जिंदगी की पहेली को हल करते हुए खामोशी से चले गए योगेश


गुणवत्तापूर्ण गीतों का पर्याय योगेश चले गए।आप भले उनसे बाबस्ता न हों, उनके गीतों की जानकारी न हो। लेकिन कान में पड़ने पर उनके बोल आपके कदम जरूर रोक लेंगे। ठहरकर आप उन्हें सुनने का लोभ नहीं रोक पाएंगे। क्या आप अब भी इससे इत्तिफाक नहीं रखते।तो सुन लीजिए फिल्म आनंद का गीत, जिंदगी कैसी है पहेली...या ...कहीं दूर जब दिन ढल जाए... मन्ना डे और मुकेश की आवाज पर राजेश खन्ना तो सिर्फ होट हिला रहे हैं। गीतों के शब्द अपने अर्थ के साथ आपके दिमाग में छप रहे हैं। दूसरा गीत सुनिये फिल्म रजनीगंधा से। विद्या सिन्हा के होठों को में।इसी फिल्म का एक और गीत सुनिये मुकेश की आवाज में...कई बार यूं भी देखा गीतों को शब्दों में बांध कर दर्शन की माला में पिरोया है योगेश ने। हां यह बात अलग है कि ज्यादातर फिल्में योगेश के गीतों की वजह से सराही गईं। पुरस्कार जीतने में भी कामयाब हुई, लेकिन इसके बावजूद योगेश वह सम्मान नहीं पा सके जिसके वह हकदार थे। योगेश का फिल्मों में आना भी महज एक संयोग थालखनऊ में 19 मार्च 1943 में जन्मे योगेश के पिता पीडब्ल्यूडी में इंजीनियर थे। उनकी मौत के बाद परिवार की जिम्मेदारी जब योगेश पर आई तब वह महज 16 वर्ष के थेकोई काम न सूझने पर उन्होंने अपने मित्र के साथ मुंबई का रुख किया। इसकी वजह बुआ के बेटे से मदद की उम्मीद थी।जो फिल्मों के लिए लिखते थे। लेकिन वहां निराशा हाथ लगी। फिर भी योगेश ने हिम्मत नहीं हारी। कई तरह के काम किए।गीतकार गुलशन बावरा से मुलाकात हुई। उनसे प्रभावित होकर फिल्मों में गीत लिखने शुरू किए। पहली बार 1962 में फिल्म 'सखी रॉबिन में लिए उनके छह गीत शामिल किए गए।मन्ना डे की आवाज में एक गीत तुम जो आजाओ...सराहा गया, लेकिन गीत तुम जो आजाओ...सराहा गया, लेकिन कोई ज्यादा हलचल नहीं हई। क्योंकि यह दौर शैलेंद्र, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायुनी, लिमिती गजेंट का और बालशन बावरा का था। सभी गीतकारों के अपने अपने गीतकारशालेकिनविय भाना रास्ता तलाश ही लेता है। योगेश के लिए भी भविष्य ने रास्ता बनाया। वर्ष 1967 फणीश्वरनाथ रेण की कहानी मारे गए गलफाम पर शैलेंद्र फिल्म बनाई तीसरी कसम' और परंपरागत यह फिल्म सराही खब गई लेकिन बडे-बडे नामों के होने के बाद भी दर्शकों को अपनी ओर नहीं खींच पाई।इसकी असफलता ने शैलेंद्र को काफी तोड दिया। 14 दिसंबर 1967 में 46 वर्ष की अल्पाय में उनकी मौत हो गई। शैलेंद्र के जाने का सदमा उनके चहेते संगीतकारों को भी लगा।इन्हीं में एक महान संगीतकार थे सलिल चौधरी। सलिल को योगेश के गीतों में शैलेंद्र का दर्शन नजर आया। साधारणशब्दों में बात कहने और कंपोज धुनों पर गीत लिखने की काबिलियत भा गई। उन्होंने अपनी फिल्मों के गाने योगेश से लिखवाने का वायदा किया। जल्द ही उन्हें ऋषिकेश मुखजी का 1971 में फिल्म 'आनंद' में संगीत देने का मौका मिला। उन्होंने योगश को ऋषिकेश मुखर्जी से मिलवाया। फिल्म के लिए योगेश और गुलजार ने गीत लिखे।दोनों के तीन-तीन गीत फिल्म में रखे गए।सभी सराहे गए। इसमें योगेशका गीत, कहीं नजिटल जाए और गलजार का. मैंने तेरे लिए ही दूर जब दिन ढल जाए और गुलजार का, मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने...खासा लोकप्रिय हुआ।हा योगेश के गीत कहीं दूर जब...को मुकेश और लता दोनों ने अलग- अलग आवाज दी । फिल्मखासा सफल हुई।इसका वजह राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन का अभिनय तो था ही। ऋषिकेश की पटकथा और योगेश के गानों के साथ सलिल चौधरी के संगीत का भी योगदान माना गया। कई लोगों के लिए मील का पत्थर बनी इस फिल्म को बेस्ट फीचर फिल्म का राष्ट्राय पुरस्कार मिला। फिल्म से जुड़े हर शख्स को सम्मान मिला। राजेशखन्ना और अमिताभ बच्चन भी बेस्ट एक्टर और बेस्ट सपोर्टिंग का पुरस्कार दिया गया। बेस्ट डायलॉग के लिए गुलजार भी पुरस्कृत हुए और बेस्ट कहानी के लिए ऋषिकेश मुखजी भी। अगर किसी को कुछ नहीं मिला तो वह थे योगेश।