प्रबंध शास्त्री के रूप में श्री कृष्ण


वर्तमान समय को ज्ञान का युग माना जाता है। यहाँ तक कहा जा रहा है कि ज्ञान का विस्फोट ही हो रहा है। प्रबंधन, वैज्ञानिक, प्रोद्यौगिकी ही नहीं आध्यात्मिक क्षेत्र में भी विभिन्न प्रकार की चर्चाओं का दौर चल रहा है। धर्म के क्षेत्र में प्रचार-प्रसार ही नहीं, नये-नये संप्रदायों व संस्थाओं का जन्म भी हो रहा है। धर्म व धार्मिक संस्थाओं ने अनेक प्रकार की समस्याओं को भी जन्म दिया है। व्यष्टि व समष्टि दोनों के लिए ही ज्ञान का क्षेत्र दिन-प्रतिदिन बहुआयामी व जटिल से जटिलतर होता जा रहा है। विज्ञान, प्रबंधन व सूचना प्रोद्यौगिकी ने अपना अद्भुत प्रभाव जमा लिया है। इतने ज्ञान के बाबजूद शान्ति व आनन्द दिखाई नहीं देता, इसका क्या कारण हो सकता है? विचार का विषय है। जब ज्ञान आचरण के स्थान पर विद्वता का प्रतीक बन जाय तो शान्ति के स्थान पर अशान्ति मिलती है, जब धर्म आचरण के स्थान पर कर्मकांड तक सीमित हो जाय, आस्था के स्थान पर आडम्बर व आतंक का पर्याय प्रतीत होने लगे तो आतंक पैदा करने का साधन बनता है, जब परिवार भावना के स्थान पर निःसंग बुद्धि से संचालित होकर स्वार्थ-सिद्धि की खींचतान का युद्धक्षेत्र बन जाय तो परिवार संरक्षण न देकर शोषण का स्थान बनकर असुरक्षा की भावना जगाता है, ऐसी स्थितियों में व्यष्टि या समष्टि को आनन्द व शान्ति कैसे मिल सकते हैं? ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि हम ज्ञान व धर्म की अवधारणाओं पर अपने प्राचीन ज्ञान व धर्म के प्रकाश में पुनर्विचार करें। इस पुनर्विचार के लिए गीता हमारा आधार सिद्ध हो सकती है।
         भारत के ज्ञान-विज्ञान के बारे में विचार करें तो वर्तमान में ज्ञान का कोई भी क्षेत्र नवीन प्रतीत नहीं होता। वर्तमान में आधुनिकता के नाम पर अपनाये जाने वाली परंपरायें भी  वैदिक युग में बुराइयों के रूप में ही सही, देखने को अवश्य मिल जाती हैं। यदि विज्ञान, प्रबंधन व सूचना प्रोद्यौगिकी के बारे में भी विचार किया जाय तो हमने भले ही उन्हें ईश्वरीय चमत्कार मानकर कथाओं तक सीमित कर दिया हो, कथाओं में ही सही ऐसे उपकरणों की चर्चा मिल ही जाती है, जो वर्तमान में विज्ञान ने संभव बनाये हैं। प्रबंधन की बात करें तो भारतीय ग्रंथों में प्रबंधन के सिद्धान्त कूट-कूट कर भरे पड़े हैं। भारतीय आश्रम व्यवस्था जीवन प्रबंधन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। वर्तमान में प्रबंध-शास्त्री बड़े-बड़े शोध ग्रंथों का प्रकाशन करते हैं किन्तु व्यक्ति व समाज शान्ति व आनन्द से कोसों दूर हैं। इसका कारण है हम संपूर्ण को समझे बिना, अंश को ही संपूर्ण मान बैठते हैं। उपलब्ध ज्ञान के भंडार को छोड़कर छोटे-छोटे अंशो को प्राप्त करने के लिए स्वार्थवश लगे रहते हैं और अपने अहंकार का पोषण करते हैं। हम जो भी ज्ञान प्राप्त करने की बात करते हैं, वस्तुतः वह पहले से ही उपलब्ध है। हमने उसे अप्रासंगिक मानकर छोड़ दिया है। जबकि हमें ज्ञान की खोज करने की आवश्यकता ही नहीं है, उसके अनुशीलन व अनुप्रयोग कर समाज के लिए उपादेयता सिद्ध करने की आवश्यकता है। कौन प्रबंधशास्त्री श्रीकृष्ण के प्रबंधन के सामने ठहर सकता है? ज्ञान का कौन सा ऐसा क्षेत्र है जिसकी चर्चा गीता में नहीं मिलती? विज्ञान, सूचना प्रो़द्योगिकी, प्रबंधन व धर्म के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता अकेले ही संपूर्ण विश्व को मार्गदर्शन देने में सक्षम है। हमने कालान्तर में इसे एक धार्मिक ग्रन्थ तक सीमित करके इसकी उपादेयता से अपने आप को वंचित कर लिया, अन्यथा इसके प्रत्येक श्लोक में जो गूढ़ ज्ञान भरा है, उसकी समानता विश्व में कोई भी ग्रंथ करने में सक्षम नहीं है। गीता केवल आदर्श ही नहीं है, व्यावहारिक भी है। उसके अनुसार व्यक्ति व व्यष्टि का प्रबंधन किया जाय तो विश्व की समस्त समस्याओं का समाधान संभव है।



