गजल

आंधियों में उजड़ता रहता हूँ।
पेड़ हूँ मैं संवरता रहता हूँ।।


पास घर के है जबकि मयखाना।
रात भर मैं तड़पता रहता हूँ।।


धूप में इक शजर कै साये-सा।
चार सू बस सरकता रहता हूँ।।


मैं तो शबनम् हूँ रात का हिस्सा।
फूल पर क्यूँ लुढ़कता रहता हूँ।।


यूँ तो ग़म से हेँ थका हारा पर।
चोट खाकर निखरता रहता हू।।


बाम पर उसकीइक झलक पाकर।
"ग़ैर"शब भर मचलता रहता हूँ।।


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