राजनीति न नौकरी है न सेवा भावना*?

राजनीति नौकरी है न सेवा भावना। क्योंकि राजनीति में जो आता है। वह अपने खुद के कार्यालय में कब बैठेगा नहीं पता। वह अपने कार्यालय में कब आएगा ।कब जाएगा ।कोई तय नहीं होता ।इसलिए तय है कि राजनीति में जो भी रहता है  वह  नौकरी  तो नहीं करता।वह नौकरी नहीं करता है तो उसके खर्च का इंतजाम कैसे होता है। प्रशासनिक राज्य प्रशासन व्यवसाय में इस तरह से हिस्सा लिया होता है कि उसके पास आएगा बहुत सारा जरिया होता है जिसमें सबसे बड़ा जरिया भ्रष्टाचार का होता है बड़े बड़े ठेके वह लेता है। ठेकेदार यह जरिए वह तमाम तरह के भ्रष्टाचार करता है और भ्रष्टाचार का एक हिस्सा अपने आका को भी देता है खुद भी रखता है और अपने नीचे वालों को भी देता है इस तरह उसका भी काम चलता है उसके आका का भी काम चलता है और उसके नीचे जो कार्य करता है उसका भी काम चलता है सब सब कुछ जानते हैं लेकिन कोई किसी का कुछ नहीं बिगड़ता कुछ नहीं करता क्योंकि हर किसी को दौलत चाहिए जो भी राजनीति में है वह उसके साथ जो जुड़ा है वह सभी को दौलत चाहिए इसीलिए सबका एक साथ जमावड़ा होता है एक साथ एक जगह दिखता है लगता है वह बहुत बड़ा व्यक्ति होता है वह सुलझा हुआ व्यक्ति होता है।जब किसी की नौकरी ही नहीं करता तो उसे भी तन तन का पेंशन की जरूरत ही क्या है वह एक ऐसी फैक्ट्री चलाता है जिसका मालिक होता है लेकिन कहीं से भी वह किसी भी रूप में कभी नहीं फंसता सब चीज का इंतजाम करके रखता है इसलिए कभी भी किसी भी तरह से फंसता नहीं दिखाई देता।

          राजनीति सेवा भावना भी नहीं है। राजनीति में जो भी सेवा भावना की जगह थी। वह  भारत में आजादी के कुछ वर्षों तक शायद कायम थी। क्योंकि उस समय आजादी के बाद उन नेताओं  को  बहुत सारा काम करना था। कुछ लोगों ने बहुत काम किया भी रात दिन लगा के  किया।

        आजादी के बाद सेवा भावना से बहुत सारे कार्य भी राजनेताओं ने की है । उनके निर्णय राज्य प्रशासन देश के नागरिक के लिए कुछ हद तक हुआ भी करते थे । आजादी के समय पांच पैसे का पोस्टकार्ड  आता था। जिस पर लिखकर आम आदमी अपने घर तक सूचनाएं पहुंचाता था ।यह फिर 15  पैसे का हुआ फिर 25 पैसे का हुआ और आज यह 50 पैसे का हो गया है।आज एक 50 पैसे का पोस्ता गंतव्य तक भिजवाने में भारत सरकार के 1 रूपया 25 पैसे खर्च होते हैं जब सेवा भावना से कोई कार्य किया जाता है तो यह परिणाम सामने दिखाई पड़ता है जिससे यह प्रतीत होता है कि वास्तव में भारत सरकार सेवा भावना से कोई कार्य कर रही है। लेकिन समय के अनुसार उसकी कीमत में परिवर्तन जरूर होता गया ।पर उस कार्ड में जितनी जगह है ।जितनी सूचनाएं जा सकती है ।वह सूचना जा रही है। यह सेवा भाव से किया हुआ एक ऐसा निर्णय था ।जो भारत देश के  साथ कई देशों में इसी तरह से किए गए। 

 

 

          आजादी के कुछ वर्षों तक देश के राजनेता देश में या विदेश में कहीं जाते थे । तो अपने पैसे से अपने खर्चे पर सारा कुछ करते थे।पर उसमें भी बदलाव आया।

               उस समय भारत वर्ष के एक दल की सत्ता की सत्ता पक्ष की प्रतिमा 90% लोगों का जमावड़ा था।  10% लोग जो दूसरे विचारधारा के विचार रखते थे । उनकी ना सुनी जाती थी ना समझी जाती थी।  हालांकि उन्हें विपक्ष पार्टी पार्टी का सदस्य  होने का दर्जा भी  नहीं  प्राप्त था।