 गीता के रूप में जीवन प्रबंधन का विशद ज्ञान देने वाले समसामयिक प्रबंधक व युग प्रवर्तक प्रबंधशास्त्री श्रीकृष्ण को हमने चमत्कारों से जोड़़कर अप्रासंगिक बना दिया। जब हम किसी व्यक्ति को विशेष स्थान दे देते हैं, तभी हम उसके द्वारा दिखाए गये रास्ते के अनुकरण से अपने आप को वंचित कर लेते हैं। हम भारतीयों की सबसे बड़ी कमजोरी यही है जिसके कारण हम वैयक्तिक रूप से अपनी क्षमताओं का सम्पूर्णता के साथ उपयोग नहीं कर पाते। हम जिसको भी कुछ महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करते पाते हैं। हम तुरन्त उसे विशिष्ट व महान घोषित कर देते हैं। अवतारों में गिनती कर देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उसके द्वारा किए गये कार्यो को हम विशिष्ट मानकर स्वयं अपने द्वारा करणीय नहीं मानते। उस महा पुरूष द्वारा दिखाया गया मार्ग हमारे लिए अनुकरणीय नहीं रह जाता, क्योंकि वह तो महान पुरूष या विशिष्ट पुरूष या अवतार था। उसके द्वारा किए गये कार्य को हम कैसे कर सकते र्है भला! और इस प्रकार हम उसके चित्र के सामने माल्यार्पण करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। यही हमारा दुर्भाग्य बन जाता है। हम जिसके चित्र पर माल्यार्पण करते हैं, उसके स्थान पर उसे भी अपने समान मानकर उसके बताये मार्ग पर चलकर अपना व समाज का अधिक हित कर सकते थे। अपने आदर्श के कार्य को सफलतापूर्वक संपन्न करना ही हमारे जीवन का ध्येय होना चाहिए। यही प्रबंधशास्त्री श्री कृष्ण के साथ हुआ। उनके साथ हमने ढेरों किवदंतियाँ व चमत्कार जोड़ कर अपनी पहुँच से दूर कर दिया। जबकि उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को देखें। उनके समकक्ष कोई भी प्रबंधक या प्रबंधशास्त्री नहीं ठहरता। आओ हम श्री कृष्ण को एक प्रबंधशास्त्री के रूप में देखते हुए उनसे प्रबंधन की शिक्षा ग्रहण करें।
 श्रीकृष्ण ने कारागार में जन्म लेकर और एक ग्वाले के घर पलकर अपने प्रबंधन कौशल के बल पर ही सम्पूर्ण बृज क्षेत्र को संगठित करने में सफलता हासिल की। श्रीकृष्ण ने अपने प्रबंधन कौशल का प्रयोग करके ही कंस के राज्य में रहते हुए भी न केवल समस्त संसाधनों को एकत्रित किया वरन् समस्त कौशलों को सीखते हुए द्रुतगति से कंस की शक्ति को कमजोर करते रहे। मथुरा पहुँचने से पूर्व ही श्रीकृष्ण कंस के काफी योद्धाओं को मार चुके थे। यही नहीं बृज क्षेत्र में रहते हुए भी मथुरा में अपने समर्थक व सहयोगी तैयार कर चुके थे। श्रीकृष्ण का प्रबंधन कौशल ही था, जो बिना गद्दी पर बैठे महाभारत जैसे युद्ध के सूत्रधार बने। श्रीकृष्ण महाभारत जैसे युद्ध के सूत्रधार थे किंतु उनका जोखिम नहीं था। एक तरफ उनकी सेना लड़ रही थी तो दूसरी ओर वे स्वयं केवल मार्गदर्शन कर रहे थे। दोनों में से किसी की भी विजय होती। श्रीकृष्ण की नगरी को कोई जोखिम नहीं था। गीता जैसे प्रबंधन ग्रन्थ का सूत्रपात भी युद्धक्षेत्र में ही हुआ।



