अपने बेगाने हुए, दुश्मन के घर मित्र !

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हाथ मिलाते गैर से, अपनों से बेजार।

सौरभ रिश्ते हो गए, गिरगिट से मक्कार।।

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अपनों से जिनकी नहीं, बनती सौरभ बात !

ढूंढ रहे वो आजकल, गैरों में औकात !!

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उनका क्या विश्वास अब, उनसे क्या हो बात !

सौरभ अपने खून से, कर बैठे जो घात !!

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चूहा हल्दी गाँठ पर, फुदक रहा दिन-रात !

आहट है ये मौत की, या कोई सौगात !!

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टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव !

प्रेम जताते ग़ैर से, अपनों से अलगाव !!

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गलती है ये खून की, या संस्कारी भूल !

अपने काँटों से लगे, और पराये फूल !!

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ये भी कैसा प्यार है, ये कैसी है रीत !

खाये उस थाली करे, छेद आज के मीत !!

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चारों ओर गिरे हुए, रिश्ते लाज चरित्र !

अपने बेगाने हुए, दुश्मन के घर मित्र !!

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सीखा मैंने देर से, सहकर लाखों चोट !


लोग कौन से हैं खरे,और कहाँ है खोट !!

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राय गैर की ले रखे, जो अपनों से बैर !

अपने हाथों काटते, वो खुद अपने पैर !!

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ये भी कैसा दौर है, सौरभ कैसे तौर !

अपनों से धोखा करें, गले लगाते और !!

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अपनों की जड़ खोदते, होता नहीं मलाल !

हाथ मिलाकर गैर से, करते लोग कमाल !!

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अपने अब अपने कहाँ, बन बैठे गद्दार।

मौका ढूंढें कर रहे, छुप-छुपकर वो वार।।

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आज नहीं तो कल बनें, उनकी राह दुश्वार।

जो रिश्तों का खून कर, करें गैर से प्यार।।

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