हरिशंकरी

पीपल बरगद व पाकड़ के सम्मिलित रोपण को हरिशंकरी कहते हैं।



हरिशंकरी का अर्थ है - विष्णु और शंकर की  छायावली (हरि = विष्णु शंकर = शिव)। हिन्दू मान्यता में पीपल को विष्णु व बरगद को शंकर का स्वरूप माना जाता है। मत्स्य पुराण के अनुसार पार्वती जी के श्रापवश विष्णु-पीपल, शंकर- बरगद व ब्रह्मा- पलाश वृक्ष बन गये। पौराणिक मान्यता में पाकड़ वनस्पति जगत का अधिपति व नायक है व याज्ञिक काय श्रेष्ठ छाया वृक्ष है। इस प्रकार हरिशंकरी की एक परम पुण्य व श्रेष्ठ परोपकारी कार्य है। हरिशंकरी का रोपण बलिया, गाजीपुर, मऊ व आसपास के जनपदों में विशेष रूप से किया जाता है। हरिशंकरी के तीनों वृक्षों को एक ही स्थान पर इस प्रकार रोपित किया जाता है कि तीनों वृक्षों का संयुक्त छत्र विकसित हो व तीनों वृक्षों के तने विकसित होने पर एक तने के रूप में दिखाई दें। हरिशंकरी के तीनों वृक्षों का विस्तृत विवरण निम्न अनुसार है।


पीपल



___पीपल को संस्कृत में पिप्पल (अर्थात् इसमें जल है), बोधिद्रुम (बोधि प्रदान करने वाला वृक्ष), चलदल (निरन्तर हिलती रहने वाली पत्तियों वाला), कुञ्जराशन (हाथी का भोजन), अच्युतावास (भगवान विष्णु का निवास). पवित्रक (पवित्र करने वाला) अश्वत्थ (यज्ञ की अग्नि का निवास स्थल) तथा वैज्ञानिक भाषा में फाइकस रिलिजिओसा कहते हैं।


चिड़ियाँ इसके फलों को खाकर जहां मल त्याग करती है वहां थोड़ी सी भी नमी प्राप्त होने पर यह अंकुरित होकर जीवन संघर्ष करता है। दूर-दूर तक जड़ें फैलाकर जल प्राप्त कर लेना इसकी ऐसी दुर्लभ विशेषता है जिसके कारण इसका नाम पिप्पल (अर्थात् इसमें जल है), रखा गया है। वैज्ञानिक भी इसे इसके पके फल मीठे और पौष्टिक होते हैं। पर्यावरणीय दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व का वृक्ष मानते हैं।


औषधीय दृष्टि से पीपल शीतल, रुक्ष, वर्ण को उत्तम बनाने वाला, एवं पित्त, कफ, व्रण तथा रक्तविकार को दूर करने वाला है। इस वृक्ष में भगवान विष्णु का निवास माना जाता है। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि वृक्षों में मैं पीपल हूँ (अश्वत्थः सर्व वृक्षाणाम्)। इस वृक्ष के रोपण, सिंचन, परिक्रमा, नमन-पूजन करने से हर तरह से कल्याण होता है और सभी दुर्भाग्यों का नाश होता है।जलाशयों के किनारे इस वृक्ष के रोपण का विशेष पुण्य बताया गया है, (इसकी पत्तियों में चूना अधिक मात्रा में होता है जो जल को शुद्ध करता है)। बृहस्पति ग्रह की शान्ति के लिए इस वृक्ष की समिधा प्रयुक्त होती है। अरणी से यज्ञ की अग्नि उत्पन्न करने के लिए इसके काष्ठ की मथनी बनती है। शास्त्रीय मान्यता में घर के पश्चिम में स्थित पीपल शुभ किन्तु पूरब दिशा में अशुभ होता है। ध्यान करने के लिये पीपल की छाया सर्वश्रेष्ठमानी जाती है, राम चरित मानस में वर्णन है कि काकभुशुण्डि जी पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे (पीपर तरु तर ध्यान जो धरई)।