          गीता अर्थात श्रीमद्भगवद्गीता जो महाभारत के अंग के रूप में मिलती है। श्रीकृष्ण की प्रबंधशास्त्र पर एक विश्व प्रसिद्ध कृति है। यह अलग बात है कि इसके रचयिता महर्षि वेदव्यास को माना जाता है और इसे एक धार्मिक ग्रन्थ मानकर इसकी उपादेयता को सीमित कर दिया गया है। व्यास इसके लेखक हो सकते हैं किंतु निर्विवाद रूप से गीता को श्रीकृष्ण के उपदेशों का सार माना जाता है। प्रबंधनग्रन्थ गीता के रचनाकाल के बारे में विवाद हो सकते हैं किन्तु इसकी उपादेयता के बारे में किसी प्रकार के विवाद की गुंजाइश नहीं है। इसकी रचना हुए इतना समय बीत चुका है, इसके इतने संस्करण निकल चुके हैं कि इसके मूल रूप के विषय में संदेह हो सकता है। वास्तविकता यह है कि जो रचना जितनी पुरानी होती है, जिसको जितने विद्वानों द्वारा अनुदित व प्रस्तुत किया गया होता है, उसमें इतने ही परिवर्तन होते जाते हैं। उसमें परवर्ती विद्वानों के विचार भी सम्मिलित होते जाते हैं। अतः हो सकता है कि उसके मूल में कुछ परिवर्धन हुआ हो, किन्तु उसके बाबजूद हम विवकपूर्वक उसका प्रयोग करें तो उसकी उपादेयता समय के साथ परिवर्तित भले ही हो, कम नहीं होती। गीता भले ही महाभारत का अंग हो किन्तु इसे महाभारत से भी अधिक लोकप्रिय प्रबंधनग्रन्थ कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । गीता का प्रभाव भारत में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में है। विश्व की अधिकांश प्रमुख भाषाओं के साहित्य को भी इसने प्रभावित किया है। गीता के महत्व को इसी बात से जाना जा सकता है कि सामान्य जनता या धार्मिक नेता ही नहीं माननीय न्यायाधीश महोदय ने भी गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने का विचार रखा है। गीता है ही एक अद्भुत ग्रंथ। श्रीकृष्ण जैसे प्रबंधशास्त्री का शोध-ग्रंथ गीता देशकाल की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए आज भी सर्वोत्तम ग्रंथों में सम्मिलित है। 
          गीता के बारे में कुछ परिवारों में मैंने कहते सुना है कि यह गृहस्थ को नहीं पढ़नी चाहिए क्योंकि इससे घर में कलह बढ़ता है। यह किवदन्ती इस बात को ध्यान में रखकर बनी होगी कि गीता के ज्ञान को आत्मसात करने के बाद ही अर्जुन युद्ध करने को प्रस्तुत हुआ। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि इससे वैराग्य का जन्म होता है। अतः अपने बच्चों को इससे दूर रखने के प्रयत्न करते हैं। इसको दूसरे दृष्टिकोण से विचार करके देखना उपयुक्त होगा। अर्जुन जीवन-संग्राम से भाग रहा था, उसके अन्दर नैराश्य व पलायनवादी प्रवृत्ति जन्म ले चुकी थी, वह मजबूरी में वैराग्य की और उन्मुख हो रहा था। प्रबंधशास्त्री श्रीकृष्ण द्वारा प्रस्तुत गीता ही वह ज्ञान है जिसकी बदौलत अर्जुन अपने कर्म पथ पर आगे बढ़ा, और उसने न केवल कुशल गृहस्थ के रूप में अपनी भूमिकाओं का निर्वाह किया वरन् एक साम्राज्य का आधार स्तंभ भी बना। अतः गीता गृहस्थ के लिए ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति के लिए न केवल पठनीय है वरन मननीय व अनुकरणीय भी है।
          वर्तमान समय में हम देखते हैं कि धर्म ही सबसे विवादास्पद अवधारणा बनता जा रहा है। ईश्वर के नाम पर क्या-क्या नहीं हो रहा है? अनेकों ईश्वरों का स्रजन मानव द्वारा प्रतिदिन किया जा रहा है। ईश्वर के नाम पर स्वार्थ सिद्धि व मार-काट देखी जा सकती है। मन्दिर, मस्जिद व गिरिजाघर धार्मिक कम झगड़ों के केन्द्र दिखाई देने लगे हैं। इस संबन्ध में हम अपने वैदिक ज्ञान की ओर देखें। हमारे यहाँ तैतीस करोड़ देवी-देवताओं की बात मिलती है। मेरे विचार में यह उस समय प्रचलन में आया होगा, जबकि विश्व की जनसंख्या ही तैतीस करोड़ रही होगी क्योंकि हम प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा का वास देखते हैं और प्रत्येक आत्मा को ईश्वर का अंश मानते हैं। हमारे दर्शन में प्रत्येक पुरुष देव व प्रत्येक स्त्री देवी का रूप मानी जाती है। इसीलिए तो गीता में श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया है: 
