वह आयोजन आधुनिक ओलम्पिक के विभिन्न खेलों का रुप था जिसमें अलग अलग एक्सरसाइज करते हुये सब पहिलवान थक गये थे लेकिन अन्तिम दस में पहुंचने बाले पहिलवानों में दस बर्षीय गामा भी था तब राजा उन्हें बचपन से बुन्देलखण्ड ही ले आये थे और कुश्ती की समस्त सुविधायें दीं। राजा भवानी सिंह के बाद महाराज गोविन्द सिंह जू देव ने भी इनका ध्यान रखा।
उस जमाने में हर राजघरानों के अलग अलग पहिलवान होते थे और जो अमूमन सात फीट के होते थे इस नाते गामा अनफिट था क्यों कि इनका कद सिर्फ पांच फीट सात इंच था ।
उस समय भारत का सबसे दुर्दान्त और भारत चैम्पियन पहलवान रहीम बख्श सुल्तानी था जो सात फीट लम्बा भीमकाय था जिसे देख कर अमूमन पहिलवान अखाड़ा छोड़ कर भाग जाते थे या रहम की भीख मांग गिड़गिड़ाने लगते थे ।
गामा ने सीधे रहीम को ही चुनौती दी । अधेड़ रहीम और अठारह साल का किशोर गामा, कुश्ती गुजरांवाला में हुयी और लगभग दो घंटे चली कुश्ती का कोई परिणाम नहीं निकला और कुश्ती वरावरी पर छूटी मानी गयी लेकिन मुंह और नाक से खून उगलते गामा को लोगों की भीड़ ने नारे लगाते हुए हर्षोल्लास के साथ हाथों पर उठा लिया ,क्यों कि
यह भारतीय कुश्ती जगत जनमा का नया नक्षत्र था ।
....................................1910तक गामा भारत के सभी पहिलवानों को चित कर चुका था ।
उसी बर्ष इंग्लैंड में विश्व हैवीवेट कुश्ती चैंपियनशिप का आयोजन था।
दतिया महाराजा ने खर्चा दिया और भारत सरकार के अनुमोदन पर गुलाम मुहम्मद गामा और इमाम बख्श चैम्पियनशिप के
लिए इंग्लैंड गये , लेकिन वहां एक टैक्निकल प्वाईन्ट फंस गया ।
छै फिट से कम लम्बाई होने के कारण दोनों पहलवानों को विश्वहैवीवेट के तात्कालिक नियमों के अनुसार अयोग्य घोषित कर दिया गया।
तब दोनों की छाती में सकता सा लग गया ,इमामबख्श तो बोले भाई लोट चलो लेकिन गामा बोले कि लौटना यानि कि देश का वेज्जती होना माना जायेगा और तब परेशान किंकर्त्तव्यविमूढ़ गामा ने आवेश में आकर वहां के सब पहिलवानों को चैलेंज कर दिया कि वे किसी को भी दो मिनट में चित्त कर देंगे लेकिन किसी ने इन्हें गम्भीरता से नहीं लिया ।वल्कि यह मजाक का विषय जरुर वन गया ।
तब इन लोगों ने एक निर्णय लिया (पराग ,खेल विशेषांक जुलाई 1982 में वर्णित ) कि ये सादा कागज पर पोस्टर पर यह चुनौती लिखकर शहर भर में लगा दें ,कि वे उस समय तात्कालीन तीन सर्वश्रेष्ठ पहिलवानों को दो मिनिट से भी कम समय में चित कर देंगे।...........और इनके ऐसा करने पर शहर भर में चर्चा हो गयी तो उस समय के विश्वस्तर पर द्वितीय पहलवान बैंजामिन ने इनकी चुनौती स्वीकार की ।
........,.......गामा ने बैंजामिन को दो मिनट से कम में चित्त कर दिया ।
लेकिन फिर भी आयोजन समिति नियमानुसार इन्हें सीधे प्रवेश नहीं दे सकती थी ।इसके लिए सर्व सम्मति से निर्णय ले आयोजन समिति ने इनकी एक दिन में बारह कुश्ती करायीं और गामा ने बारह ही जीत ली।
इस तरह भारतीय पहलवान गामा को इन खेलों में प्रवेश मिला ।
