व्यास मंचों से मौला गायन व नृत्य का क्या औचित्य ?


कुछ विख्यात प्रवचनकारों ने अपनी व्यासपीठ पर बैठकर जब अल्लाह का स्तुतिगान किया और मौला मौला के भजन गाये तो हिन्दू समाज में इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई। लाखों लोग उनके इस कृत्य की निन्दा और आलोचना करने लगे। सामाजिक माध्यमों में इसकी बाढ़ सी आ गई। यद्यपि कुछ उनके समर्थक भी प्रतिवाद करते देखे गए। परंतु उनकी संख्या नगण्य थी। उन प्रवचनकारों ने कोई भूल से अथवा अनजाने में ऐसा स्तुतिगान नहीं किया। यह उनका सुविचारित मत है कि ईश्वर और अल्ल्लाह एक तत्व का नाम है। इसे वे गर्व से ही गा रहे थे। वे समझते थे कि गांधी जी ने भी ऐसा किया था और जब देश की जनता ने गांधी जी का व्यापक सम्मान किया था तो उनका भी किया जाएगा। वे भी हिन्दू-मुस्लिमों में लोकप्रिय होकर अद्वितीय संत बन जाएंगे। _ __ हिन्दू समाज के व्यापक विरोध के कारण उन्हें अपने दोष का आभास हुआ और दो तीन प्रवचनकारों ने झटपट क्षमा मांगने के वीडियो बनाकर प्रसारित कर दिये। यह सब उनका क्षति निवारण (डैमेज कंट्रोल) का प्रयास है। मन से तो उन्हें कोई खेद नहीं है। यह हि के साथ किया जा रहा छल है। हिन्दू तो रामचरितमानस अथवा भागवत की कथा सुनने जा रहे थे। उसके स्थान पर ये लोग कुछ और उपदेश करने लगे तो यह कपट नहीं तो क्या है? परमात्मा के अनेक नाम हैं। विष्णु सहस्त्रनाम में आये एक हजार नामों को छोड़कर एक ऐसे नाम का जाप करने से, जिसके नाम और उस नाम के उद्घोष से हिन्दुओं को अत्यन्त कटु अनुभव हुए हैं, हिन्दू ठगा हुआ अनुभव करने लगे थे।


श्रीमद्भागवत के माहात्म्य में तो स्पष्ट कहा गया है कि यदि इस भागवत में वर्णित धर्म का आचरण सम्यक रूप से कर लिया तो अन्य धर्मों से क्या प्रयोजन है ? देखिए।


ब्रूमोऽद्य ते किमधिकं महिमानेवं ब्रह्मात्मकस्य भुवि भागवताभिधस्य। यत्संश्रयान्निगदिते लभते सुवक्ता श्रोतापि समतामलमन्यधर्मैः ।। श्रीमद्भागवत माहात्म्य 3/74


इस भागवत की महिमा को अधिक क्या कहें। इसकी ब्रह्मात्मक कथा भगवान को धारण करती है। इसका आश्रय लेने से श्रोता और वक्ता समान रूप से कल्याण लाभ पाते हैं। तब अन्य धर्मों की बात तो रहने ही दोजब श्रीमद्भागवत पुराण अधर्म-धर्मों के संबंध में यह स्पष्ट घोषणा करता है तो उन प्रख्यात प्रवचनकारों को व्यास मंच से मौला मौला अली मौला का कीर्तन और नमाज आदि गुणगान करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी है। इस कोलाहल में वह दृश्य दृष्टि से ओझल सा हो गया है जिसमें प्रवचनकार अपनी कथाओं फिल्मी गीत अथवा फिल्मी गीतों के स्वर संयोजन में कृष्ण भक्ति के मर्यादाहीन गीत गाते हैं। उनकी भाव-भङ्गिमाएं भी अशिष्ट होती हैं। स्त्रियों, विशेषकर नव-वधुओं को नृत्य के लिए आहूत करते हैं। हिन्दू घरों की कुलवधुएं कृष्ण भक्ति के नाम पर अशोभनीय नृत्य करतीं देखीं जाती हैं। बीच-बीच में प्रवचनकार स्वयं अथवा उनके संगीतकार सहयोगी उत्साहवर्द्धक ध्वनियां निकालते हैं। कुछ उत्साही श्रोता उन नृत्य कर रहीं नव-वधुओं के ऊपर भारतीय मुद्राओं विशेष बात यह है कि ऐसे नृत्य करने वाली नारियों में प्रायः सभी नव-युवतियां होती हैंपचास से अधिक वय की नारियों की संख्या नगण्य होती है। कारण स्पष्ट है कि उनकी देहयष्टि उतनी दर्शनीय अथवा कमनीय नहीं मानी जाती। प्रश्न यह है कि यह परिपाटी व्यास पीठ के मंञ्चों पर कहां से चल पड़ी हैश्रीमद्भागवत का अध्ययन करने से ज्ञात होता कि इसके बीज श्रीमद्भागवत के माहात्म्य में ही विद्यमान हैं, जिनका दुरुपयोग कर प्रवचनकार श्रोताओं और जनता में अशोभनीय नृत्य और यहां तक कि अश्लीलता तक प्रस्तुत करने लगे हैं। श्रीमद्भागवत के प्रारंभ होते समय जय जयकारादि शब्दों के घोष की बात उसके माहात्म्य में कहीं गई है। देखिए।