धूम मचाने वाले गीत फहादूरजबादनढलजाएक बावजूद उनका झालाखाला रही। हां उन्हें पहचान जरूर मिली। बड़े बड़े निर्माता और संगीतकार उन्हें अपने साथ लेने को तैयार हो गए।हालांकि ऋषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी के साथ उनकी ज्यादा निभी। मन्नू भंडारी की कहानी यही सच है पर 1974 में बासचटर्जी ने फिल्म बनाना शरू किया। नाम रखा गया'रजनीगंधा' । इसका संगीत भी सलिल चौधरी के हिस्से आया और जाहिर है गीत लिखने की जिम्मेदारी योगेश को मिली। फिल्म को फिर दर्शकों का प्यार मिला। विद्या सिन्हा और अमोल पालेकर के साथ दिनेश ठाकुर के अभिनय को भी सराहा गया। निर्देशक बास चटर्जी को बेस्ट फिल्म का भी सराहा गया। निर्देशक बास चटर्जी को बेस्ट फिल्म का क्रिटिक अवार्ड दिया गया। मुकेश को बेस्ट प्लेबैक सिंगर का अवार्ड मिला और गीत था योगेश का लिखा...कई बार यूं भी देखा है। लता मंगेशकर की आवाज में योगेशका दूसरा गाना रजनीगंधा फूल तुम्हारे...भी दर्शकों की जुबान पर चढ़ा। लेकिन सराहे जाने के बाद भी योगेश की झोली फिर खाली ही रही। अगले ही वर्ष 1975 में ऋषिकेश मुखर्जी अमिताभ बच्चन को लेकर आए फिल्म 'मिली' में। योगेश को गीतों की जिम्मेदारी मिली और उनकी जोडी बनी संगीतकाररएसडी वर्मन के साथ योगेश ने कोई कसर नहीं छोड़ी फिल्म के लिए बेहतर गीत लिखने में। उन्होंने आयेतम याद मो. बड़ी सनी सनी है. मैंने कहा फूलों से...जैसे गीत लिखे। सचिन देव वर्मन के संगीत से सजी यह अंतिम फिल्म पर भी दर्शकों नेप्यार उडेल दिया।जया बच्चन को बेस्ट एक्टर का फिल्म फेयर अवार्ड मिला। लेकिन योगेश को फिर सिर्फ सराहना मिली शताईनदी औरयोगभी भासा का सामोपीये करते रहे। अगले वर्ष 1976 में बासु चटर्जी फिल्म 'छोटी सी बात' लेकर आए। इसके सभी गीतों में योगेश को साथ मिला सलिल चौधरी के संगीत का। नए गायक यसुदास की धिरी के संगीत का। नए गायक यसुदासका आवाज में जानेमनजानेमन को युवा पीढ़ी ने अपने होठों से लगा लिया। फिल्म सफल रही। बासु चटर्जी वर्ष 1979 में ल्म सफल रही जायचटर्जी व 1000 फिल्म 'बातों बातों में लाए।इसे राजेश रोशनने संगीतबद्ध किया और गीत लिखे योगेश और अमित खन्ना ने। योगेश गीत कहां तक ये मन को अंधेरे छलेंगे और न बोले तुमन मैंने कुछ कहा को फिर से युवा पीढ़ी का प्यार मिला। बासु वर्ष 1979 में एक और फिल्म 'मंजिल लाए। इसमें योगेश गीतों को आरडी वर्मन ने संगीत में पिरोया।रिमझिम गिरे सावन.... तुम हो मेरे दिल की धड़कन...और किशोर कुमार को सराहा गया। योगेश के शब्दों का जादू सभी के सिर चढ़ कर बोल रहा था। लेकिन योगेश हमेशा की तरह शोर शराबे से दूर खामोश थे। योगेश ने दूसरी कई फिल्मों भी चर्चित गीत लिखे लेकिन 90 का दशक आते आते संगीत में आये बदलाव को स्वीकार नहीं कर पाए। गुणवत्ता समझौता न करने की वजह से उन्होंने खामोश रहना बेहतर समझा।योगशका आखिराबड़ा रिलाज सावन कुमार का फिल्म बवफा सनम 2020 का दिन उनके लिए अंतिम साबित हुआ।वह दूसरे रिश्तों की तलाश और रजनीगधा फूल महकान दूर निकल गएरा गाता मदनापरानबालबाग श्रद्धांजलि...।


कुछ चर्चित गीत


जिंदगी कैसी है पहेली हाय ही


कहीं दूर जब दिन ढल जाए


कई बार यूं हीं देखा है नजाने क्यूं होता है


ये जिंदगी के साथ


रजनीगंधा फूल तुम्हारे महकें


यूं ही जीवन में बड़ी सूनी सूनी है


नबोले तुम न मैंने कुछ कहा


रमाझमागर सावन


अमृत विचार से साभार


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