श्री श्री 1008, अनंत विभूषित श्री #जुगलानंद_परमहंस जी महाराज" की अवधूत नरसिंह समाधि


उन्नीस सौ की शुरुआत के ललितपुर के साथ एक ऐसे संत की चर्चा होती, जिन्होंने चमत्कारी होते हुए भी कभी अपने प्रचार-प्रसार और महिमा को जन सामान्य तक पहुंचाने से सर्वथा परहेज किया। उन्होंने कभी अपनी कोई फोटो भी नहीं निकलने दी। एक बार एक फोटोग्राफर ने उनकी फोटो ली। बाद में जब निगेटिव को देखा तो पता चला कि फोटो आई ही नहीं।



वे परम आत्मा होते हुए भी अपने को सामान्य ही दिखाते रहे। जाति, वर्ग, कुल और साख को वे कभी स्वीकार नहीं करते थे।

उनका जन्म कब और कहां हुआ, वह कौन थे, यह किसी को ज्ञात नहीं है। बस इतना ही विदित है कि वे भगवान विष्णु के परम उपासक थे। और हर क्षण नारायण बोलते रहते थे।उनके चमत्कारों के किस्से आज भी ललितपुर महरौनी में किस्सागोई के प्रमुख हिस्से होते हैं ।

महरौनी में उनकी कुटी व आश्रम मुड़िया गांव में , ललितपुर में कुटी और आश्रम एक रावतयाना में नहर के पास एक सुमेरातालाब के किनारे था ।एक कुटी और आश्रम मसौरा कलां में वर्तमान पालीटेक्निक के सामने था ।

........ललितपुर में उनका आगमन झांसी के डढ़ियापुरा से हुआ था, डढ़ियापुरा में भी उनका आश्रम था।

वे दिगम्बर वेश में और अक्सर राख लगाये रहते थे परन्तु आबादी में आने पर लंगोटी लगा लेते थे ।मौसम का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था ।वे पशु पक्षियों से तो बातें करते ही थे और अक्सर शून्य में आत्माओं से भी बातें करते थे ।

उनके हर आश्रम में गहरे गड्ढे में संकरी सीढ़ियों दार समाधिस्थल थे जहां महाराज पन्द्रह वीस दिनों तक समाधिस्थ रहते थे ।उनके आश्रमों में सांप विच्छु गोह अधिकार पूर्वक रहते थे लेकिन किसी को काटते नहीं थे ।

महरौनी आश्रम मुढ़िया गांव जो अब सरकारी कागजात में मुड़िया परमहंस दर्ज है कि जमीन महरौनी के ठाकुर,ब्राह्मण,कायस्थ,जैन भक्तों ने दान में दी थी ।

एक सितम्बर उन्नीस सौ चार को लिखे एक दस्तावेज में कुछ लोग लिखते हैं कि परमहंस महाराज यहां चार साल से काविज हैं यानि साल उन्नीस सौ में महरौनी में आश्रम स्थापित हो चुका था और इसी दस्तावेज में उनका निवास स्थान डढ़िया पुरा झांसी लिखा गया है यानि इसके पहले वे झांसी आ चुके थे।



देश की आजादी से पहले का दौर था। ब्रिटिश आर्मी के सैनिक झांसी की कैमासन टौरिया पर निशानेबाजी का अभ्यास करने जा रहे थे। सैनिकों के वहां पहुंचने से पूर्व टौरिया के बीचों-बीच एक योगी अपनी योग साधना में लीन था। सैनिकों ने सोचा कि योगी की उपस्थिति में गोलीबारी करना संभव नहीं है। उन्होंने योगी से कहा कि आप किसी अन्य स्थान को चले जाएं, गोलीबारी का अभ्यास होने वाला है। ऐसे में आप को खतरा हो सकता है। योगी ने उत्तर दिया कि आप अपना अभ्यास करें और मुझे अपना करने दें। खतरे की कोई बात नहीं है। कहते हैं कि सायं सायं चलती गोलियों के बीच उन्होंने अपनी योगसाधना जारी रखी। सैनिकों ने दांतों तले उंगलियाँ दबा लीं।

