डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर का जन्म 4 मई 1919 - 101 वी जयन्ती पर विशेष






अद्वैत वेदान्त भारतीय चिन्तन की पराकाष्ठा है। इसके तीन शब्द महत्वपूर्ण हैं- सत्य, असत्य और मिथ्या। अद्वैत वेदान्त दर्शन का मानना है कि जिसका सृष्टि और प्रलय की स्थितियों में भी नित्य और अपरिवर्तनशील अस्तित्व है वही सत्य है और अद्वैत वेदान्त का यह सत्य ‘‘ब्रह्म’’ है। ’’ असत्य ’’ का किसी काल में अस्तित्व संभव नहीं है। अद्वैत वेदान्त ‘‘बन्ध्या-पुत्र’’ का दृश्टान्त देकर असत्य का आभास कराता है। ‘‘मिथ्या’’ अद्वैत वेदान्त दर्शन का विलक्षण शब्द है, जो आज है और कल नहीं रहेगा तथा जिसकी दीर्घकालीन सत्ता है और जिसकी हमें अनुभूति होती है वही मिथ्या है। इस दृश्टि से अद्वैत वेदान्त ने जगत् को न तो सत्य और न ही असत्य बल्कि मिथ्या माना है। प्रलय की स्थिति में जगत् का अस्तित्व नहीं रहता है। अतः जगत् सत्य नहीं हो सकता। चूॅंकि जगत् की अनुभूति होती है, अतः यह असत्य भी नहीं है। जो न सत्य हो और न असत्य हो, अद्वैत वेदान्त दर्शन उसे मिथ्या कहता है। मिथ्या मूलतः अद्वैत वेदान्त दर्षन का ही शब्द है और यहीं इस शब्द के अर्थ को विस्तार भी मिलता है।
मनुष्य की विडम्बना यह है कि वह ‘‘सत्य’’ पर मनन नहीं कर पाता है। पश्चिम के विचारको से प्रभावित होकर झठे तर्क गढ कर आर्य को बाहरी बताने बालो के सामने सत्य उदघाटित करने बाले डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर का जन्म 4 मई 1919 को नीमच, जिला मंदसौर, मध्य प्रदेश में हुआ था।प्राथमिक शिक्षा पूरी करके उज्जैन के विक्रमशिला विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी कर वही प्रोफेसर बन गए।
भोपाल के पास भीमबेटका के प्राचीन शिला चित्रों से लेकर लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी के भूमिगत मार्ग को सेटेलाइट की मदद से खोजकर  विलुप्त पवित्र सरस्वती नदी के मार्ग की खोज कर भारत की सनातन मान्यताओं को पुनः स्थापित किया। सरस्वती नदी पौराणिक हिन्दू ग्रन्थों तथा ऋग्वेद में वर्णित मुख्य नदियों में से एक है। ऋग्वेद के नदी सूक्त के एक मंत्र (१०.७५) में सरस्वती नदी को 'यमुना के पूर्व' और 'सतलुज के पश्चिम' में बहती हुई बताया गया है उत्तर वैदिक ग्रंथों, जैसे ताण्डय और जैमिनीय ब्राह्मण में सरस्वती नदी को मरुस्थल में सूखा हुआ बताया गया है, महाभारतमें भी सरस्वती नदी के मरुस्थल में 'विनाशन' नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन आता है। भोपाल से 46 किलोमीटर दूर पर दक्षिण में भीमबैटका की गुफाएं मौजूद हैं। जो चारों तरफ से विंध्य पर्वतमालाओं से घिरी हुई हैं। ऐसा माना जाता है कि भीमबैटका गुफाओं का स्थान महाभारत के चरित्र भीम से संबंधित है। इसी कारण से इसका नाम भीमबैठका भी पड़ गया। इनकी कार्बन डेटिंग करने पर ये 50000 वर्ष पुराने पाए गए। इनकी खोज वर्ष 1957-1958 में डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने की थी ।आर्यों के बाहर से आने की पाश्चात्य मान्यता को तर्क पूर्ण तरीके से खारिज किया। दैनिक जागरण में प्रकाशित एक रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, "हरियाणा के हिसार जिले के राखीगढ़ी में हुई हड़प्पाकालीन सभ्यता की खोदाई में मिले 5000 साल पुराने कंकालों के अध्ययन के बाद जारी की गई रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि आर्य यहीं के मूल निवासी थे, बाहर से नहीं आए थे। यह भी पता चला है कि भारत के लोगों के जीन में पिछले हजारों सालों में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। इस रिसर्च में सामने आया है कि आर्यन्स भारत के ही मूल निवासी थे।"संघ के स्वयंसेवक होने के कारण अखिल  भारतीय विद्यार्थी परिषद, म.प्र. के अध्यक्ष रहे। विश्व हिंदू परिषद की स्थापना के बाद 1966 में प्रयाग में जब प्रथम विश्व हिंदू सम्मेलन हुआ, तो श्री एकनाथ रानाडे ने उन्हें वहां  भेजा। इसके बाद हरिभाऊ देश के अनेक हिस्सों में गए। उन्होंने वहां भारतीय संस्कृति, कला, इतिहास और ज्ञान-विज्ञान आदि पर व्याख्यान दिये। 1981 में ‘संस्कार भारती’ की स्थापना होने पर उन्हें उसका महामंत्री बनाया गया। 3 अप्रैल 1988 को निधन हो गया था। डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर एक अच्छे चित्रकार भी थे।जो भी ऐतिहासिक इमारतें और वस्तुएं उन्हें खनन के दौरान मिलती उनकी हुबहू स्केच बना कर वे संगृहीत करते थे।
1975 में उन्हें पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित किया गया। मप्र सरकार द्वारा डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर  राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया जाता है। भारतवर्ष के महान वेदों की रचना जिस लुप्त सरस्वती नदी किनारे हुई उस नदी की भी खोज वाकणकर जी का एक और महत्वपूर्ण योगदान है। पहले भ्रामक प्रचार के माध्यम से भारत में रहने वाले लोगों को बाहर से आने वाले आर्य वंशी के रूप में प्रचारित किया गया था, उनकी खोज से ही हर भारतीय आज भारत के लाखो वर्ष पूर्व के गौरवशाली इतिहास का खुद को हिस्सा मानने में गर्व महसूस करता है। श्री वाकणकर जी की स्वर्ण जयंती  वर्ष के समापन पर उन्हें याद कर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते है।


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