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षि शिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य  तिष्ठति।।
          वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है। स्पष्ट है ईश्वर सभी में व्याप्त है और प्रत्येक प्राणी उसी का अंग और अंश है। यहाँ पर ईश्वर की जगह समष्टि शब्द भी रखें तो भी अर्थ सही बैठेगा। हम इस पर बड़े-बड़े उपदेश दे सकते हैं, प्रवचन देते हैं, आलेख लिखते हैं किन्तु इसे स्वयं ही नहीं मानते। यदि हम इसे माने तो दुनिया से लड़ाई-झगड़ा स्वयं मिट जायेगा। यदि हम ईश्वर पर विश्वास करेंगे तो उसकी सर्वव्यापकता को भी मानेंगे। असत्य, भ्रष्टाचार, कदाचार, चोरी, हिंसा जैसे कुकर्मो में लिप्त नहीं होंगे। कोई हमारे लिए दुश्मन नहीं रहेगा। तब हम श्रीकृष्ण द्वारा कहे गये गीता के निम्न श्लोक का अनुशीलन करने में समर्थ हो सकेंगे।
                             सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।
          जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। यहाँ अर्जुन के सन्दर्भ में भले ही युद्ध की बात की गयी हो किन्तु युद्ध का आशय सदैव हथियारों से युद्ध करना ही नहीं होता। जीवन-रण में विचार व आचरण से भी युद्ध लड़ा जाता है। समाज हित में अपनों से ही युद्ध करना पड़ता है। भ्रष्टाचार व आतंक आज की गंभीरतम समस्याएँ हैं। आज हमें इनसे कदम-कदम पर युद्ध करने की आवश्यकता है। अपने आप से युद्ध करने की आवश्यकता है, अपने व अपने परिवार के स्वार्थ से युद्ध करने की आवश्यकता है, अपने ही अधिकारियों के कुकृत्यों से युद्ध करने की आवश्यकता है और यह युद्ध एक-दो दिन का नहीं आजीवन चलने वाला है। अतः प्रतिदिन गीता के अनुशीलन व अनुकरण की आवश्यकता है। फल में आसक्ति का त्याग करके कर्म करने की आवश्यकता है और इसकी प्रेरणा हमें गीता से ही मिलेगी। आधुनिक प्रबंधशास्त्री कार्यस्थल के तनावों को घर, व घर के तनावों को कार्यस्थल पर न लाने की सलाह देते हैं। जबकि श्रीकृष्ण इस बात को कितने समय पूर्व कह गये थे। यह बड़ा ही सरल हो जायेगा यदि हम श्रीकृष्ण द्वारा प्रस्तुत गीता के निम्नलिखित श्लोक को अपने आचरण में उतार सकें।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।
           तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मो के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। इस श्लोक में ये नहीं कहा गया है कि कर्म का फल नहीं मिलेगा। कर्म का फल तो प्रकृति व विज्ञान के नियमों के अनुसार अवश्य ही मिलेगा, क्योंकि जहाँ कारण होगा कार्य भी होगा। हमें करना केवल इतना है कि परिणाम या फल के प्रति आसक्ति का त्याग करना है। हमको धन का त्याग नहीं करना है, धन के प्रति आसक्ति का त्याग करना है। घर-बार छोड़कर जंगलों में नहीं जाना है, केवल आसक्ति को त्याग कर सभी के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना है। अध्यात्म में कंचन और कामिनी को छोड़ने की बात की जाती है। वस्तुतः न तो कंचन को छोड़ने की आवश्यकता है और न ही कामिनी को, इन