उपन्यास अग्निलीक

हृषिकेश सुलभ के हाल ही में प्रकाशित पहले उपन्यास अग्निलीक (राजकमल प्रकाशन) को पढ़ते समय तीन उपन्यास जहन में आए। पहला उपन्यास था नाटककार और वरिष्ठ लेखकसुरेंद्र वर्मा का 'मुझे चांद चाहिए'। इस उपन्यास की याद आना इसलिए लाज़िमी था क्योंकि हृषिकेश सुलभ भी उनकी तरह नाटककार हैं। दूसरा उपन्यास था फणीश्वर नाथ का मैला आंचल। इसका जिक्र जहन में इसलिए आया क्योंकि उपन्यास का कथानक बताते हुए रेणु ने कहा था, इसमें फूल भी हैं,शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरुपता भी-मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया। मैला आंचल की याद आना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि अग्निलीक भी उसी जमीन पर लिखा गया है, जिस जमीन पर मैला आंचल लिखा गया है। मैला आंचल कोसी तट के आसपास बसे गांवों पर लिखा गया तथा सुलभ जी ने अपने उपन्यास में घाघरा के किनारे बसे गांवों की कथा को उपन्यास के केंद्र में रखा है। __ अग्निलीक को पढ़ते हुए एक तीसरा उपन्यास इसलिए याद आया क्योंकि वह तेलुगु साहित्य का किसानों के जीवन पर लिखा गया महत्वपूर्ण उपन्यास है-केशव रेड्डी का-भू-देवता। इस उपन्यास का कथा समय 1950 का है। एक किसान की जमीन उससे छिन जाती है। इसके बाद किस तरह से किसान से जुड़े तमाम पेशों पर इसका असर पड़ता है। यह उपन्यास में दर्शाया गया है। महज 95 पेज का यह उपन्यास एक किसान की मृत्यु और उसके पुनरुत्थान की गाथा है। लेखक ने उस किसान की तकलीफ को 'यूनिवर्सलाइज' करते हुए उसे सबकी तकलीफ में बदल दिया है। यही उपन्यास की ताकत है और यही उसे बड़ा उपन्यास बना देती है। ___ अब अग्निलीककी बात।सुलभ जी के उपन्यास की शुरुआत शमशेर साईं नामक एक राजनैतिक कार्यकर्ता की हत्या से होती है। यह एक ड्रामाई शुरुआत है। इस हत्या के पार्श्व में पाठक उपन्यास से लगातार जुड़ा रहता है। उपन्यास की कथा इतने स्तरों पर फैली है कि इसे संक्षेप में बताना संभव नहीं है। यह कथा अकलू यादव और उनकी चार पीढ़ियों की कथा है। इस कथा में पाठक को ग्रामीण जीवन से भी ज्यादा सामंतवाद के बदले चेहरे दिखाई देंगे, दिखाई देगा कि किस तरह सत्ता के नए केंद्र पनप रहे हैं और लोकतंत्र किस तरह खोखला हो रहा है। इस उपन्यास में आपको छल, कपट, शूल (बंदूके), सौंदर्य, शराबखोरी, स्त्री गमन का बिंदास चित्रण है। पाठक इसे पढ़ते हुए यह भूल भी सकता है किवह ग्रामीण पृष्ठभूमि के उपन्यास को पढ़ रहा है। उपन्यास में जिस तरह सुलभ जी ने पुलिस, कचहरी, ग्रामीण अंधविश्वास, अपने पराभव को प्राप्त सवर्ण समाज, संघर्ष करती जातियों का समाज और मुस्लिम समाज में अगड़े-पिछड़ों की कारुण दास्तानें दर्ज की हैं, वह चकित करने वाला है। बड़े फलक के इस उपन्यास में इतने अधिक किरदार और परिस्थितियां हैं, जिन्हें याद रखना आसान नहीं है। हर कथा के साथ उससे जुड़े किरदार और उसका परिवेश है। चार पीढ़ियों की कथा तो यह भी मुमकिन नहीं है कि उपन्यास में प्रेम न हो। इस विसाल कथा में कई प्रेम