अपने ग्रुप से गामा फाइनल में पहुंचे और दूसरे ग्रुप से अमेरिकी दैत्याकार पहिलवान स्टेनीलास जाविस्को फाइनल में 10सितम्बर 1910को लम्बे समय तक चली कुश्ती का कोई परिणाम नहीं निकला और फिर अगली तारीख 17सितम्बर नियत हुयी लेकिन गामा से भयभीत जेविस्को 17सितम्वर को अखाड़े में नहीं आया और इस तरह गामा वना विश्वविजयी ।
...................लोटने पर भारत में गामा का स्वागत विश्वविजयी योद्धा की तरह ही हुआ लेकिन यहां जलनवश या हो सकता है स्वभावतया ,बुढ़ा रहे पहलवान रहीम सुल्तानी बाला ने गामा को फिर ललकारा और गामा ने चुनोती स्वीकार कर सुल्तानीबाला को पटखनी दे कर अपने को श्रेष्ठ सिद्ध किया ।
वरोदा गुजरात में बारह सौ किलो का पत्थर आज भी रखा है जिसे गामा ने अपने हाथों से उठाया था ।
गामा सौ किलो की पत्थर की हंसली पहिन कर तो दंड बैठक लगाया करता था।
1926में गामा ने उत्तर भारत के सुप्रसिद्ध पहिलवान विद्दू पंडित को परास्त किया।
1928में गामा पचास साल के हो चुके थे लेकिन जैविस्को ने फिर चुनौती दी ।आयोजन पटियाला महाराज के संरक्षण में पटियाला में हुआ और गामा ने जैविस्को को चारों खाने चित कर दिया ।
ललितपुर के योगेश गौतम उर्फ छुट्टन गौतमियां वताते हैं की उनके पिताजी श्री राधिका गौतमियां जो खुद पहिलवान थे और शहर के प्रसिद्ध अखाड़े गौशाला के खलीफा या कहें मुख्य शिक्षक थे जो वताते थे कि "ललितपुर के श्री शिवदयाल तिवारी उर्फ़ सट्टू पहलवान भी भारत के अच्छे पहलवानों में एक तथा कानपुर के डी ए वी कालेज के चर्चित छात्र नेता थे और सन 28--30के दौरान जब गामा कानपुर आये थे तभी से तिवारी जी के गामा से अच्छे सम्बन्ध वन गये थे ।
सट्टू तिवारी ने जब चर्चित पहिलवान वालावेग को चुनौती दी तो उन्हीं के संग जोड़ करने बाले एक पहिलवान ने साजिशन उनके घुटने की कटोरी पर गहरी चोट की ओर कटोरी अपने स्थान से खिसक गई लेकिन तिवारी जी कुश्ती के लिए अयोग्य हो गये।
..................बाद में शिक्षा पूरी करने के बाद तिवारी जी ललितपुर अपने घर आ गये ।
..........टीकमगढ़ महाराज हर साल अपने राज्य में हफ्ता दस दिनों का उत्सव किया करते थे जिसमें गामा भी बुलाये जाते थे और सट्टू तिवारी भी ।
गामा टीकमगढ़ जाते हुये पहले तिवारी जी के यहां रुकते फिर उनके साथ टीकमगढ़ जाते थे ।
उत्सव के दौरान ही ललितपुर के ही किसी रहीश की शह पर एक पहिलवान ने तिवारी जी को चैलेंज कर दिया तो तिवारी जी ने अपने पांव को लेकर कुश्ती लड़ने में असमर्थता दिखाई तो वह पहिलवान इन पर तंज कसने लगा ... .....मजबूरन तव तिवारी जी ने अगले बर्ष कुश्ती लड़ने का चैलेंज स्वीकार कर लिया ।
..........तिवारी जी ने गामा से कहा कि उस्ताद वह पहिलवान मेरी भरी महफिल में इज्जत उतार कर चला गया ।
इस पर गामा हंस कर बोले कि हमारी इज्जत कौन उतार सकता है हम लोग तो वैसे भी सिर्फ लंगोट पहने सब जगह घूम लेते हैं ,फिर गामा ने गम्भीरता से इन्हें नया पट्ठा तैयार करने की ताकीद दी ।
