अपराध समाचार, हमें बना रहे बीमार


हमारा समाज विकास के उच्चतम सोपान पर पहुँचकर अब ढलान पर फिसल चला है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता है और अख़बार इस साहित्य (सूचनाप्रद, ज्ञानप्रद और विचारपरक सभी) को हम तक पहुँचाने का माध्यम हैं और इस नाते वे समाज के सबसे सुस्पष्ट, सुग्राह्य और सुलभ आइने हैं। लिहाजा सदियों से चली आती इस प्रपत्ति को सिद्ध करने के लिए कहीँ और जाने की ज़रूरत नहीं है। किसी भी दिन का अख़बार उठाइए, उसे खोलने की भी ज़रूरत नहीं, बस उसका मुखपृष्ठ देख लीजिए और आप सखेद, स्वीकार कर लेंगे कि हमारा समाज अब पतनोन्मुख हो चला है। इसके पश्चात् अपना माथा पीटेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं, क्योंकि अब आपको ऐसी ही खबरों की आदत पड़ चुकी है और किसी-किसी को तो चस्का लग चुका है।



समाज में अपराध-वृत्ति तेजी से बढ़ रही है। अख़बार इस अपराध-वृत्ति को समाज के सामने पूरी शिद्दत से उजागर कर रहे हैं। अपराधों को उजागर करने की इस प्रक्रिया में क्या हमारे समाचार पत्र अपने पाठकों में सनसनी फैला रहे हैं, उनके कौतूहल में वृद्धि कर रहे हैं, उनकी संवेदना को अपराधों के प्रति धीरे-धीरे कुंद कर रहे हैं, अपराधों के प्रति समाज के प्रबुद्ध वर्ग को उदासीन बना रहे हैं और इस प्रक्रिया में अपना सर्कुलेशन बढ़ाकर अपने आर्थिक हित सिद्ध कर रहे हैं? कुल मिलाकर आज अख़बार-नवीसी के पेशे पर सवालिया निशान लगाने और उससे जुड़े लोगों से ऐसे सवाल पूछने की ज़रूरत महसूस होने लगी है।


अख़बार ही नहीं, इन्टरनेट, विभिन्न टीवी चैनल, सामाजिक नेटवर्क आदि भी आज इसी प्रकार की सामग्री अपने-अपने दर्शकों, पाठकों और उपभोक्ताओं को परोस रहे हैं। इस्लामिक कट्टरपंथी यदि किसी निर्दोष और असहाय बंधक का सिर कलम करते हैं, या उसे ज़िन्दा जलाते हैं तो उस पूरे दृश्य को, पूरी वीभत्सता के साथ किसी न किसी माध्यम से आम नागरिकों के सामने परोस दिया जाता है।


आइए, हम अपने इतिहास में कुछ सदी पीछे, अपने काव्य-शास्त्रीय साहित्य और उसके ज़रिए स्थापित मापदंडों की ओर चलते हैं। भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में मृत्यु के दृश्यों के मंचित करने की मनाही थी। मृत्यु के जितने प्रसंग आते हैं उन्हें नेपथ्य में घटित दिखाकर उससे आगे की कहानी मंच पर प्रदर्शित की जाती है। इस परंपरा का हम लंबे समय से पालन करते आए हैं। यह पलायनवाद नहीं, बल्कि शिवम् और सुन्दरम् की अवधारणा का अंगीकरण है। मृत्यु जीवन का अंतिम पड़ाव है, हो सकता है वह अंतिम सत्य भी हो। किन्तु जीवन सुन्दर नहीं है, यह कौन कहता है? रंग-मंच का स्थान टेलीविज़न और नेट ने ले लिया है। इस नवोन्मेषी मंच पर भी मृत्यु का मंचन क्यों होना चाहिए? इससे हम विद्रूपता, कुत्सा और जुगुप्सा से अलावा और क्या हासिल कर लेंगे? क्या इसीलिए हम टीवी देखते हैं?


मानव जीवन में जितनी विद्रूपता हो सकती है, उसका चरम है मृत्यु। मृत्यु से पहले मानव जीवन तमाम तरह की बीभत्स, त्रासद और भयावह स्थितियों से गुज़रता है। सुन्दर स्थितियों से भी गुजरता है, यह कहने की ज़रूरत नहीं।  बलात्कार, यौन विकृतियाँ, जीवित मनुष्य का हाथ-पैर, सिर आदि कलम कर देना, किसी को तड़पा-तड़पाकर मौत के घाट उतारना, उन्माद की अवस्था में किसी मनुष्य को तरह-तरह की यातनाएं देना, डकैती, हत्या, लूट-खसोट, चोरी, झगड़े, मार-पीट, मरणांतक दुर्घटनाएं आदि-आदि, अपराध और मृत्यु तक ले जाने के जितने प्रकार व तौर-तरीके हो सकते हैं, उन सबकी रिपोर्टिंग और चाक्षुष प्रदर्शन अनिवार्य है क्या? यह किस पेशे की ऐसी विवशता है कि जिसके निष्पादित न होने पर आपकी आजीविका अथवा आपका अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा?


