भूख ही बनी पलायन का कारण........!

गांव की गरीबी और पेट की भूख  एक दिन हमें अपने जन्मभूमि से कर्मभूमि की ओर ले गई । गांव की बदहाली , भूख से तड़पते लोग,  हाथों को काम नहीं ऐसे में काम की तलाश व पेट की भूख जिस राह पर हमें ले गई वहां ठिकाना तो मिला, लेकिन कठिनाइयों ने भी पीछा नहीं छोड़ा । जिस शहर को हमने कर्मभूमि समझा वहीं से हमें एक दिन बड़े बेआबरू होकर उसी अपनी जन्मभूमि की ओर लौटना पड़ेगा यह कभी सोचा भी नहीं था।  लेकिन एक छोटे से वायरस ने आज हमें वह दिन भी दिखा दिया । जिस भूख के लिए गांव छोड़ा, उसी भूख ने फिर गांव कि राह दिखा दी। भरी धूप में अपने गांव की ओर निकले इन मजदूरों के पास खाने को कुछ नहीं... पहनने को चप्पल नहीं.... छोटे-छोटे बच्चे गर्म सड़क पर नंगे पाव चलते  देश के इस भविष्य को देखकर लगता है क्या हमने प्रगति की? और यदि की तो क्या यही वह विदारक दृश्य है जो हम आज अपने ही देश की सड़कों पर देख रहे हैं। इन्हें देख कर बरसो पुराने गाने की आवाज कानों में गूंज रही है.."आ अब लौट चलें.......तुझको पुकारे देश तेरा"।

  देश के तमाम राज्यों की सड़कों पर पैदल चलते प्रवासी मजदूर ही दिखाई दे रहे हैं। इनमें से कई मजदूरों की हालत देखकर तो लोगों का दिल दहल जा रहा है। कहीं छोटे बच्चे अपनी मॉओं के सीने से चिपके लंबी दूरी तय कर रहे हैं तो कहीं पति साइकिल पर अपनी जीवन संगिनी को लेकर जाते दिख रहे हैं।

कहीं बेटा श्रवण कुमार बना दिख रहा है तो कहीं पिता अपनी बेटी को कंधे पर बिठाए लिए जा रहा है। कहीं खुद भूखी रहकर अपने बच्चे को सड़क किनारे बैठी खाना खिलाते दिख रही हैं तो कहीं पैदल चलते-चलते थक चुके लोग पेड़ की छांव में सुस्ताते हुए दिख रहे हैं। तो कहीं सड़कों पर सड़क हादसों में जान गवाते मजदूर। क्या यही है हमारा भारत? यह प्रश्न मन में आना स्वाभाविक है।

देश के सभी गांव से लोग मजदूरी के लिए विभिन्न शहरों में गए  वहां मजदूरी कर अपना वह अपने परिवार का पेट पाल रहे थे, लेकिन इस महामारी ने उनके पीठ पर जैसे लात मार दी और वह दाने दाने के लिए मोहताज हो गए। परिस्थिति इतनी खराब हुई कि आखिर इन मजदूरों ने अपने गांव अपनी मातृभूमि में ही जाना उचित समझा , लेकिन इसके लिए भी उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। दूसरो के रहमो करम पर दिन काटने पड़ रहे है। कई तो ऐसे भी हुए जो 1100  किलोमीटर पैदल ही अपने घर के लिए निकल चलें , तो कइयों ने घर पहुंचने से पहले ही रास्ते में दम तोड़ दिया।  प्रश्न यह है कि क्या हम इनकी मदद नहीं कर सकते थे ? क्या हमें नहीं उचित सुविधा मुहैया नहीं करा सकते थे? यदि नहीं तो फिर उन्होंने क्या किया इतने वर्षों से यह बड़े-बड़े शहरों में काम करते रहे सिर्फ पेट पालना ही लगता है इनका उद्देश्य था।  गठरी में कुछ भी जमा नहीं। जहां मजदूरी कर रहे थे उन्होने भी उन्हें सहायता नहीं की।  ऐसे में क्या देश प्रगति का शिखर सर कर पाएगा ? उनकी इस विडंबना के लिए कौन जिम्मेदार है सरकार या वे स्वयं । इस विषय में हमें सोचना होगा । हमें यह भी सोचना होगा कि बाहरी राज्य से हमारे राज्य में आए हुए प्रवासी मजदूरों का क्या भविष्य होगा? इससे पहले कई राज्य इनकी बढ़ती हुई संख्या को देखकर इन्हें अपने राज्य से उनके खुद के राज्य में वापस भिजवाने के लिए राजनीति करते रहे।  या यूं कहें तो राजनीतिक रोटिया सेकते रहे, लेकिन आज उनके नसीब को एक छोटे से वायरस ने पलायन की राह पर लाकर खड़ा कर दिया।  उन्हें खुद पता नहीं उनका भविष्य क्या होगा? उनका अपना गांव उनकी अपनी जन्मभूमि क्या उन्हें माफ करेगी ? क्या अपनी गोद में आसरा देगी? क्या वे अपने बच्चों का पेट भर सकेंगे?

सरकार वो किसी  की भी हो यही कह रही है हम उन्हें मदद कर रहे है। केंद्र सरकार व राज्य सरकार का समन्वय दिखाई नहीं पड़ रहा है। यदि समन्वय होता तो पलायन का चित्र अलग होता। शायद सरकार भूल गई की अर्थव्यवस्था कि रीड होते है ये मजदूर। इन्हीं की मेहनत पर घूमता है अर्थव्यवस्था का पहिया।

इस पलायन से ही समस्या ख़तम नहीं हो जाती। समस्या तो अब शुरू होगी। जिस मुसीबत में यह मजदूर घर की ओर निकल पड़े है क्या वे पुनः अपने काम पर लोटेंगे? जब तक महामारी का प्रकोप कम नहीं होता तब तक तो यह संभव नहीं है। राज्यो पर भी प्रवासी मजदूरों का बोझ कम होगा। इसका सीधा असर वहां के लोगों पर पड़ेगा। इन लोगो को स्थानीय स्तर पर काम मिल सकेगा। केंद्र सरकार ने २०लाख करोड़ का पैकेज दिया है। क्या यह पकेज इन मजदूरों तक पहुंचेगा। अब यह तो राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि अपने यहां अपनी मातृभूमि में वापस लौटे धरतीपुत्र को अपनी माटी में काम दे, भोजन दे । उनके बच्चों का भविष्य निश्चित करें। लघु उद्योगों को बढ़ावा देकर उन्हें बाजार उपलब्ध कराए। इसमें लालफीताशाही का इस्तेमाल कम हो।  किसान शहर की तरफ जाने की भी ना सोचे इतनी सुविधाएं उन्हें मुहैया कराए, क्योंकि हमारा देश कृषि प्रधान देश है। कृषि फलेगी- फूलेगी तो देश फलेगा-फुलेगा।  तभी हम अपने राज्य को समृद्ध व सुखी बना सकते हैं । वरना फिर वही हालात देश में हमें देखने मिलेंगे भुखमरी- गरीबी । आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम आत्मनिर्भर नहीं हो सके दूसरों पर ही निर्भर रहना हमारी आदत बन चुकी। इस महामारी के बाद देश का चित्र व अर्थव्यवस्था बदली बदली सी होगी। इस महामारी ने हमें नुकसान तो पहुंचाया है लेकिन उससे ज्यादा अवसर उपलब्ध कराए है। अब देखना होगा राजनीतिक दल सिर्फ इस पर राजनीति करते है या देश के उत्थान के लिए एकजुट होकर अवसर का लाभ उठाते है। 

 

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