सैनिकों ने अपने अधिकारी को इस घटना की जानकारी दी। अधिकारी ने जब पूरी बात को समझा तो वह योगी के सामने नतमस्तक हो गया। उस अधिकारी की पत्नी को लकवा या गठिया की गंभीर समस्या थी। दूसरे दिन वह किसी तरह अपनी पत्नी को लेकर आया और योगी के सामने गिड़गिड़ाने लगा। योगी ने कहा कि ना तो मैं भगवान हूं ना ही कोई डॉक्टर, फिर आप के यहां आने का मतलब क्या है ? अधिकारी ने निवेदन किया कि आप चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं। योगी ने थोड़ा सख्त हो कर कहा कि आप ने अपनी पत्नी को कभी चलने ही नहीं दिया। उनको थोड़ा चलाइए। अधिकारी ने दुखी होकर कहा कि जब वह चल ही नहीं सकती, तो मैं उसे कैसे चला सकता हूँ। योगी ने पुनः कहा कि उसे चला कर तो देखिए!! अधिकारी ने अपनी पत्नी को चलाया। कहते हैं कि उसकी पत्नी चलते हुए कैमासन की टौरिया उतर कर अपने घर गई। यह योगी कोई और नहीं श्री जुगलानंद परमहंस जी ही थे।

कैमासन की टौरिया के बाद श्री परमहंस जी ने झांसी को अपना स्थाई प्रवास बनाया। सदर का मरघटा वह स्थान था, जहां पर उन्होंने अपनी कुटी बनाई। वह स्थान आज भी मौजूद है।

कालांतर में झांसी के बाद उन्होंने मसौरा में भी अपना एक आश्रम वनाया। यहां उनके भक्त बंशीधर ब्राहम्ण नम्बरदार हो गये थे और उन्होंने ही भूमि दान की थी

ललितपुर की तालाब की कुटी उनकी पहले से ही थी और रावतयाना कुटी हेतु उन्हें भूमि 29अगस्त1949ई को उनके भक्त और शहर के सदर नम्बरदार चौवे बद्री नारायण ने दी थी ज्ञातव्य हो कि चौवे बद्रीनारायण ललितपुर के नगरपालिका चैयरमेन रहे और बहुत सम्मानित शख्शियत चौबे हरिहरनारायण के पिता जी थे ।

इसके अलावा पट्टै का सम्पूर्ण खर्चा और जीवन भर लगान देने का संकल्प तात्कालीन ललितपुर के बड़े ठेकेदार वनवारी लाल जयसवाल ने लिया था जो नगरपालिका के पूर्व अध्यक्ष सुभाष जायसवाल के पूर्वज थे ।

उनका तप और योग कठोर था। सर्दियों में घंटों, पूरे दिन, पूरी रात, गर्दन तक पानी में खड़े रहकर और गर्मियों की दोपहर में अपने चारों ओर आग जलाकर बीच में एक हाथ में दीपक लेकर, एक पैर पर खड़े होकर तप करते थे। उनकी तपस्या का कोई समय तय नहीं था। कभी हफ्तों तक बैठे रहते तो कभी हफ्तों तक लेटे रहते। महरौनी में उनकी कुटी में 2 फीट का एक वर्गाकार का स्थान था, जहां से नीचे उतरा जा सकता था। नीचे उतरकर जमीन में एक सुरंग सी बनी थी, जो आगे चलकर एक छोटी सी जगह में खत्म होती थी। वहां इंसान सिर्फ बैठ सकता था। वे वहां उस जगह में बैठ जाते और कुटी में उस स्थान पर, जहां से उतरा जाता था, पत्थर लगा दिया जाता था। जहाँ वे बैठते थे, वहां न तो हवा होती थी और न ही प्रकाश। ऐसे में वे बिना भोजन और पानी के दो-तीन माह तक बैठे रहते थे। निर्धारित समय पर वे पूर्णतः स्वस्थ बाहर निकलते थे।