            भारतवर्ष की एकता और अखंडता के लिए कुछ राजनीतिक नेताओं ने जो कार्य उस समय किया। वह सेवा भाव से किया गया कार्य था। सरदार वल्लभभाई पटेल ने देश की एकता के लिए जम्मू कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एक ही फैसला लिया और उस फैसले के तहत अखंड भारत का निर्माण हुआ।

              स्थिति तब बिगड़ने शुरू हुई जब भारत का अन्य देशों के साथ आयात निर्यात का कार्य जोरों पर चलने लगा। विकास का कार्य भारत में होना था।  इसलिए भारत के राजनेताओं ने दूसरे देश के राजनेताओं से बातचीत चर्चा प्रारंभ किया ।दूसरे देशों से आयात निर्यात के संधियों पर हस्ताक्षर किए जाने लगे। भारत में भी खुशहाली आई कुछ और देशों में भी जब इस तरह से कार्य किया जाने लगा तो उस देश में भी विकास होने लगा। जनता में खुशहाली जाए जनता को रोजगार मिला कार्य कुछ हद तक किया भी गया। 

       जब  एक देश का विकास होता गया । उस देश की जनसंख्या बढ़ने लगी। विश्व के बड़े बड़े देश आपस में संबंध स्थापित करने लगे बड़ी-बड़ी संध्या होने लगी लंबे चौड़े कार्य करने के लिए लंबा चौड़ा संधि भी होने लगा शांति समझौते के लिए समझी होने लगी। तो 1 दिन से देश में विकास करने के लिए लंबी चौड़ी संध्या करने लगा अमेरिका और रशिया ने मिलकर पूरे देश को ही नहीं पूरे विश्व समुदाय को बता दिया पूरे विश्व में शांति के लिए उन्हें मिलकर माहौल बनाना होगा। यह कार्य जो किया गया व राजनीतिक भावना से नहीं विकास की भावना से किया गया इसलिए राजनीति में किया गया कार्य देश हित विश्व हित  में माना जाएगा । जब यह हो रहा था तो उसी के अनुरूप विकास करने के लिए पूरे विश्व में होड़ सी मच गई। 

 

         द्वितीय विश्व युद्ध तक बहुत सारे देश विश्व युद्ध के चपेट में इस तरह से आ गए थे कि उन्हें पुनः अपने पैरों पर खड़ा होना था। राष्ट्र संघ /संयुक्त राष्ट्र संघ/ विश्व स्वास्थ्य संगठन सब बन चुके थे।  इन संगठनों में कई देश के राजनेताओं ने जोर दिया कि संगठन को मजबूत किया जाना चाहिए और वास्तव में संगठन मजबूत हुआ भी इसी का वजह की अब तक तृतीय विश्व युद्ध  की धमक सुनाई अवश्य  देती है होती नहीं है। कभी अमेरिका का पड़ रहा किसी देश के प्रति भारी हो जाता है तो कभी रसिया कर ले कर ले देकर हिंदू राष्ट्र के साथ पूरा विश्व अलग नजर आता है। पर वार्ता चर्चा के बाद सब कुछ ठीक-ठाक हो जाता है।

               कई देशों ने कई प्रांतों ने एकजुटता के साथ एक निर्णय लिया और यूएसएसआर नाम के एक राष्ट्र का उदय हुआ। लेनिन की विचारधारा ने  विश्व में क्रांति मचाई। मजदूरों की बात सुनी गई। उसी समय विश्व के कुछ देशों को लगा कि अगर विश्व में इस तरह की  भावना बरकरार रही। सारे देश इस तरह कार्य करते रहे तो उनकी दाल कैसे करेगी।

           फिर अंदर अंदर खेला जाने लगा और राजनीति सेवा के जगह पर व्यवसाय बनती नजर आई ।भारत में भी राजीव गांधी सरकार कार्य कर रही थी ।अच्छा कार्य कर रही थी कंप्यूटर जमाने में आ गया था। लगा कि देश की सरकार देश की जनता के लिए बहुत कुछ कर रही है ।तभी वीपी सिंह ने बोफोर्स कांड का हवाला देकर कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ कर दिया। फिर तो राजनीति में मुद्दा आ गया।  राजनीति सेवा/सेवा भावना  से कब मुद्दा वाली बात बन गई । यह राजनीतिज्ञ को भी नहीं पता चला। आपसी खींचतान में एक दल दूसरे दल से अपने को बेहतर दिखाने की लालसा में बहुत कुछ ऐसा करने लगा जहां राजनीति सेवा भाव से नहीं राजनीतिक भ्रष्टाचार के रूप में दिखाई पड़ने लगी।

