उपन्यास अंश- 'बैरी'

गांव की बइरै मेले जाएं,कांख में मोड़ा हां कखियाऐं!'

 

         बंडी,नेकर और गले पर गेरुआ स्वाफी लपेटे भगवती अपने जुते खेत में पानी लगाते बुंदेली लोककवि 'मंचल' रचित लोकगीत की पंक्तियां गुनगुना रहा था।उसके हाथ और पैर गीली मिट्टी से सने हुए थे। सूरज देवता पूरब में प्रकट हो चुके थे।कार्तिक मास की रात की ठण्डी हवा से सुबह की धूप की आंच शरीर को अच्छी लग रही थी। बच्चों के साथ चरखारी के 'गोवर्धन मेला' में जाने की ललक ने भगवती की  रात की सारी थकान दबा रखी थी। चार हरैया खेत सींचने को और बचा था। गर्मियों के खाली दिनों में उसने अपने खेतों को सींचने की दृष्टि से मेड़ों व खेतों में जो बरा बना लिए थे, वह अब सिंचाई के समय उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। नहीं तो,नाहक ही दो रोज अभी और खेत सींचने पड़ते।

 

         भगवती रात भर  सोया नहीं था। घुटनों तक पानी में रहने से शरीर में ठंड-सी बैठ गई थी। बीड़ी पीने की तलब कई बार हुई थी, परंतु राठ में स्थित परम् पूज्य स्वामी ब्रह्मानंद जी की समाधि में ली गई शपथ को वह भला कैसे तोड़ सकता था। बीच रात में एक बार तो जब उससे रहा नहीं गया, तो वह  बलदेव के खेत की मेड़ पर बने मचान में बलदेव के दद्दा की खटोली तक हो आया था। तमाखू और हुक्का दोनों यथावत थे, किंतु सामूहिक सौगंध की याद आते ही वह वापस अपने खेत में आकर पानी देने लगा।

 

 'अरे! जब अच्छे-अच्छे नशेड़ी,जो गांजा-दारु और पता नहीं क्या-क्या नशा करते थे।उन्होंने अपना-अपना नशा स्वामी जी की समाधि के सामने कसम लेकर छोड़ दिया तो वह तो केवल बीड़ी का नशा करता था। नशा क्या शोकिया पीते-पिलाते बीड़ी उसकी लत बन गई थी।' 

 

      'बिंदन अलग उससे नाराज रहती थी। जिस दिन से उसने बीड़ी छोड़ी थी, उसी दिन से  वह उस पर अपना सारा प्यार उड़ेले हुए हैं। उसने कहा भी था, "काहे बिंदन अगर मोहे जो पता होतो कि ते मोरे बीड़ी छोड़न से इत्ती खुश हुए तो मैं साची कह रहो ई ससुरी हँ मैं बहुत पहले छोड़ देतो।"

 

"सांची कह रही मैं भी तुमसे! तुम्हें मैं अपनों मूं से जबई आ दूर करें रात ती ।तुम्हाये मूँ से ऐसी बुराई बास आत.. ई लुगरिया लगी बीड़ी से  की मैं का बताओं तुमसे।उछरे को मन करत हतो,भली करी तुमने जो बीड़ी पींबो छोड़ दओ।"

 

      भगवती के कान में धर्मपत्नी बिन्दन के कहे शब्द इस समय मिश्री घोल रहे थे। उसे मेले जाने की जल्दी थी। पूरे सात सौ रुपये उसने आज ही के लिए जोड़ रखे थे। 'दद्दा घर ही रे हैं,दिन बूडे के पैला वो बिन्दन और दोउ मोड़ी-मोड़ा के संगे मेला देख के वापस लौट आहे। बिटिया कुशला और बेटा गुड्डू से मेला घुमाए को वचन भी पूरो हो जेहे। मेला में सारे पइसा खरच कर दे हैं, बाल-बच्चन की खुशी बाप-मताई की खुशी होत।' भगवती खेत की सूखी मिट्टी की ओर पानी पहुँचाने के लिये हाथ से रास्ता बनाते स्वयं से बोला...तभी उसकी दृष्टि अपने पैरों के पास  की सूखी मिट्टी में पानी पहुंचते ही निकल आई चीटियों पर पड़ी। उसने वह सूखा बड़ा-सा ढेला उठा लिया,जिसपर चीटियां बचाव के लिए चढ़ आई थीं ,'अरे राम-राम मोसे अबे कितनो बड़ो पाप भव जात हतो। खेत सींचे से कितने जीव-जंतु, कीड़ा-मकोड़ा मर खप जात,रात में जाने कितने चींटी-चिट्वा और दूसरे कीड़ा-मकोड़ा मर खप गए हुएं। हे भगवान!' भगवती सूखे मिट्टी के ढेले को मेड़ पर रखकर लौट आया। उसकी हथेली पर दो-तीन जगह चीटियों ने काट लिया था,जिसे खुजलाता हुआ वह पुनः गुनगुनाने लगा, 'गांव की बइरे मेंले जाएं, कांख में लरका हां कखियाएँ।'

