कुछ करना सीखें

कहते -कहते युग बीत गया,
अब आओ कुछ करना सीखें।


सूने सपनों का जाल बिछा,
दुख- सुख की तरल तरंगों में।
बहते जाते हैं निराधार,
आशा की अमित उमंगों में।
फिर क्यों न सजग मन मोद सहित,
इस दुस्तर को तरना सीखें?


दुर्गम गिरि ,बीहड़ विजन ,विपिन,
पथ विविध ,किंतु अनजान सभी।
यह भी सच, कहना मुश्किल है,
चलना है कितनी दूर अभी।


प्रिय से मिलने का मोह छोड़,
उर विरह भाव भरना सीखें।


तन,मन,जीवन का विषम रंग,
हर समय बदलता रहता है।
काँचे- साँचे मे मोम सदृश,
गल-गलकर डलता रहता है।


गलते- ढलते पगडंडी पर-
पग संभल- संभल धरना सीखें।


कुछ लोग अमर हैं मर कर भी,
कुछ शव समान ही जीते हैं।
कुछ खड़े अगम गंगाजल में
भरपेट हजाहल पीते है।


दोरंगी दुनिया में दो दिन,
जीना है तो, मरना सीखें।
    -  पं. श्री गयाप्रसाद जी द्विवेदी'प्रसाद'
    ग्राम-गंंगौली,पोस्ट-अमेेठी, जनपद-अमेठी


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