जयशब्दो नमः शब्दः शङ्खशब्दस्तथैव चचूर्णलाजाप्रसूतानां निक्षेपः सुमहानभूत्।श्रीमद्भागवत माहात्म्य 3/21


जय जयकार शब्द, नमः शब्द और शंखध्वनि के प्रभूत उच्चारण होने लगे। इसके साथ गुलाल अबीर, लाजा और फलों की बड़ी झडी सी लगने लगी। यह जय जयकार और नमः जैसे उद्घोष परमात्मा और श्रीमद्भागवत के लिए है। पुष्प वृष्ट्यादि भी ग्रंथ और भगवद्भक्तों के लिए है। यह दृश्य कथा प्रारंभ का है। अब कथा समापन


एवं ब्रुवाणो सति बादरायणौ मध्ये सभायां हरिराविरासीत्। प्रह्लादबल्युद्धवफाल्गुनादिभि व॒तः सुरर्षिस्तमपूजयच्च तान्।। श्रीमद्भागवत माहात्म्य 6/84


महर्षि बादरायण ऐसा बोल ही रहे थे कि उस समय सभा के मध्य में ही भगवान श्री हरि अपने पार्षदों प्रह्लाद, बलि, उद्धव और अर्जुन के साथ आ पहुंचे। देवर्षि नारद ने उन सबका सत्कार


दृष्ट्वा प्रसन्नं महदासने हरिं ते चक्रिरे कीर्तनमग्रतस्तदा। भवो भवान्या कमलासनस्तु तत्रागमत्कीर्तनदर्शनाय।। श्रीमद्भागवत माहात्म्य 6/85 जब उन सबने श्री हरि को प्रसन्नचित्त आसन पर बैठा देखा तो वे उनके सामने कीर्तन करने लगे। उस कीर्तन को देखने के लिए उमामहेश्वर और ब्रह्मा जी भी वहाँ आ गये। वह कीर्तन कैसा हो रहा था यह भी देख लीजिए


कांस्यधारी प्रह्लादस्तालधारी तरलगतितया चोद्धवः वीणाधारी सुरर्षिः स्वरकुशलतया रागकर्तार्जुनोऽभूत्। इन्द्रोऽवादीनमृदङ्ग जयजयसुकरा कीर्तने ते कुमारा यत्राग्रे भाववक्ता सरसरचनया व्यासपूत्रो बभूव।। श्रीमद्भागवत माहात्म्य 6/86


तरलगति (फुर्तीला) होने के कारण प्रह्लाद ने करताल उठा लिया, उद्धव ने कांस्य (झांझ) धारण किया, देवर्षि ने वीणा उठा ली, स्वरविज्ञानवेत्ता अर्जुन राग अलापने लगे। इन्द्र मृदङ्ग बजाने लगे। सनत कुमार बीच-बीच में जयघोष करने लगे। इन सबके आगे व्यासपुत्र शकदेव जी भांति-भांति की सरस भावभङ्गी कर भाव दिखाने लगे। यह अद्भुत नृत्य वहां श्रीमद्भागवत की कथा के समापन के अवसर पर हो रहा था। सभी वादक और नर्तक भाव विभोर हो रहे थे। श्रीमद्भागवत माहात्म्य के इस वर्णन में ही अब के भागवत मञ्चों पर हो रहे नृत्यों के बीज छिपे हुए हैं। अंतर यह किया जा रहा है कि अब प्रवचनकार यह नाच-गान कथा के बीच में ही जब-तब करने लगते हैं। ये लोग भगवान का कीर्तन करने की आड़ में फिल्मी गीतों की धुन पर भजन गाते हैं तो कुछ फिल्मी गीत ही गाने लगते हैं। कुछ उर्दू गजलों से युक्त कविताएं (शेरओ-शायरी) भी गाने लगते हैं। कुछ प्रवचनकार विशेषतः नारी प्रवचनकार (जो युवतियां ही होती हैं) स्वयं ही मंञ्च पर युवक श्रोताओं के साथ नृत्य करने लगती हैं। अब देश के विद्वानों, प्रबुद्ध श्रोताओं के सम्मुख विकट समस्या यह है कि भागवत मंञ्चों पर फल-फूल रहा यह नृत्य प्रदर्शन कैसे बंद हो और कैसे हरि-कीर्तन प्रारंभ हो?


अमृत विचार से साभार


 


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