रामपुरका प्रसिद्ध मेला बाग़ बेनजीर

 


नवाब कल्बे अली खां (1835-1887 ई०) बहुत ही आधुनिक विचारों के शासक थे। सन 1865 ई. में अपनी ताजपोशी के बाद से ही उन्होंने रामपुर को तरह-तरह से संवारने, सजाने और कारोबार को बढ़ाने के प्रयत्न शुरू कर दिये थे। इसी क्रम में मार्च सन 1866 ई. में बेनजीर का मेला शुरू किया। यह मेला मार्च महीने के आखिरी सप्ताह में शुरू होता था और महीने के आखिर में खत्म होता था। जब तक मेला लगा रहता नवाब साहब का क़याम (ठहरना) बाग़ बेनजीर की दो मंजिला कोठी में होता था। इस कोठी (कोठी बेनज़ीर) के सामने एक गहरी और लम्बी चौड़ी नहर थीइस कोठी को सन् 1816 ई० में नवाब अहमद अली खां ने शहर से तीन मील की दूरी पर बनवाया था और उसके चारों तरफ़ बाग़ लगवाया था। इस जगह की वजह से इस मेले का नाम मेला बाग़ बेनजीर रखा गया। नवाब कल्बे अली खां ने जिन दिनों यह मेला शुरू किया रामपुर तक रेलवे लाइन नहीं थी बल्कि मुरादाबाद स्टेशन से उतर कर रामपुर आना पड़ता था, इसके बावजूद मुम्बई, कलकत्ता, देहली, लखनऊ और दूसरे बड़े शहरों से व्यापारी मेले में अपना सामान लाते थे। नवाब साहब भी हिन्दुस्तान के मशहूर लोगों और व्यापारियों को मेले में आने के लिए निमंत्रण भेजते थेमेले में एक तरफ दुकानें होती थीं और एक तरफ अखाड़े होते थे जिनमें बिनवठ, तलवार, पट्टे आदि के करतब दिखाये जाते और मेले के समाप्त होने पर करतब दिखाने वाले अखाड़ों को नवाब साहब की ओर से पचास-पचास रुपया पुरस्कार दिया जाता मेले में मनोरंजन के लिए नवाब साहब ने दस गज़ ऊंची फिसलन बनवाई थी जिसमें एक चिकना पत्थर लगाया गया था। फिसलन के ऊपर एक थैली पांच रुपया रखकर लटका दी जाती थी और ऐलान कर दिया जाता था लोग फिसलन पर चढ़कर थैली ले लें। लोग फिसलन पर चढ़ने की कोशिश करते थे फिसल फिसल कर गिर जाते थे, यह दृश्य देखकर लोगों को अत्यन्त मज़ा आता था। फिसलन के करीब चारबैत गाने वालों टोलियां दिन-रात डफ पर चारबैतें गाती उन्हें नवाब साहब की तरफ से खाना मिलता था और मेले के समापन पर हर एक टोली सौ-सौ रुपये इनाम दिया जाता था। इसी दास्तान कहने वाले एक तरफ बैठकर दास्तान सुनाते थे उन्हें भी इनाम दिया जाता था। मेहमानों के लिए खेमे लगाये जाते थे। साहबजादे, नवाबजादे, शहर के गणमान्य व्यक्ति मेले में आते थे। मेले में फौज और पुलिस की उचित व्यवस्था होती थी और करतब दिखाने वालों के लिए सारी सुख सुविधाएं उपलब्ध करायी जाती थीं। नहर के दोनों तरफ दो मंच बने होते थे। एक मंच पर संगीत, नृत्य होता था और दूसरे मंच पर नमाज़ अदा की जाती थी। नमाज़ अदा करने के समय संगीत की मनाही थी। मेले में जुआ खेलने पर और शराब पीने पर पाबंदी थी। मेले के आखिरी दिनों में कोठी बद्र मुनीर पंखे का जुलूस बड़ी धूमधाम से निकलता जिसमें ऊंट सवार, घोड़े सवार और रियासत की सारी फौज अपने मरतबे के साथ जुलूस चलती थी। तमाशा देखने वाले दोनों तरफ हाथ बांधे अदब से खड़े रहते थे। मेले की आखिरी रात जश्न की रात होती । नवाब साहब रात के 10 बजे अपने मुसाहिबीन के साथ नाव में सवार होते, नहर दोनों तरफ संगीतकार और कलाकार नृत्य करने वाले अपने फ़न का प्रदर्शन करतेइस तरह से 10 से 12 बजे तक नवाब साहब की नाव एक कोने से दूसरे कोने तक तैरती रहती और 12 बजे कार्यक्रम ख़त्म होता था और आखिर में आतिशबाजी होती थी। 