अपराधों को प्रकाश में न लाएं तो क्या चैनल बन्द हो जाएँगे? क्या उनसे जुड़े पत्रकार व तमाम अन्य कर्मी बेरोजगार हो जाएँगे? यदि हो जाते हों तो हो जाएं। बुराई फैलाकर की गई कमाई से वरेण्य तो यही होगा कि बुराई से दूर रहते हुए भूखों मर जाएं। किन्तु हमें तो नहीं लगता कि बुराई के प्रदर्शन से दूरी कायम करने पर ऐसा हो जाएगा। अपराधों को प्रमुखता से प्रकाश में लाने से समाज में एक प्रकार की कुत्सा, अपराध-वृत्ति के प्रति उदासीनता ही नहीं, बल्कि उनके प्रति स्वीकार-भाव भी विकसित हो रहा है। इसे एक दृष्टान्त से समझें। पहले पुरुषों के समलैंगिक सम्बन्धों को एक बुराई समझा जाता था। लोग गाली देने के लिए ऐसे संबंध-सूचक शब्द (..डू) का इस्तेमाल करते थे। इसकी इतनी रिपोर्टिंग (और पैरोकारी) हुई कि अब समाज ने इस तरह की अभिरुचि को सहज स्वीकार्य मान लिया है। ...खैलों की स्थिति पहले समाज में गर्हित मानी जाती थी। इस वर्जना का लाभ यह था कि महिलाएँ और पुरुष उस तरह के सम्बन्ध रखने से कतराते थे। जब से इस प्रकार की महिलाओं व उनके बच्चों को कानूनी हक़ मिलने लगे हैं, उनके प्रति समाज का रवैया बदल गया है। वह दिन दूर नहीं, जब ऐसे सम्बन्धों के प्रति नकारात्मकता का भाव तिरोहित हो जाएगा। वही स्थिति बलात्कार, हत्या आदि की होती जा रही है। इन घटनाओं को मीडिया, अखबारों आदि में इतनी प्रमुखता से प्रकाश में लाया जाता है कि दर्शक व पाठक उनके प्रति निस्पृह होने लगते हैं। पहले जघन्य और भयावह लगने वाली ये बातें धीरे-धीरे हमारे दैनंदिन जीवन की आम घटनाओं में तबदील हो जाती हैं। हम उनसे इम्यून हो जाते हैं।


समाज में सद्भावना कायम रखने और सकारात्मक वातावरण बनाए रखने की दृष्टि से हमारा प्रस्ताव है कि दैनिक समाचार पत्र हर रोज अपने पहले पेज पर हत्या, बलात्कार आदि अपराधों की खबरें न छापें। छापना ही हो तो पीछे के किसी पन्ने पर बहुत संक्षेप में छापें। यदि अखबारों को लगता है कि विस्तार से खबर छापना ज़रूरी है तो हफ्ते का कोई एक दिन ऐसा तय कर लें, जिसमें हफ्ते भर के अपराध-समाचार ही छापे जाएँ। पाठकों को इसकी सूचना पहले से ही दे दी जाए। पूर्व सूचना होने पर ऐसे पाठक ही उस दिन का अख़बार खरीदेंगे जिन्हें अपराध समाचार पढ़ने में ज्यादा आनन्द आता है। समाज-मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसका लाभ यह होगा कि मासूम बच्चे, कोमल-हृदय महिलाएं और बच्चियाँ, सुसंस्कारी एवं सुरुचि-संपन्न नागरिक ऐसी कुत्सित खबरें ज़बरिया पढ़ने से बच जाएँगे। अख़बार-नवीस तर्क दे सकते हैं कि आपको कौन कहता है कि ऐसी खबरें ज़रूर पढ़ें। आप चाहें तो उधर देखें ही नहीं। यह इतना आसान नहीं है भइयाजी। बुराई की यही तो खासियत है। उसकी ओर लोग खिंचे चले जाते हैं। इसलिए बेहतर तो यही होगा कि बुराई के इस चुम्बक को आप अपने ही पास सीमित रखें। समाज के स्वास्थ्य के लिए यह बहुत ज़रूरी है। टीवी, इन्टरनेट आदि पर भी इसी तरह की आचार-संहिता लागू की जानी चाहिए। तभी समाज में अपराध-प्रवणता कम हो पाएगी।


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