एक बार परमहंस महाराज ने सेवकों से कहा कि बाहर जाकर देखो कौन आ रहा है? जो लोग वहां उपस्थित थे, उन्होंने कुटी के मुख्य द्वार पर जाकर देखा, वहां पर कोई नहीं था। लोगों ने वापस आकर बताया कि वहां कोई नहीं है। महाराज ने कहा कि दो तीन मील आगे जा कर देखो। पास की रियासत के एक राजा अपने लाव लश्कर के साथ उनके दर्शन के लिए आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि जाकर उन्हें बता दो कि आप राजा हैं और मैं एक मामूली आदमी। उनके पास हाथी घोड़े हैं, सेना और वैभव है। मेरे पास तो पहनने को एक लंगोटी भी नहीं। कहते हैं कि राजा आकर कुटी में घंटों खड़े रहे लेकिन उन्हें महाराज के दर्शन नहीं हुए।

एक दिन महाराज सफेद चादर ओढ़कर कुटी में लेटे थे। सेवक बाहर बैठे हुए थे। कुछ देर बाद कुटी के भीतर से जोर से हंसने की आवाज आई। बाहर बैठे लोगों को आश्चर्य हुआ, पर हिम्मत न हुई कि महाराज को जगा सकें। दो तीन घंटे बाद जब महाराज उठकर बैठे, तो एक सेवक ने साहस करके महाराज से नींद में हंसने का कारण पूछा। इस पर महाराज ने हंसने वाली बात को सिरे से नकार दिया, पर जब लोग पीछे ही पड़ गए, तब उन्होंने बताया कि वे हरिद्वार में साधुओं के बीच एक भोज में शामिल थे। जो संत वहां भोजन परोस रहे थे, झुकने पर उनका का लंगोट खुल गया। संत समाज हंसने लगा, तो उन्हें भी हंसना पड़ा। बाद में कभी जब इस बात का पता लगाया गया, तो सिद्ध हुआ कि घटना वाले दिन मसौरा वाले परमहंस जी हरिद्वार में होने वाले संतों के भोज में उपस्थित थे।



कुटी में बहुत कम लोग ही महाराज से मिलने या दर्शन के लिए आते थे। यदि कोई नया व्यक्ति कभी आता था, तो महाराज पहले से आने वाले लोगों को गुस्सा किया करते थे, कि नए लोगों को बुलाने की आवश्यकता है।

उनके कुछ किस्से तो काशी के बाबा कीनाराम की याद दिलाते हैं ,उनके आश्रम में रोज आने बारे एक पुलिस हवालदार से वे बोले कि तुम रोज क्यों आते हो तुम्हारे भाग्य में सन्तान सुख नहीं है वह चमत्कृत रह गया कि महाराज ने मेरे मन की बात कैसे जान ली । हालांकि उसके आग्रह पर महाराज ने उसे पुत्र दिया और कहा कि उसकी आयू अल्प है ।

......उनके भक्तों में हमारा परिवार भी है महरौनी में आश्रम की देखरेख को एक वसीयत जो उन्होंने की थी उसमें मेरे दो बाबाओं श्री कुन्दन लाल सोजना और सुन्दर लाल नैकौरा का नाम भी शामिल था ।

मेरी मां सुनाती थीं कि शादी के वाद मेरे पिता की तबियत काफी खराब हो गयी और वे मरणासन्न हो गये और सब इलाजों से हारकर उन्हें महरौनी की कुटी पर महाराज के पास ले जाया गया । महाराज जी ने कहा दी कि इनकी आयू खत्म हो गयी है मैं कुछ नहीं कर सकता तब पिताजी के चाचा यानि मेरे बाबा महाराज के चरणों में लेट गये और फिर एक टांग पर खड़े हो गये कि इन्हें किसी तरह बचाओ । उन्होंने कहा कि सुन्दर लाल तुम मुझ से जबरन गलत कराने को कहा रहे हो मेरे अधिकार से अधिक क्यों कि मुझे सृष्टि के नियम से छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए ।खैर महाराज बोले कि पहले तो इस बालक को तुम अपना मानसपुत्र मान लो क्यों कि इनके पिता के हिसाब से इनकी आयू खत्म है और फिर पिता की भांति इसका झूठा भी खाओ ।