बरगद



बरगद को संस्कृत में वट (घेरने वाला) न्यग्रोध (घेरते हुए बढ़ने वाला), बहुपाद, रक्तफल, रोहिण, यक्षावास कहते हैं तथा अंग्रेजी भाषा में इसे बैनियन ट्री (बनियों का वृक्ष) व वैज्ञानिक भाषा में फाइकस बेन्गालेन्सिस कहते हैं। यह सदाहरित विशालकाय छाया वृक्ष है जो पूरे भारत में पाया जाता है। इसकी शाखाओं से जड़ें निकल कर लटकती हैं जो जमीन में प्रवेश करने के बाद अपनी शाखा को अपने माध्यम से पोषण व आधार प्रदान करने लगती हैं। इस प्रकार बरगद वृक्ष का विस्तार बढ़ता जाता है। इस कारण यह अक्षयकाल तक जीवित रहनेकी क्षमता रखता है। अतः अत्यधिक पुराने बरगद वृक्षों को प्राचीन काल में अक्षय वट कहा जाता था। इसकी छाया घनी होती है तथा इसके नीचे अन्य कोई भी वृक्ष नहीं पनप सकता। इसके फलों को मानव व पशु पक्षी खाते हैं, जो शीत व पौष्टिक गुणयुक्त होते हैं। इसके दूध को कमर दर्द, जोड़ों के दर्द, सड़े हुए दांत का दर्द, बरसात में होने वाले फोड़े फुन्सियों पर लगाने से लाभ मिलता है। इसकी छाल का काढ़ा बहुमूत्र में तथा फल मधुमेह में लाभप्रद है। कथा श्रवण के लिए इस वृक्ष की छाया उत्तम मानी गयी है। इस वृक्ष में भगवान शंकर का निवास माना जाता है। वटवृक्ष के विस्तार करने की अदम्य क्षमता व अक्षयकाल तक जीवित रह सकने की सम्भावना पूज्य बनाती है। सीता जी ने वनवास की यात्रा में इस वृक्ष की पूजा की थी। वट सावित्री व्रत पति की लम्बी आयु के लिए ज्येष्ठ अमावस्या को महिलाओं द्वारा किया जाता है। इन दिनों (लगभग जून प्रथम सप्ताह) में वृक्ष को जल की महती आवश्यकता होती है। वृक्षायुर्वेद के अनुसार घर के पूरब में स्थित बरगद वृक्ष सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला होता है किन्तु घर के पश्चिम में होने पर हानिकारक होता है।


पाकड़



पाकड़ को संस्कृत में प्लक्ष (नीचे जाने वाला ). पर्कटी (सम्पर्क वाली) पर्करी, जटी, व वैज्ञानिक भाषा में फाइकस इनफेक्टोरिया कहते हैं। यह लगभग सदा हराभरा रहने वाला वृक्ष है जो जाडे के अन्त में थोड़े समय के लिये पतझड़ में रहता है। इसका छत्र काफी फैला हुआ और घना होता है, इसकी शाखायें जमीन के समानान्तर काफी नीचे तक फैल जाती है। जिससे घनी शीतल छाया का आनन्द बहुत करीब सेमिलता है। इसकी विशेषता के कारण इसे प्लक्ष या पर्कटी कहा गया जो हिन्दी में बिगड़कर क्रमशः पिलखन व पाकड़ हो गया। यह बहुत तेज बढ़कर जल्दी छाया प्रदान करता है। शाखाओं या तने पर जटा मल चिपकीया लटकी रहती है। फल मई जून तक पकते हैं और वृक्ष पर काफी समय तक बने रहते हैं। गूलर की तुलना में इसके पत्ते अधिक गाढ़े रंग के होते हैं जो सहसा काले प्रतीत होते हैं जिसके कारण इस वृक्ष के नीचे अपेक्षाकृत अधिक अन्धेरा प्रतीत होता है। यह घनी और कम ऊँचाई पर छाया प्रदान करने के कारण सड़कों के किनारे विशेष रूप से लगाया जाता है। इसकी शाखाओं को काटकर रोपित करने से वृक्ष तैयार हो जाता है। औषधीय टष्टि से यह शीतल एवं वण दाह पित्त कफ रक्त विकार, शोथ एवं रक्तपित्त को दूर करने वाला है। पौराणिक मान्यता से सात या नौ द्वीपों में एक द्वीप का नाम प्लक्ष द्वीप है जिस पर पाकड़ का वृक्ष है, विष्णु यहां सोम रूप में रहते हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार इसे वन-वृक्षों का अधिपति बताया गया था, गौरूपी पृथ्वी कोदुहने के समय यह वृक्षों के लिए बछड़ा बना था। नारद पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने विश्व में साम्राज्यों का बटवारा करते समय पाकड़ को वनस्पतियों का राजा नियुक्त किया। यज्ञ कर्म के लिए इस वृक्ष की छाया श्रेष्ठ मानी जाती है। वृक्षायुर्वेद के अनुसार घर के उत्तर में पाकड़ लगाना शुभ होता है।