          कहते हैं जब राजनीतिज्ञों का मन काला हो जाता है ।तब सब कुछ सब  जगह  काला ही नजर आता है।बोफोर्स कांड में दलाली हुई या नहीं हुई। यह आज तक भी किसी को नहीं पता ।लेकिन दलाली का किस्सा एक से एक नजर आया। हवाला कांड/ रिश्वतखोरी/ भ्रष्टाचार का एक ऐसा  सिलसिला चल पड़ा जो आज तक बदस्तूर जारी  है। एक दल  दूसरे दल को भ्रष्टाचारी बताता है एक नेता दूसरे नेता को भ्रष्टाचार से युक्त बतलाता है। जबकि सच्चाई यह है कि राजनीति के हमाम  में सारे के सारे  नंगे  सभी भ्रष्टाचारी हैं। एक आध कभी कभार  कोई ईमानदार दिख   भी जाता है । अगर  वह राजनीति सेवा भावना से काम  कर रहा है तो उसके ऊपर भी इल्जाम लग जाता है ।उसे भी उसी में लिप्त  हुआ मान लिया जाता है।  क्योंकि जब जवाब 100 में 90 की होगी तो वहां  10 वाले की औकात क्या होगी? जो जितना तेज तर्रार वह उतना ही बड़ा नेता जो जितना बड़ा भ्रष्टाचारी वह उतना ही सफल नेता जो जितना बड़ा रिश्वतखोर वह उतना ही बड़ा तिकड़म बाग  इस राजनीति में माना जाता है।

        जो थोड़े बहुत होशियार थे। वह दूसरे दर्जे के नेता बन गए। नेताओं ने भी जानबूझकर कुछ ऐसे नेताओं को आगे आने का बढ़ावा दिया। जिससे उनकी रोटी हमेशा फिट बैठती रहे। वो दिल्ली में रहे चाहे वह बिहार में रहे  उससे कुछ भी वहां करवा लो। पंजाब में करवा लो जम्मू में करवा लो।इसके लिए उन्होंने इस रूप में नेताओं का भरमार लग गया ।आज देश का 10% हिस्सा नेताओं का  है । 10% जनसंख्या नेताओं की है  यह अपने लिए सब कुछ करने के लिए तैयार हैं। इनका बस एक ही मकसद है कि किसी भी तरह से  बेशुमार दौलत उनके पास हो।

             अतीक अंसारी नामक भ्रष्ट  सांसद 5 से 6 बार सांसद कैसे बना? किसने इसे वोट दिया? आम जनता ने। जो कि आम जनता भी यही सब चाहती है कि इस तरह के लोग रहे। आम जनता के बीच जाने वाले बॉलीवुड के फिल्म कलाकार भी जीत जाते हैं ।लेकिन एक सच्चा नागरिक जो देश के लिए काम करना चाहता है। वह कभी भी राजनीति में जीत नहीं पाता ।उसके लिए राजनीतिक सेवा भावना है। वह सेवा भावना से राजनीति करना भी चाहता है ।चाहे वह सिक्किम का भूतपूर्व  मुख्यमंत्री हो या किसी छोटे से प्रदेश के एक विधायक । उन्होंने  सेवा भावना से सबकुछ पूरी जिंदगी किया। अगर यह सांसद यह राजनेता अगर इमानदारी से देश सेवा कर रहे होते/ देश सेवा भावना से कार्य कर रहे होते तो सांसद निधि के रूप में इनके पास जो पैसा पहुंचता है उस पैसे का शतप्रतिशत  उपयोग जनता के लिए करते  ।लेकिन कोई भी सांसद अपनी निधि का  कार्य इस रूप में नहीं करता। इसलिए सांसद रहने की समय तक की अवधि में वह पूरा पैसा खर्च नहीं कर पाता और इस तरह जो पैसा बसता है वह वापस उसी निधि में पहुंच जाता है।

         इसलिए हमें यह मत सबूत के यह मान लेना चाहिए । कि राजनेता जो भी कार्य करते हैं अपने लिए करते हैं ।अपने शौक के लिए करते हैं ।जनता के लिए नहीं करते। इसलिए इनके द्वारा किया गया। कार्य सेवा भावना का कार्य नहीं माना जा सकता।इन्होंने जो कुछ सामने किया  उसे  सेवा भावना से ही  किया । जिन्हें सब कुछ करना है तो वह हमेशा सेवा भावना से ही सब कुछ राजनीति में करेंगे। दलगत राजनीति से ऊपर उठकर जनता के लिए क्रांतिकारी योजनाएं बनाएंगे। उसको उस पर अमल करेंगे और जनता को अहसास भी कराएंगे कि वह राजनीति में सेवा भाव से आए है। 

 