दोनों के बिना सृष्टि व्यवस्था आगे नहीं बढ़ सकती और कोई भी नियम धर्म का अंग नहीं हो सकता जो प्रकृति के नित्य क्रम को ही बाधित करे। वस्तुतः कंचन और कामिनी को नहीं इनके प्रति आसक्ति को त्यागना है। कर्म को नहीं त्यागना, फल को भी नहीं त्यागना, फल की आसक्ति को त्यागना है। अग्रलिखित श्लोक में भी कर्म करने का आग्रह किया ही गया है। हमें अपने कर्तव्यों का निर्वहन परिणामों की आकांक्षा किए बिना करना है। आधुनिक प्रबंध विज्ञान के समस्त तरीके भी प्रबंधशास्त्री श्रीकृष्ण द्वारा प्रस्तुत इसी आधार पर स्पष्ट किये जा सकते हैं। कार्य प्रबंधन, तनाव प्रबंधन व जीवन प्रबंधन गीता के द्वारा किया जा सकता है।
एतान्यपि तु कर्माणि संग त्यक्तवा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं  मतमुत्तमम्।।
इन यज्ञ , दान और तपरूप कर्मो को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मो को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए; यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है। श्री कृष्ण को ईश्वर व गीता को केवल पाठ करने की एक पुस्तक मानकर हम अपने आप को कृष्ण और गीता से दूर कर लेते हैं। हम कृष्ण को एक विचारक व प्रबंधशास्त्री के रूप में देखकर विचार करें, उनके दृष्टिकोण को समझने व गीता को एव व्यावहारिक ग्रन्थ मानकर अपने जीवन में ढालने के प्रयास करें तो व्यक्ति व समष्टि सभी को शान्ति व आनन्द की प्राप्ति हो सकेगी। हमें अपने कर्तव्यों का निर्धारण करते समय निम्नलिखित श्लोक को सदैव अनुकरणीय सिद्धांत की तरह मानना चाहिए ताकि हम किसी भी प्रकार किंकर्तव्यविमूढ़ न हों।
त्यजेद् एकं कुलं स्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेद्।
ग्रामं जनपद स्यार्थे,   आत्मार्थे  पृथ्वी  त्यजेद्।।
अर्थात हमें कुल या परिवार के हित के लिए अपने हित का त्याग करने, ग्राम के हित के लिए कुल के हित का त्याग करने व जनपद के हित के लिए ग्राम के हित का त्याग करने व आत्मा अर्थात समस्त प्राणी-मात्र के हित के लिए पृथ्वी का त्याग करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। 
प्रबंधशास्त्री श्रीकृष्ण द्वारा प्रस्तुत इस सूत्र को हम अपने कर्तव्यों के निर्वहन में आधाररूप मानकर चलें तो व्यष्टि व समष्टि की अधिकांश ज्वलंत समस्याओं का समाधान आसानी से हो सकता है। वास्तविक बात यह है कि गीता धार्मिक पुस्तक मात्र नहीं है, वह कालजयी प्रबंधन ग्रन्थ है जिसकी उपादेयता आचरण में ढालने पर ही सिद्ध हो सकती है। गीता जैसा प्रबंधन ग्रन्थ देने वाले श्रीकृष्ण को हम ईश्वर घोषित करके उनके प्रबंधन कौशल से अपने आपको वंचित करके हम स्वयं अपने साथ ही अन्याय कर रहे होते हैं। श्रीकृष्ण को ईश्वर घोषित करके हम लोगों ने स्वयं समाज का कितना अहित किया है। इसका आकलन करना संभव नहीं है। किसी मार्गदर्शक को ईश्वर घोषित करके हम उस तक पहुँच से अपने आपको वंचित कर लेते हैं। ईश्वर का अंश तो प्रत्येक मानव में है, उनमें भी था। हमें अपने ईश्वरीय अंश पर विश्वास कर उसका विकास कर सर्वोत्तम कर्म करने को सन्नद्ध हो जाना चाहिए। इसमें सफलता के लिए श्रीकृष्ण द्वारा प्रस्तुत प्रबंधन के सूत्रों से हमारा मार्ग सरल, सुविधाजनक व सफल हो सकता है। अतः आओ हम श्रीकृष्ण के प्रबंधशास्त्री के रूप को पहचाने और उनके प्रबंधन कौशल को समझते हुए उसे अपने जीवन प्रबंधन में आत्मसात करने का प्रयत्न करें।
  


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