पंडित राज जगन्नाथ कविवर ने राजकुमारी लवंगी को ही मांग लिया

समाज में प्रेम प्रसंग आदिकाल से चलते आए हैं और ये जाति पाति के बंधनों का सदा उल्लंघन करते रहे हैं किन्तु जब नामचीन लोग ऐसा करते हैं तो वह समाचार बनता है और इतिहास में दर्ज हो जाता है। बात है हिन्दुओं में सर्वश्रेष्ठ मान्य ब्राह्मणों की मुस्लिम कन्याओं से जुड़ी प्रेम कहानियों की पंडित राज जगन्नाथ सोलहवीं शताब्दी के अंतिम चरण से लेकर 17वीं के तृतीय चरण तक रहे पंडित राज जगन्नाथ संस्कृत के प्रसिद्ध कवि और वैयाकरण थे। वे शाहजहां के दरबार से लेकर औरंगजेब के समय तक विद्यमान थे। उन्हें पंडित राज' की उपाधि शाहजहां द्वारा ही प्रदान की गई थी। उनकी रचना रस गंगाधर" काव्यशास्त्र का अनुपम ग्रन्थ है। पीयूष लहरी, लक्ष्मी लहरी, गंगा लहरी, अमृत लहरी आदि उनके तमाम मनोरम ग्रन्थ हैं। गीति तत्व की कोई चर्चा उनका उल्लेख किए बिना अपूर्ण मानी जाएगी। वे दक्षिण भारतीय ब्राहमण परिवार से थे। उनकी माता का नाम लक्ष्मी देवी और पिता का पेरुभट्ट था। कहते हैं एक बार दरबार में वे शहज़ादी लवंगी' पर आसक्त हो गए।वे कविताएं सुना रहे थे। अनुपम सौन्दर्यवती शहजादी भी जलवा अफरोज थीं। उनके महीन वस्त्रों से उनके अंगों का सौष्ठव स्पष्ट दर्शित हो रहा था। कवि हृदय ने सौन्दर्य को समर्पण कर दिया। राजा द्वारा पुरस्कार मांगने को कहने पर कविवर ने राजकुमारी को ही मांग लिया:


नयाचे गजालिं नवा बाजिराजिं न वित्तेषु चित्तं मदीयं कदाऽपि।


इयं सुस्तनी मस्त कन्यस्तकुम्भा लवंगी कुरंगीदृगंगी करोतु।।


अर्थात राजना मो घोडे हाथियों की कतारें नहीं चाहिए धन लेने में भी मेरी रुचि नहीं है। स्वर्ण कलशों के समान सुन्दर उभरेस्तनों वाली, मृगनयनी इस लवंगी को मैं अंगीकार करना चाहता हूं।) थोडे सोच विचार और कुछ अड़चनों के बाद वह कन्या पंडित जी से ब्याह दी गई।जब वे काशी गये तो वहां के पण्डितों ने इसका विरोध किया और उन्हें अपवित्र घोषित किया। पंडित जी इससे बहुत आहत हए और वहीं गंगा तट पर बैठकर गंगा मैया की स्तुति में एक-एक श्लोक रचने और गाने लगे।प्रतिश्लोक परमाता एक सीढ़ी ऊपर आने लगीं। अब काशी के पंडित घबराएऔर क्षमा याचना करने लगे किन्त पंडित राज जगन्नाथ जी अपने संकल्प में दृढ रहे।वे बोले, "अब तो गंगा मैया ही मेरी पवित्रता का प्रमाण देंगीं। वे स्तुति-श्लोक सृजित करते रहे और 52 श्लोक पूरे होने पर सपत्नीक गंगा मां की गोद में समाहित हो गये। उनकी 52 शिखरिणी छन्दों वाली यह रचना-गंगा लहरी संस्कृत के गीति साहित्य का अनमोल रत्न है।


आलम कवि


औरंगजेब के पत्र मुअज्जम, जो बाद में बहादुर शाह हए,  के आश्रम में पलने वाले आलम कवि,मूलत:सनाढ्य ब्राहमण थे। एक प्रेम कहानी ने ही उन्हें मुसलमान बना दिया और वे आलम हो गए। वे ब्रजभाषा के बड़े कवि थे और उनकी कई रचनाओं सहित “आलम केलि विशेष प्रसिद्ध है। एक बार उनके मन में दोहे की एक पंक्ति उठी कनक छरी सी कामिनी, काहे को कटि छीन। यानी स्वर्ण की छड़ी के समान सुन्दर स्त्री की कमर पतली क्यों होती है? अगली पंक्ति उन्हें तत्काल नहीं सूझी और उन्होंने यह पंक्ति कागज़ पर लिखकर पगड़ी के खूट में बांध ली और भूल गये। कालान्तर में पगड़ी रंगने के लिये शेख नाम की रंगरेजिन के पास चली गई।शेख तीखे नाक नक्श वाली सुन्दरी तो थी ही, कवयित्री भी थी। हालांकि यह कम लोग जानते थे। उसने साफे के खूट में कुछ बंधा देखा, तो उसे खोलकर पढ़ लिया। कविता की एक पंक्ति देख उसने दूसरी पंक्ति तुरंत आगे बढ़ादी- “कटि को कंशन काटि विधि कुचन मध्य धरिदीन" यानी कमर का स्वर्ण अंश निकाल कर विधाता ने कुच सृजित कर दिये । पगड़ी रंगकर वापस कर दी गई। कविता ज्यों की त्यों खूट में बांध दी गई। आलम ने जब पगड़ी बांधने का प्रयास किया तो खूट में कुछ बंधा देखा। उसे खोला तो याद आया कि पहली पंक्ति उन्होंने लिखी थी।दसरीसटीक पंक्ति देख उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने शेख को बुलवाया। रहस्य ज्ञात हुआ कि शेख एक अच्छी कवयित्री है। उन्होंने विवाह का प्रस्ताव किया जिसे शेख स्वीकार कर लिया और आलम मुसलमान बन गये। उनके जहान' नाम का पुत्र भी हुआ। शेख की शोखी और हाज़िरजवाबी के किस्से अब बादशाह तक पहुंच चुके थे। अत: एक दिन शेख दरबार में बुलाई गईं। बादशाह ने मजाकिया लहजे में पूछा, “क्या आलम (विश्व)की बीबी आपही हैं"? शेख ने तुरंत कहा'"जीजहां पनाह!जहान विश्व) की मां मैं ही हूं"? बादशाह उसकी हाजिर जवाबी से बहुत प्रसन्न हुए और पुरस्कार दिया।


रघोत्तम शुक्ल पीसीएस (सेवानिवत्त)


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