मानस-1

सेवत तोहि सुलभ फल चारी।
बरदायनी पुरारि पिआरी।
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥


हे माता! आप भक्तों को मुँहमाँगा वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं॥ 


मोर मनोरथु जानहु नीकें।
बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं।
अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥


हे माता ! मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं .....इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया, ऐसा कहकर जानकीजी ने माता गौरी के चरण पकड़ लिए॥


बिनय प्रेम बस भई भवानी।
खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ।
बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥


माता गिरिजाजी सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन के गले की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुस्कुराई। सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण किया। गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं॥


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