उस रात बाबा सुंदरलाल की बहिन यानि पिता जी की बुआ और मेरे मामा भी बहीं मौजूद थे वे घटनाओं के वारे में वताते थे कि काली रात में भयंकर आधी चलने लगी ।लकड़ी की मियारी पर दर्जनों सांप झूलने लगे ।विल्ली कुत्ते रोने लगे ,लडैया (सियार)चिल्लाने लगे ।आश्रम का घोड़ा एक छोटी सी खिड़की से आश्चर्यजनक रुप से वाहर निकल गया ।सुबह सब कुछ सामान्य था लेकिन परमहंस महाराज जी ने बाबा सुंदरलाल से कहा की तुमने प्रेमवश मुझ से ईश्वरीय कृत्य में छेड़छाड़ का जो काम करा लिया है उसे अब मुझे भोगना पड़ेगा ।

10अगस्त1948को उन्होंने मसौरा कुटी का मुख्तयार उदय बहादुर राठौर जो उनके भक्त थे को नियुक्त किया था ।

उनके भक्तों में ललितपुर के हरदास तनय देवकीनन्दन ब्राह्मण, बंशीधर नम्बरदार मसौरा कलां, भगवान दास ब्राह्मण घटवार,देवी प्रसाद श्रीवास्तव नैकोरा आदि के साथ ललितपुर महरौनी हजारों लोग थे ।और पन्थ या कोरी समाज के तो कुछ परिवार उनके अनन्य भक्त थे जो उनके आश्रमों पर ही रहा करते थे। लेकिन ताज्जूव है कि हर भक्त के पास उनके चमत्कारी कृत्यों की कोई न कोई पारम्परिक गाथा है ।

कहते हैं कि महाराज की आंखों के पलक इतने बड़े और बोझिल थे, कि वे उन्हें लगातार झपक नहीं सकते थे। एक दिन उन्होंने मेरे ताऊ जी से कहा कि हरिद्वार के एक प्रसिद्ध ज्योतिष को पत्र लिखें और और उनसे पूछें कि महाराज की कितनी आयु शेष है? महाराज के द्वारा बताए गए पते पर पत्र लिखा गया, हरिद्वार से उसका उत्तर प्राप्त हुआ, जिसमें लिखा था कि श्री परमहंस जी को वे भली भांति जानते हैं। वे अपनी मर्जी से आयु कम ज्यादा कर सकते हैं। जब तक चाहें तब तक धरती पर रह सकते हैं।



1954 के अंत में महाराज ने घोषणा कर दी कि 16 मई 1955 को वे स्थाई और हमेशा के लिए समाधि लेंगे। सेवक दुखी हो गए। उन्होंने विश्वास दिलाया कि यदि आप सभी विश्वास रखेंगे, तो सदैव मुझे अपने पास ही पाएंगे। नियत समय पर कैसे कैसे, क्या क्या करना है, उनकी समाधि के लिए उन्होंने पूरी विधि अपने सेवकों को पहले ही समझा दी। 16 मई 1955 को झांसी की कुटी में उन्होंने स्थाई समाधि ली। उनके समाधि के प्रकार को "अवधूत नरसिंह समाधि" के रूप में जाना जाता है, जो बहुत ही कठिन और विचित्र मानी जाती है।



उनके सीमित श्रद्धालु परिवार आज भी उन पर अटूट विश्वास और श्रद्धा रखते हैं। परोक्ष रूप से वे आज भी भक्तों के साथ हैं।

देवेन्द्र गुरु ललितपुर की एफ.बी. से


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