महत्व


जीवों को आश्रय :- हरिशंकरी में तमाम पशु-पक्षियों व जीव-जन्तुओं को आश्रय व खाने को फल मिलता है, अतः हरिशंकरी के रोपण, पोषण व रक्षा करने वाले को इन जीव जन्तुओं का आशीर्वाद मिलता है, इस पुण्यफल की बराबरी कोई भी दान नहीं कर सकता।


अमुल्य छाया :- हरिशंकरी कभी भी पूर्ण पत्तीरहित नहीं होती है, वर्षभर इसके नीचे छाया बने रहने से पथिकों, विश्रान्तों व साधकों को छाया मिलती है। इस की छाया में दिव्य औषधीय गुण व पवित्र आध्यात्मिक प्रवाह निसृत होते रहतें हैं जो इसके नीचे बैठने वाले को पवित्रता, पुष्टता और उर्जा प्रदान करते हैं।


पर्यावरणीय महत्व :- पर्यावरण संरक्षण व जैव विविधता संरक्षण की दृष्टि में पीपल, बरगद व पाकड़ सर्वश्रेष्ठ प्रजातियां मानी जाती हैं। हरीशंकरी का रोपण हर प्रकार से महत्वपूर्ण व पुण्यदायक कार्य है। इसे धर्म-स्थलों, विश्राम-स्थलों पर रोपित करना चाहिए।


"जो व्यक्ति विधि पूर्वक पीपल वृक्ष का रोपण करता है, वह चाहे जहाँ भी हो, भगवान विष्णु के लोक को जाता है। जो विधि के अनुसार बरगद वृक्ष का रोपण करता है वह शिव लोक को जाता है और वहाँ अप्सरायें उसकी सेवा करती हैं। जो व्यक्ति चार पाकड़ वृक्षों का रोपण करता है वह राजसूय यज्ञ करने को पाता है, इसमें कोई संशय नहीं है। -वृक्षायुर्वेद


राम चरित मानस में हरिशंकरी के वृक्षों का महत्व


राम चरित मानस के उत्तरकाण्ड में शिवजी पार्वती जी को काकभुशुण्डि जी के निवास स्थान के वर्णन में हरिशंकरी के वृक्ष बरगद, पीपल और पाकड़ का चित्रण निम्न प्रकार करते हैं


पीपर तरु तर ध्यान जो धरई।


जाप जज्ञ पाकरि तर करई।।


आँब छाँह करि मानस पूजा।


तजि हरि भजन काजु नहीं दूजा।।


वर तर कह हरि कथा प्रसंगा।


आवहिं सुनहिं अनेक विहंगा।।


अर्थात – वह (कागभुशुण्डि) पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान करता है. पाकर के नीचे जप यज्ञ करता है, आम की छाया में मानसिक पूजा करता है. श्री हरि के भजन को छोड़कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है। बरगद के नीचे वह श्री हरि के कथाओं के प्रसंग कहता है, वहाँ अनेक पक्षी आकर कथा सुनते हैं।


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