रानी दुर्गावती का जौहर.

राजपूत काल का इतिहास युद्धों और बलिदानों की गाथाओं से भरा पड़ा है। राजपूतों के बारे में एक बात प्रचलित है कि उन्हेंजीते जीछुआ नहीं जा सकता था ।युद्ध में पराजय होने की दशा में पुरुष रणभूमि में वीरगति को प्राप्त होते हैं तो वहीं स्त्रियां खुद को अग्निकुंड के हवाले कर जौहर कर लेती हैं। अलाउददीन खिलजी के समय में रावल रतन सिंह की पराजयपर चित्तौड़ की रानी पद्मिनी के जौहर की कहानी अत्यधिक प्रसिद्ध है।6 मई के दिन रायसेन के शासक शिलादित्य की रानी दुर्गावती ने 700 राजपूत स्त्रियों के साथ रायसेन के किले में जौहर किया और इतिहास में अमर हो गईं।



मुगलों के शासन के शुरुआती दौर में रायसेन मालवा का एक भाग था और उस समय मालवा का सुल्तान था-महमूद खिलजी। सन 1531 में गुजरात के शासक बहादुरशाह की अगुवाई में उसकी सेना ने मालवा पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। महमूद खिलजी को गद्दी से उतारकर बंदी बना लिया गया और संभवतः उसी समय मालवा को (रायसेन समेत) गुजरात के राज्य में मिला लिया गया तथापि उज्जैन, आष्टा और भेलसा रायसेन के राजपूत शासक शिलादित्य (सिलहादी) की जागीरें बने रहे। सुल्तान बहादुर शाह ने सिलहादी के द्वारा चित्तौड के राणा सांगा के सहयोग से बगावत किये जाने के संदेह में उसे धार के पास गिरफ्तार कर लिया और उनकी सेना को तितर-बितर कर दिया। यह सूचना पाकर सिलहादी का पुत्र भूपत अपने पिता की सहायता के लिए निकला किन्तु उसे भी उज्जैन के पास खदेड़ दिया गया और मजबूरन उसे चित्तौड़ भागकर शरण लेनी पड़ी


बहादुरशाह भेलसा जीतता हुआ रायसेन की तरफ बढ़ा। उस समय रायसेन सिलहादी के भाई लक्ष्मण सेन के अधिकार था, लक्ष्मण सेन पराजित हुआ और उसे किले में ही शरण लेनी पड़ी और बहादुरशाह ने रायसेन के किले की लंबी घेराबंदी डाल दी। यह बात अप्रैल 1532 ई. की है। इतिहास कहता है कि रायसेन किले का पतन अवश्यंभावी देख राजा शिलादित्य ने इस्लाम कुबूल कर लिया और सलाहउद्दीन नाम धारण कर सुल्तान बहादुर शाह को रायसेन किला सौंपने का प्रस्ताव दिया। ऐसा करने का उसका उद्देश्य यही समझ आता है कि वह संभवतः अपनी सेना को कत्लेआम से बचाना चाहता था। शिलादित्य (सिलहादी) के भाई लक्ष्मण सेन ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और मेवाड़ से सहायता आने इंतजार करने लगा किन्तु मेवाड़ से सहायता न आती देख उसने इस शर्त पर किला सौंपने का प्रस्ताव दिया कि राजासिलहादी को मुक्त कर दिया जाए। सुल्तान बहादुर शाह ने इस प्रस्ताव को मानकर सिलहादी को मुक्त कर दिया। सिलहादी किले में लौट आया किन्तु किला बहादुरशाह को सौंपा नहीं गया। सिलहादी की रानी दुर्गावती जो चित्तौड़ के राणा सांगा की पुत्री थीं, वे इस अपमान को सहन नहीं कर सकीं। उन्होंने राजपूतों को अपनी आन के लिए अपना सर्वश्व समर्पित करने के लिए प्रेरित किया। उनकी प्रेरणा से कांतिविहीन हो चुके राजा सिलहादी और राजपूतों में नए जोश का संचार हुआ और वे युद्ध के लिए किले से बाहर निकल पड़े। किले की दुर्गवंदी टूटने और शत्रुओं के किले के भीतर प्रवेश करने पर रानी दुर्गावती ने आज से ठीक 488 वर्ष पहले 6 मई 1532 को अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए लगभग 700 राजपूत स्त्रियों के साथ खुद को अग्निकुंड के हवाले कर जौहर कर लिया और इतिहास में अमर हो गईं। 10 मई 1532 ई. को राजा शिलादित्य (सिलहादी) के युद्ध मे वीरगति को प्राप्त होते ही रायसेन का ये महान किला बहादुरशाह के हाथों में चला गया।


 


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