22 साल तक यह मेला बड़ी धूमधाम होता रहा। आखिरी मेला 1887 ई० में आयोजित किया और इस मेले के दौरान 31 मार्च 1887 को उनकी मृत्यु हो गयी। रामपुर रज़ा लाइब्रेरी में मीर यार अली साहब जो 'जान साहब' के नाम से प्रसिद्ध की एक हस्तलिखित किताब जिसका नाम मुसद्दस जान साहब या मुसद्दस बेनज़ीर" मौजूद है। उसमें उन्होंने मेला बाग बेनजीर की पूरी तफ़सील शायरी की शक्ल में लिखी । इस किताब में 37 पेज हैं और 63 चित्र त्र जिसमें करतब दिखाने वाले, दुकानदार, दास्तान कहने वालों, नृत्य करने वालों एवं गाने गानों वालों की पूरी तफ़सील और उनका नाम दर्ज है। उदारहण के तौर पर शायरों में - असीर लखनवी, अमीर मिनाईजलाल लखनवी, दाग़ देहलवी आदि के नाम हैं। सरकारी कर्मचारियों में वज़ीर अली खां खानसामा, शेख़ वजीहुजामा, मीर मुजावर अली, मीर फिदा अली, अच्छे साहब (सौज़ खां), मुजफ्फर हुसैन के नाम हैं। दास्तान कहने वालें में – हक़ीम असगर अली, मीर अहमद अली, कासिम अली, मीर नवाब, मुंशी अम्बा प्रसाद, गुलाम मेंहदी, गुलाम रज़ा आदि के नाम हैं, संगीतकारों में – बहादुर हुसैन खां, अमीर खां (बीनकार), हस्सू (गवय्या), रहीम उल्ला खां, अजीमुल्ला (गवय्या और तबलची), काजिम अली खां (कव्वाल), हैदर बख्श (सारंगी नवाज), अमीर अली (शहनाई नवाज़) इत्यादि के नाम हैं। तवायफों में - दरोगा महबूब जानलज्जत बख्श, नौरत्न, मम्मी, अल्ला रक्खीनन्ही कलकत्ते वाली, अज़ीजन, हैग़न जानबन्दी जान इत्यादि का नाम है। यह किताब 'मुसद्दस तहनियते जश्ने बेनज़ीर' के नाम से हिन्दी/उर्दू में रामपुर रज़ा लाइब्रेरी से सन 1999 में प्रकाशित हो चुकी है। मोहम्मद अली खां 'असर रामपुरी' ने अपनी प्रकाशित किताब 'मुसद्दस तहनियते अपना प्रकाशित किताब 'मुसद्दस तहनियते जश्ने बेनज़ीर' में मेले की तफ़सील के साथ एक नक्शा शामिल किया है जिसमें दर्शाया गया है कि कोठी बेनजीर कहां है, कोठी बद्र मुनीर कहां है, कदम शरीफ कहां है, नहर और फिसलन कहां थीं, मुखतलिफ़ खेमे कहां लगे होते थे, नमाज पढ़ने तथा नृत्य करने का चबूतरा कहां था, पंखे के जुलूस का रास्ता कौन-सा था। बाग़ बेनज़ीर अभी तक मौजूद है और वहां कुछ निशानियां भी अब तक मौजूद हैं, इसीलिए यह नक्शा मेले के सारे हालात को जानने के लिए बहुत अहम है। नवाब कल्बे अली खां ने 22 साल तक इस मेले का आयोजन कर और मशहूर, रेख्तीगो शायर जान साहब ने मुसद्दस बेनज़ीर लिखकर इस मेले को उतना मशहूर नहीं किया जितना दाग़ देहलवी ने अपनी मसनवी 'फरियादे दाग़' लिखकर इसको मशहूर किया। सच यह है इस मसनवी ने मेला बाग़ बेनज़ीर को अमर कर दिया। नवाब कल्बे अली खां के बाद उनके बेटे नवाब मुश्ताक अली खां ने भी 2 साल तक मेले को जारी रखा मगर यह गणेशघाट पर आयोजित होता था और उसे मेला बाग़ बेनजीर ही कहा जाता था। उनकी मृत्यु के बाद यह सिलसिला बन्द हो गया। सन 1942 में नवाब रज़ा अली खां ने इस मेले को नुमाइश के नाम से पनवड़ियां में शुरू किया तब से नुमाइश का यह सिलसिला रूकरूककर अब तक जारी है।


अमृत विचार से साभार


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