       डॉ ए पी जे कलाम ने राजनीति में एक मिसाल पेश की। जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके चल अचल संपत्ति कुछ भी नहीं की। सेवा भाव से जो व्यक्ति का कार्य करता है निश्चित रूप से उसके पास कुछ नहीं होता नहीं तो बड़े-बड़े देश के मुख्यमंत्री मंत्री राज्यपाल मृत्यु उपरांत चल और अचल संपत्ति करोड़ों में पाई जाती है।

          आज के नेता सेवा भावना से राजनीति करने के लिए नहीं आए। वह तो मलाईदार पोस्ट के लिए भी प्रशासनिक अधिकारियों को से उनसे पैसे लेते खाते हैं ।भ्रष्टाचार के दलदल में इतने डूबे हुए हैं की प्रशासनिक अधिकारियों के कागजी कार्रवाई की वजह से बच भी जाते हैं और अपने घर में दौलत का खजाना इकट्ठा भी कर लेते हैं।

        राजनीति करने वाले जैसे ही चुनाव जीतकर संसद में जाते हैं। विधानसभा में जाते हैं दिखलाते तो ऐसा हैं की यह सारा का सारा कार्य क्षेत्र में जनता के बीच में कर रहे हैं । सांसद हो या विधानसभा यह वहां हल्ला खूब मचाते हैं एक-दूसरे पर कुर्सियां फेंकते हैं पर आपस में गले मिलकर बाहर निकलते हैं सारे शिकवा शिकायत सांसद भवन में करते हैं क्योंकि उसकी लाइव तस्वीर जनता देखती है फिर भी जनता इन्हें को पुनः चुन लेती है जनता कहती है कि हमारे पास और कोई चारा नहीं है उन्हें अच्छे व्यक्ति दिखलाए ही नहीं पड़ते।

            पर राजनेता  वास्तव में वह अपने लिए आगे के लिए रास्ता बनाते हैं ।अगर वह संसद भवन में एक दूसरे पर कीचड़ उछाल उछालते हैं तो इसमें भी वह राजनीति होती है ।पहले से तय शुदा होता है कि राजनीति में कितनी कीचड़ उछालने है?  किसके ऊपर उछालने  हैं? कब  पीछे हटना है? कब क्षमा मांगना है। कब आगे जाना है। जब इनके वेतन भत्ते की बात होती है। सारे सांसद एक हो जाते हैं और अपने वेतन भत्ते की बात करते हैं और उसमें निरंतर बढ़ोतरी  करते और करवाते हैं। जनता के सेवक आयोग बनाकर उसके तहत जनता की सेवाओं का मूल्य जनता को अदा करने रास्ता बनाते हैं। यह जानबूझकर जनता के लिए लंबी चौड़ी बातें करते हैं जनता को उलझा कर रखते हैं। लेकिन अपने लिए खुद कोई भी  रास्ता कुछ दिन में ही बना लेते हैं ।इसीलिए आज देश के सांसदों का वेतन भत्ता कितना अधिक है कि वह आज के समय में बड़े-बड़े प्रशासनिक अधिकारियों को  भी वह वेतन भत्ते  नहीं मिलते।

         देश की संसद भवन में इन्होंने अपने लिए  एक ऐसा दरवाजा बनवा रखा है ।जिसके कोई पार कर नहीं जा सकता ।उन्होंने इतने सारे संविधान में बदलाव कर दिए गए हैं। तो उस पर इनके मिलने वाले लाभ को भी कोई समाप्त नहीं कर सकता ।किसी ने अगर कोशिश भी की तो उसकी आवाज दबा दी जाएगी। क्योंकि इन लोगों ने मान रखा है कि संसद  भवन में जाना विधानसभा में जाना। इनका एकाधिकार है और इसके लिए जो कुछ भी करना है। वह सांसद या विधायक बनने के लिए कुछ भी नहीं करते ।अपना धन भरने अपने लोगों की अच्छी-अच्छी नौकरियां दिलवाने अपने लोगों को बचाने अपने लोगों को जेल से छुड़ाने। अपने लोगों को और भ्रष्टाचार करने के लिए उनकी सहायता करने के लिए वे राजनीति में  पहुंचते हैं।

      अगर राजनीति नौकरी होती तो सारे नियम प्रशासनिक अधिकारियों के लिए जैसे बने हुए हैं। उसी तरह से उनके लिए भी नियम बनता। परंतु जब राजा यह बने हुए हैं। शासन इनका। सेना इनकी। कलम चलाने वाले इनके तो फिर इन्हें किस बात का डर है इसीलिए आजादी के इतने साल बाद ही भारतवर्ष में संपूर्ण देश की एक ही स्थिति है कि राजनीति करने वाला नेता एवं भावना से कोई कार्य नहीं करता।

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