"जननी तेरी जय हो"

ईश्वर की जब प्रार्थना की जाती है और उसे अपना सर्वस्व माना जाता है तब सबसे पहले,  ईश्वर को मां के रूप में स्वीकार किया जाता है...


  " त्वमेव माता "


 रावण वध के पश्चात् मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र जी लक्ष्मण से कहते हैं...


"जननी  जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसि"
  "माँ" और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं  (गरीयमान हैं )


अपनी आवश्यकताओं, इच्छाओं, सुख-सुविधाओं तथा आकांक्षाओं का त्याग कर अपने परिवार को जो प्रधानता देती है.. वो माँ है, 


 महाभारत में जब धर्मराज यक्ष, महाराज युधिष्ठिर से पूछते हैं... कि " भूमि से भी भारी कौन है?? 


 तब महाराज युधिष्ठिर उत्तर देते हैं... 
  "माता गुरुतरा: भूमे:
अर्थात - माता इस भूमि से भी गुरुतरा होती है.. 


महर्षि मनु मनुस्मृति में कहते हैं... 


उपाध्यायान् दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता ।
सहस्रं तु पितॄन् माता गौरवेणातिरिच्यते ॥ 2.१४५ ॥


अर्थात - 
दस उपाध्यायों के बराबर एक आचार्य होता है। सौ आचार्यों के बराबर एक पिता होता है और एक हजार पिताओं से अधिक गौरवपूर्ण ‘माँ’ होती है।’


 महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में कहा है..


नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया||


अर्थात, माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय चीज नहीं है।


तैतरीय उपनिषद में ‘माँ’ के बारे में इस प्रकार उल्लेख मिलता है...


‘मातृ देवो भवः।’


अर्थात, माता देवताओं से भी बढ़कर होती है।


महर्षि दयानंद ने 'सत्यार्थ प्रकाश’ में  ‘शतपथ ब्राह्मण की सूक्ति का उल्लेख करते हुए लिखा है...


'प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान।’


अर्थात, धन्य वह माता है जो गर्भावान से लेकर, जब तक पूरी विद्या न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।


आचार्य चाणक्य ने चाणक्य नीति में कहा है... 


राजपत्नी गुरोपत्नी  मित्रपत्नी तथैव च |
पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैते: मातर स्मृता: ||


 राजा की पत्नी,, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी,  और अपनी पत्नी की माता, और अपनी स्वयं की माता, इन सभी को आचार्य चाणक्य ने मां का स्थान प्रदान किया है... 


कवि गुप्त ने ‘माँ’ की महिमा में लिखा है:


‘जननी तेरे जात सभी हम,
जननी तेरी जय है।’


रामचरित उपाध्याय ने अपनी रचना ‘मातृभूमि’ में  ‘माँ’ की महिमा का उल्लेख करते हुए लिखा है 


‘है पिता से मान्य माता दशगुनी, इस मर्म को,
जानते हैं वे सुधी जो जानते हैं धर्म को।’


जो बुद्धिमान लोग धर्म को मानते हैं, वे जानते हैं कि माता,  पिता से दस गुनी मान्य होती है।


 ऐसे हमारे शास्त्रों में अनेकों स्थानों पर,,  अनेकों कवियों और महापुरुषों ने मातृशक्ति की महिमा का यशोगान किया है....


माता कयाधु से उपनिषद और सत्यधर्म के संस्कार प्राप्त कर बालक प्रहलाद असुर कुल में होते हुए भी धर्मात्मा महापुरुषों की श्रेणी प्राप्त करते हैं... 


एक माँ के ही तप त्याग और संस्कारों से सिंचित होकर एक माता कौशल्या के संस्कारों से ही बालक राम,  मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम बन जाते हैं... 


 कृष्ण, माता यशोदा के सान्निध्य में बड़े होकर योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण बन जाते हैं,, 


माता अंजनी के संस्कारों को धारण कर हनुमान,  वीर हनुमान,बजरंगबली बन जाते हैं,  जिनका पूजन सम्पूर्ण विश्व करता है... 


माता जीजाबाई द्वारा धर्म और अध्यात्म से युक्त संस्कारों के बीजारोपण से बालक शिवा  वीर छत्रपति शिवाजी जी  महाराज बन जाते हैं... 


माता जयवंताबाई के द्वारा प्रदत्त स्वाभिमान और शौर्य के संस्कारों से कीका नाम से पुकारे जाने वाला बालक वीर महाराणा प्रताप, के नाम से विख्यात हो जाता है... 


माता शकुंतला के सान्निध्य में संस्कारित हो "सर्वदमन" , सप्तद्वीपमयी पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट "भरत" हो जाते हैं... जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ... 


 ऐसे हजारों महापुरुषों के उदाहरण दिए जा सकते हैं...
मातृशक्ति के स्नेह और संस्कारों से सिंचित होकर ही बालक विश्व में अभूतपूर्व परिवर्तन करने के लिए सक्षम हो पाता है.... 


संयुक्त-परिवार , बालको के लिए एक गुरुकुल की भाँति कार्य करता है, जब माता अपने बालक में परिवार की उन्नति व सुरक्षा बढाने के संस्कार डालती है, 


 जब माता देश और धर्म के प्रति अत्यंत निष्ठायुक्त भावनाएं बालक के अंदर प्रेषित करती है,, तब वह बालक इन्ही संस्कारो को धर्म,  समाज व राष्ट्र के लिए प्रयोग करता है


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