कहानियां अंतर्निहित हैं। जसोदा और लीला, रामझरी-अकलू, कुंती-मुचकुन्द और चौथी पीढ़ी की-जोसादा की पड़पोती रेवती-मनोहर की प्रेम कथाएं। लेकिन ये प्रेम कथाएं हाशिये पर ही रहती हैं। कथा कथाए। लाकन याप्रम कथा का मुख्य बिन्दु नहीं बनतीं। बावजूद इसके कि जसोदा और लीला की प्रेम कहानी पहली प्रेम कहानी है और उपन्यास के केंद्र में है। असफल प्रेम कथाओं में केवल नन्हे मियां और नबीहा की प्रेम कथा ही सिरे चढ़ती है और उसमें आत्मीयता दिखाई देती है।उपन्यास में जिस तरह हत्याओं और आपसी झगड़ों का दर्शाया गया है उसे लगता है कि लेखक एक हत्यारे समय को चित्रित कर रहा है। उपन्यास में समाज की जो खिड़कियां दिखाई देती हैं, उसमें झांककर लगता है कि पूरा समाज ही सत्ता द्वारा पोषित अपराधियों के आतंक की छाया में जी रहा हैसुलभ जी ने इसी पर अपनी पैनी नजर रखी है। इस उपन्यास की एक और खास बात है इसके स्त्री चरित्रों का चित्रणरेशमा, जसोदा, कुंती, रेवती. रामझरी, नबीहा, नाज बेगम, गुल बानो और मुन्नी बी जैसी स्त्रियों का चित्रण सुलभी जी ने पूरे मनोयोग से किया है। रेशमा के चरित्र की जिस तरह ग्रोथ उपन्यास में दिखाई देती है, वह प्रभावित करती है। यहां स्त्री किरदार एक दूसरे से संघर्ष न करके एक दूसरे के पूरक नजर आते हैं। रंगकर्म की अपनी समझ का भरपूर प्रयोग हृषिकेश सुलभ जी ने उपन्यास में किया है। एक हत्या से शुरू हुआ उपन्यास रेवती के प्रेमी मनोहर की हत्या पर समाप्त होता है। दृश्य को कहां खोलना है और कहां खत्म करना है यह नाटककार से बेहतर कोई नहीं समझता। सुलभ जी ने भी अपनी इस समझ का इस्तेमाल अग्निलीक में किया है। दृश्य और संवाद कैसे पाठकों को बांधते हैं इसकी एक बानगी उपन्यास में देखी जा सकती है। उपन्यास के अंत से कुछ पहले (पृष्ठ 244) पररेवती मनोहर से कहती है, हमारे साथ फगुआ नहीं खेलोगे। यही संवाद कभी रेवती की दादी ने अपने प्रेमी लीलाधर से कहा थापाठक इस तरह के संवादों से प्रभावित होता है और घटनाओं को कनेक्ट कर पाता है। आज के समय में पठनीयता का प्राथमिकता में शामिल कर लिया गया है। निस्संदेह यह बेहद पठनीय उपन्यास है। हृषिकेश सुलभ रूमानियत और स्त्री के दैहिक वर्णन में कहीं कहीं यथार्थ से दूर निकल जाते हैं। कहीं कहीं उपन्यास की भाषा भी खासी रोमांटिक हो जाती है, जो आम पाठकों को प्रभावित कर सकती है लेकिन यही इस उपन्यास को बड़ा फलक का होने के बावजूद बड़ा होने से रोकती है। तो कहा जा सकता है कि उपन्यास में मुझे चांद चाहिए की नाटकीयता और दृश्य हैं, जिन्हें सुलभ जी ने नाटककार के रूप में वर्णित किया है। दूसरी तरफ मैला आंचल का परिवेश उपन्यास में मौजूद है। छल, कपट, षड्यंत्र, सुंदरता और कुरुपता भी उपन्यास में अलग-अलग स्वरूपों में उपस्थित है। लेकिन केशव रेड्डी के भूदेवता की झलक उपन्यास में दिखाई नहीं देती। ना उस तरह के किसान हैं ना उनकी तकलीफबावजूद इसके यह महत्वपूर्ण उपन्यास है जिसे पढ़ा जाना चाहिए।


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