 

    पूरब में सूरज दो लठ्ठा ऊपर चढ़ आया था। आसमान साफ था। चिड़िया चहचहाते हुए सिंचित खेत पर नन्ही उड़ानें भर अपना आहार ढूंढ-चुग रही थीं। भगवती प्रातः की सुखद धूप में अपने खेतों को मंत्रमुग्ध निहारते हुए अपने हाथ पैरों में चिपकी मिट्टी बरा के पानी से छुड़ाने में लगा था,तभी उसे बलदेव के दद्दा की हुंकार सुनाई दी, 'अरे! ओ रे! भगवती! तैने जो का करो..…इते आइये तनक...…आरे झट्टई......

 

' आ रओ दद्दा! आ  रहो..नेक हाथ-गौड़े धो के..'

 

'बलदेव के  दद्दा नाराज काय पे हैं? रात उनके मचान के लगे गव तो जरूर हतो पर उते से मैंने कछु उठाओ तो है नईया गुस्सा काये कर रहे।' पैर की मिट्टी छुड़ाते गिरधारी बलदेव के दद्दा की ओर भी देखते जा रहा था।बड़ी बड़ी गलमुछे रखे बलदेव के दद्दा अपनी उम्र में पहलवानी करते रहे। ऊँचे पूरे कसरती देह के मालिक। बड़ी बड़ी आंखों से घूर लेने में ही अच्छे-अच्छों की हालत खराब हो जाती थी,फिर इस समय तो वे बेहद गुस्से में चिल्ला रहे थे।

 

    दो खेतों की दूरी पर मेड़ पर धोती कुर्ता पहने दाहिने हाथ में पकड़ी छड़ी के सहारे टिके उसके बाल सखा बलदेव के दद्दा गुस्से से भरे हुए भगवती को बुलाये जा रहे थे। कुछ क्षण भगवती की प्रतीक्षा करने के बाद वह स्वयं खेत की मेड़ से होते भगवती के पास आ पहुँचे और तेज स्वर में बोले, 'काय रे भगौती तेने हमारे खेतन में जा रहो पानी काय हां छेको।'

 

'दद्दा! पायलागी अरे दद्दा  जा बात हती दद्दा!.कि.... 

 

' काय रे तौरे में तनकउ  गैरत बची नईय्या का? ईतेक जल्दी है तो ट्यूबबेल काय नई लगवा लेत।'

 

 'दद्दा मैंने ईसे आय....…'

 

 'ईसे आये कि कीसे आये .... धाय मा के... बहुत गरर्राहट चढ़ी तोखां.. एक लपाड़ा में उतर जेहे सबरी गरर्राहट।तोरी हिम्मत कैसे भई हमारे खेतन में जा रहे पानी ह छेकवे की।' बलदेव के दद्दा का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा था ।

 

 भगवती बलदेव के दद्दा का अपने दद्दा जैसा सम्मान करता था। एकाएक गाली-गलौच पर उतर आए दद्दा  की मुख-मुद्रा ने उसे विचलित कर दिया। एक बार पुनः गंभीर होकर अपनी बात रखने का उसने प्रयास किया, 'दद्दा! तुम्हाई बहू लरकन की जिद्द हती चरखारी के मेले जाएं की सो मैंने सोची..…'

 

' भगवती सारे ते अपना हाँ बहुतई तीस मार खां समझत। एक तो पानू छैक लाओ ऊपर से बुकलाबे लगो... समझ ले समझ'

 

'हओ जाओ छैक लओ जो कन्ने हो कर लो।' भगवती को देर हो रही थी। वह बलदेव के दद्दा से उलझना नहीं चाहता था, फिर भी खिसिया कर बोल गया।

 

'काय रे धमका रओ का तोई इत्ती हिम्मत... बहुतई आ मत गओ धाय माँ के हुक्का... ठहर सारे तोखां दयाखत हो ..' कहते हुए बलदेव के दद्दा भगवती को छड़ी से मारने के लिए लपके ही थे कि उनका दायां पैर गीली मिट्टी में आ जाने से भारी भरकम शरीर लिये वह फिसल कर धड़ाम से सुखी मेड़ पर गिर पड़े।मेड़ पर धसा मद्रासी  छोटा पत्थर बलदेव के दद्दा की कनपटी पर चोट पहुँचा गया,जो उनके लिये जानलेवा सिद्ध हुआ । 

 

      बलदेव के दद्दा को गिरने से बचाने के लिये भगवती आगे बढ़कर उनके पास पहुंचा भी,परन्तु वह बलदेव के दद्दा का भारी-भरकम शरीर संभल न सका।

 

     पास-पड़ोस के खेतों में पानी लगा रहे कुछ किसानों ने बलदेव के दद्दा की ऊंची आवाज सुनकर अपनी-अपनी दृष्टि इसी और केंद्रित कर रखी थी। बलदेव के दद्दा के गिरते ही वे सब वहां दौड़े चले आए।

 

 भगवती ने बलदेव के दद्दा को मेड़ पर उठा कर बैठाना चाहा पर वह बार-बार एक और लुढ़के जा रहे थे। भगवती की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर जरा सी फिसलन से गिरने के बाद बलदेव के दद्दा को क्या हो गया है?

