आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य में परम्परा और आधुनिकता का समन्वय दिखायी पड़ता है:- डाॅ. सदानन्दप्रसाद गुप्त


आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य में परम्परा और आधुनिकता का 
समन्वय दिखायी  पड़ता है:- डाॅ. सदानन्दप्रसाद गुप्त



लखनऊ। शनिवार 31 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी स्मृति समारोह का आयोजन गूगल मीट के माध्यम से किया गया। संगोष्ठी की अध्यक्षता डाॅ. सदानन्दप्रसाद गुप्त, मा. कार्यकारी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा की गयी। संगोष्ठी में सम्मानित अतिथि के रूप में डाॅ. जयप्रकाश, चण्डीगढ़, डाॅ. सुधीर प्रताप सिंह, दिल्ली, डाॅ. श्रीराम परिहार, खण्डवा एवं डाॅ. सिद्धार्थ शंकर, छपारा उपस्थित रहे। 
 अभ्यागतों का श्रीकांत मिश्रा, निदेशक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने करते हुए कहा - उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा संचालित साहित्यिक समारोह योजना के अन्तर्गत आयोजित सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, स्मृति समारोह में आप सब का स्वागत करते हुये हिन्दी संस्थान परिवार गौरवान्वित है। कोविड-19 के कारण उत्पन्न विषम परिस्थितियों में आॅन-लाइन के माध्यम से आप सबसे जुड़ने का प्रयास हम कर रहें है, जिसमें साहित्य मनीषियों, विद्वान वक्ताओं का निरंतर सहयोग एवं प्रोत्साहन हमें प्राप्त हो रहा है, जिसके लिए हम हृदय तल से अभारी है।
 आज की यह संगोष्ठी उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के पहले माननीय कार्यकारी उपाध्यक्ष, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के रचना संसार को रेखांकित करने के उद्देश्य से आयोजित की गयी है। संस्थान के माननीय कार्यकारी अध्यक्ष, डाॅ0 सदानन्द प्रसाद गुप्त की अध्यक्षता में हम सुप्रसिद्ध विद्वान डाॅ0 जयप्रकाश, जिन्होंने आचार्य जी को निकट से जाना-पहचाना है, के संस्मरण सुनेंगे साथ ही सुप्रसिद्ध साहित्यकार डाॅ0 श्रीराम परिहार खण्डवा, (मध्य प्रदेश), डाॅ0 सिद्धार्थ शंकर, छपरा (बिहार), डाॅ0 सुधीर प्रताप सिंह, (दिल्ली), आचार्य जी के विराट साहित्यिक व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों पर अपने विचार प्रस्तुत करेंगे। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के साहित्य के अनेक ऐसे पक्ष हमारे सामने विद्वान वक्ताओं द्वारा रखें जायेंगे, जिनसे हमारी युवा पीढ़ी सम्भवतः अनभिज्ञ है।



 आज इस संगोष्ठी के माध्यम से हम अपने साहित्यिक पूर्वज आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, का स्मरण करते हुये हिन्दी साहित्य की गौरवशाली परम्परा को सादर नमन कर रहें है, आप सबका स्वागत एवं अभिनंदन है।
सम्मानित अतिथि के रूप में उपस्थित डाॅ. सुधीर प्रताप सिंह ने कहा - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का आचार्य शुक्ल से कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं था। उनके दृष्टिकोण में अन्तर था। आचार्य द्विवेदी के व्यक्तित्व की निर्मिती में विरोधाभास भी दिखायी देता है। द्विवेदी जी की आलोचना दृष्टि को हम एक सूत्रा में नहीं रख सकते।
सम्मानित अतिथि के रूप में उपस्थित डाॅ. सिद्धार्थ शंकर ने कहा - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाणभट्ट की आत्मकथा उपन्यास से उपन्यासकार के रूप में पहचान मिली। चारुचन्द्र ले
और पुनर्नवा को ऐतिहासिक उपन्यास की श्रेणी में रखा जाता है। उन्होेंने अपने उपन्यासों को गल्प कहा। उन्होंने ऐतिहासिक संदर्भ को वर्तमान परिवेश से जोड़ने का सफल प्रयास किया। वे ऐतिहासिक जय यात्रा को जन सामान्य से आचार्य द्विवेदी के साहित्य चिन्तन में परम्परा और आधुनिकता का समन्वय देखने को मिलता है। उनके उपन्यास समाज के उपेक्षितों को आवाज देने का काम करते हैं। कबीर का स्वरूप उनके साहित्य में विभिनन रूप में उपस्थित रहता है। वे परम्परा की रूढ़ियों को तोड़तर आधुनिकता का बोध कराते हैं। लोक और शास्त्रा का समन्वय भी उनके उपन्यास में देखने को मिलता है। 
सम्मानित अतिथि के रूप में उपस्थित डाॅ. श्रीराम परिहार ने कहा - डाॅ. द्विवेदी का गहन अध्ययन, चिंतन, भारतीय संस्कृति, इतिहास, धर्म, दर्शन में स्पष्टतः परिलक्षित होता है। आचार्य द्विवेदी के निबन्ध मनुष्यता की अविराम यात्रा है। आचार्य द्विवेदी के ललित निबन्धों में मनुष्य की जय यात्रा को वाणी मिलती है। उन्होेंने परम्परा का पुर्नआख्यान किया है। वे आश्रम संस्कृति का निर्माण अपने निबन्धों में करते हैं। आचार्य द्विवेदी साहित्य का मनुष्य का सहज विश्वास मानते हैं। वे परम्परा के भीतर से संवेदना के सूत्रा ग्रहण करते हैं। 