.............तिवारी जी ने नया पट्ठा अहमद पहिलवान नाम का तैयार किया ।अहमद पहिलवान ने अगली साल उस चैलेंज देने बाले पहिलवान को अखाड़े में ऐसा चित किया कि पांच मिनट तो वह उठ ही न सका।
...................1940में निजाम हैदराबाद के बुलावे पर गामा हैदराबाद पहुंचा और निजाम के सब पहिलवानों को चित किया ,सिर्फ एक पहलवान वलराम हीरामन यादव को चित न कर सके उससे कुश्ती वरावरी पर छूटी ।
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बुन्देलखण्ड में एक किस्सा और आम है कि शायद उन्नीस सौ एक या दो में झांसी और चिरगांव में प्लेग फैला और लोग सुरक्षित स्थानों पर भाग रहे थे । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भी अपनी एक निकटवर्ती रिश्तेदारी में दतिया परिवार सहित पहुंच गये ।उनका सारा सामान रखा जा चुका था लेकिन तीन सौ किलो की तिजोरी चार लोग भी मिल कर नहीं उठा पा रहे थे ।गामा ने वह तिजोरी अकेले ही उठा कर यथास्थान रख दी थी ।सब दांतों तले उंगलियां दबाने को मजबूर हो गये थे ।
.....................दतिया का जो सातमंजिला महल है उसकी एक मंजिल में गामा पहलवान का अखाड़ा भी वना हुआ है जनश्रुतियां और किस्सागोईयां भय प्रकट करते हुए वताते हैं कि उस अखाड़े में आज भी रात में जिन्नात वर्जिश करते हैं ।
वे जीवित किवदन्ती थेऔर उनके नाम का प्रयोग ताकत शब्द के पर्यायवाची के रुप में होने लगा था और लोग आपस में लड़ते हुए एक दूसरे पर तंज कसते थे "कि जाओ यार ,तुम कौन कऊं के गामा पहिलवान आओ"
उनकी लोकप्रियता ऐसी थी कि जहां से वे निकलते थे तो सड़कें भींड़ से अॅट जाती थीं ।
लेकिन ?
लेकिन ????
.................लेकिन सैंतालीस में उन्होंने नेहरु जी (जिनकी सहिष्णुता पर पक्ष विपक्ष दोनों सवाल नहीं उठा सकते हैं ) पर भी विश्वाश नहीं किया ।और भारत छोड़ने का निर्णय लिया .............................शायद उन्हें भी आज के कुछ वालीवुड स्टारों की भांति डर लगने लगा था ओर वे पाकिस्तान चले गये वही पाकिस्तान जो उनके सपनों सुख समृद्धि और सहिष्णुता का देश था ............लेकिन जहां पर उन्हें घोर गरीबी और भुखमरी के बीच सोने चाँदी के तमगे .गदे तक वेचने पड़े .........और एक दिन रावी नदी के किनारे वनी एक झोपड़ी में 23मई1960को वे वेचारगी की मोत मरे ।
............और उसी भारत में जो उन्हें असहिष्णु लगता होगा के विड़ला ग्रुप और पटियाला महाराज ने उन्हें अन्तिम समय में काफी आर्थिक मदद देनी शुरु की ।
और शायद अगर उसी असहिष्णु भारत का बालीबुड जो उन्हें आमंत्रित कर रहा था कि बात मान कर वे भारत में ही रुक जाते तो यही भारतीय फिल्म उद्योग उन्हें इतनी आर्थिक समृद्धि व प्रसिद्धि देता कि हालीबुड भी उन्हें आमंत्रित करने पर बाध्य हो जाता और वे पोस्टर मैन होते।
और उसी असहिष्णु भारत के लोग आज भी पटियाला में उनके कसरत में प्रयोग आने बाले पत्थर के गोल चक्का को नमन करते हैं और दतिया के सतखन्डी महल में बने इनके अखाड़े में अगरबत्ती लगाते हैं!
लेकिन फिर भी यह देश अतिबुद्धिजीवियों की नजर में असहिष्णु है ?