 

'अरे मो पे पानु किंछो' रामकिशन बोला, जिसके खेत भगवती के खेत से लगे हुए हैं ।वह भगवती और बलदेव की दोस्ती से ईर्ष्या भी रखता था।उस का छोटा भाई राधे तुरंत पास बह रहे बरा से अपनी अंजुलि में पानी भर लाया।

 

 बलदेव के दद्दा के चेहरे पर चार-पांच बार पानी के छींटे मारे गए, परंतु उनके शरीर में कोई हरकत नहीं हुई।

 

'का आ  हो गव अबे तो अच्छे खासे हते। काय भगवती! तेने दद्दा हाँ काय पटक दओ?... बेचारे हाँ..राम राम...बहुत बुरो करो तेने सांसी के रये.…' रामकिशन विलाप करते बोला।

 

' अरे! जो का आ के रये रामकिशन भैया! मैंने कित्ते पटक दओ?... मैं तो दद्दा हाँ बचाएं खातिर लपको हतो। वे मोय छड़ी से मारे ह भये और रपट गए। जो देखो रपटे को निशान।' भगवती रपटने वाली जगह दिखाते कातर भाव से बोला। 

 

 'अरे छोड़ो रे नाड़ी देखो दद्दा की ।' काशी बोला।राधे ने नाड़ी टटोली।

 

' नाड़ी तो नहीं मिल रही  मोय लगत दद्दा विदा हो गए।'

 

भगवती के कानों पर टनों वजन पड़ गया उसके शरीर में 'काटो तो खून नहीं' जैसी स्थिति हो गई। है भगवान! पल भर में यह क्या हो गया? किसी अज्ञात भय से उसका चेहरा सफेद  पड़ गया।

 

 'अरे मर गए जे तो....' राधे के बोल भगवती के कानों से टकराये।चार-पांच लोगों के उस छोटे से हजूम में अफरा-तफरी मच गई।

 

 'अरे मार डारो रे! भगवती ने। बलदेव के दद्दा हाँ.. मड़ारो रे.. अरे ऐसी भी का दुश्मनी हती। कैसे धक्का मार के पटक दओ  बेचारे बूढ़े आदमी हाँ...' रामकिशन कहे जा रहा था।

 

'अरे मैंने नही मारो ..काय कस्सी भैया!'भगवती ने काशी की ओर दयनीय भाव से देखा ।

 

'मैंने तो कछु नई देखो भैया! झूठी काय हाँ कायें।' काशी पीछे हटते बोला।

 

   किसी ने भी सच्चाई जानने का प्रयास नहीं किया। सभी भगवती के ऊपर आरोप लगाए जा रहे थे ।

 

 बलदेव के दद्दा का निस्तेज चेहरा,बुझी आंखें देख भगवती अंदर तक सिहर उठा। 'हे राम! जो का हो गओ। बलदेव का सोचे कि मैंने मार दओ ऊके दद्दा खां पर भगवान जानत  मैंने तो कछु नहीं करो, पर मोरो कोउ विश्ववास काय नई करत। अरे सुनो तो भैया हरो तुम सब जने मौखा काय दोष दे रहे।..… अरे सुनो तो मोरी बात... मैंने कछु नहीं करो ।' भगवती को लगा जैसे वह जो कह रहा है वह या तो उसके मुंह से निकल नहीं रहा है। या उसकी बात कोई सुन नहीं रहा है। मारे घबराहट के वह पसीने-पसीने हो रहा था। हत्या का दोष...उसपर हत्या का दोषारोपण... पुलिस..थाना... कचहरी... बलदेव का गुस्सा .…बदला... खून... भगवती की आंखों के सामने एकाएक सब कुछ  चलचित्र की तरह घटित होने लगा।

 

     भगवती काशी का हाथ छोड़ जो भागा तो सीधे अपने घर आकर ही उसने दम ली।

 

       घर के बाहर भगवती के दद्दा दातुन कर रहे थे।अपने बेटे को बदहवासी की हालत में खेतों से भाग कर आया देख वह किसी अनहोनी की आशंका से भर  उठे।

 

 

 

 

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