सम्मानित अतिथि के रूप में उपस्थित डाॅ. जयप्रकाश ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी से जुड़े संस्मरण सुनाते हुए उनके सरल सहज व्यक्तित्व की चर्चा की। वे व्यक्ति के रूप में मानवतावादी थे और साहित्य में मानवादी। उनके व्यक्तित्व में मानवतावाद आर्ष ग्रंथों से आया। द्विवेदी जी कवि स्वभाव थे वे मन से अधिक उदार थे। द्विवेदी जी को अट्टहास प्रसिद्ध था। वे प्रायः यात्राओं पर रहते थे। द्विवेदी जी के दन्तोड़ छन्द की चर्चा काफी समय तक चलती रही। ‘अनामदास का पोथा’ उपन्यास में उन्होेंने अपने नाम की व्यवस्था की थी। वे धर्म के अविरोधी भाव के पोषक थे। वे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर केा बहुत मानते थे और नेहरू परिवार पर उनका विशेष स्नेह था। इन्दिरा जी को शान्ति निकेतन में उनका संरक्षण प्राप्त था। द्विवेदी जी का सारा लेखन मध्यकालीन बोध से जुड़ा हुआ था उनका मानना था कि आधुनिकता बोध मध्यकालीन बोध से जुड़ा हुआ मानते थे।
अध्यक्षीय सम्बोधन में डाॅ. सदानन्द प्रसाद गुप्त, मा. कार्यकारी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने कहा - हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसा विराट व्यक्तित्व हिन्दी संस्थान की स्थापना के समय से जुड़े कार्यकारी उपाध्यक्ष के रूप में जुड़े। द्विवेदी जी भारतीय परम्परा में संलग्न रचनाकार थे। द्विवेदी जी सारे संसार का एक मानव धर्म मानते थे। संस्कृति, अपभ्रंश, प्राकृत के साहित्य का प्रभाव उनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। वे अपनी परम्परा पर गर्व करते थे। द्विवेदी जी के निबन्धों में भारतेन्दु से प्रारम्भ हुई परम्परा का विकास दिखायी देता है। द्विवेदी जी का मानना था कि निबन्धों में विचार तत्व होते हैं। उनके निबन्धों में उनका व्यक्तित्व स्पष्ट परिलक्षित होता है। डाॅ. द्विवेदी जी के निबन्धों में तीखे व्यंग्य देखने का मिलते हैं। उनके निबन्धों को पढ़ना एक सांस्कृतिक यात्रा करने जैसा है। द्विवेदी जी ने परम्परा और आधुनिकता पर विचार करते हुए दोनों को एक दूसरे का पूरक बताया है। वे कहते हैं परम्परा आधुनिकता को आधार देती है। 
अभ्यागतों का स्वागत श्री श्रीकांन्त मिश्रा, निदेशक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा किया गया तथा संचालन डाॅ. अमिता दुबे, सम्पादक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने किया। 


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