चौथे पहर का सपना [कहानी]

बद्रीनाथ की रात की पारी थी। सर्वोच्च न्यायालय मैं चौकीदार है वह । मार्च का महीना है लेकिन हवा में अच्छी खासी ठंडक है।उसने परिसर का एक चक्कर लगाया और चादर लपेटकर कुर्सी पर आ बैठा।रात का चौथा पहर वैसे भी ठंडक वाला होता है। अचानक उसकी नजर कोर्ट रूम के अंदर जलती हुई लाइट पर पड़ी। उसे याद था पिछले राउंड में उसने सारी बत्तियां चेक की थीं। उस समय सिर्फ बाहर की सिक्योरिटी लाइटें जल रहीं थीं। उसने गार्ड रूम की तरफ दौड़ लगाना चाहा, जहां सारी चाबियां रहती हैं,  लेकिन उसके कदम कोर्ट रूम की तरफ अनायास ही बढ़ गए। चाबियां लेने के पहले उसने खिड़की से झांक कर चेक करना जरूरी समझा। खिड़की खुली हुई थी। अंदर का दृश्य देखकर वह अवाक रह गया।सब सपना सा लगा। मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठे चित्रगुप्त महाराज को उसने आसानी से पहचान लिया।दूज पर्व पर इनकी ही तो वह पूजा करता है। साथ ही अन्य पांच जजों की बेंच भी सजी हुई थी। चित्रगुप्त जी ने घोषणा की - " आज मैंने वायु, जल, पृथ्वी, अग्नि और आकाश के साथ यह विशेष बेंच लगाई है। नारियों, कमजोरों और गरीबों के विरुद्ध धरती पर जिस तरह अपराध बढ़ रहे हैं और मेरी पोथी की सारी योजनाएं जिस तरह उलट-पुलट हो रही हैं, एक समीक्षा बहुत जरूरी हो गई है। न्याय का यह मंदिर समीक्षा के लिए सबसे उचित स्थान है।न्याय  का राज कायम करने की जिम्मेदारी न्याय की मूर्ति की थी इसलिए पहला मुकदमा इन्हीं के खिलाफ बनता है।"



 


बद्रीनाथ ने देखा न्याय की देवी की मूर्ति आंखों में पट्टी बांधे, हाथों में तराजू लिए कटघरे में खड़ी थीं।बद्रीनाथ  चित्रगुप्त के कायल हो गए। एक तो न्याय को भी याद दिला दिया कि उसके ऊपर भी कोई है और ऊपर से नारी और कमजोरियों के न्याय के लिए नारी की बहुमत वाली बेंच भी लगा ली।वाह, महाराज की जय हो।


 


न्यायमूर्ति पृथ्वी ने पहला सवाल दागा-" नारी हो फिर भी नारी के प्रति अन्याय क्यों हो रहा है


 


आंखों में पट्टी बंधी है फिर तराजू में न्याय का सही तौल कैसे कर और देख पाती हो?"


 


न्यायमूर्ति वायु ने आकड़ों पर नजर डालते हुए पूछा-" बलात्कार के आधे से कम मामले ही न्यायालय तक आ पाते हैं ,और उनमें से मुश्किल से पांच प्रतिशत  से कम न्याय पाते हैं,  वह भी आधा अधूरा। बड़े बड़े अपराधी फिर भी छूट जाते हैं?"


 


न्यायमूर्ति आकाश ने कहा-" इससे भी बुरा हाल घरेलू हिंसा, नारी उत्पीड़न, और नारी तथा कमजोर तबके के विरुद्ध अन्य अपराधों का है।"


 


न्याय की मूर्ति ने सफाई दी-" मी लॉर्ड मैं भी बेबस हूं।संविधान और कानूनी किताबों ने मेरा यही रूप गढ़ा है। संविधान की व्याख्या और उसमें होते संशोधन, राजनीति से प्रेरित केसों की प्राथमिकता,इन्हीं सब में मेरा वक्त निकल जाता है। ऊपर से काले कोट का मायाजाल।अच्छे अच्छे  पानी मांगें।आजकल तो इनमें बहुत से कोट डबल रोल में हैं ।यहां तो कानून की मनमानी व्याख्या करते ही हैं,दूसरे रोल में  टोपी बनकर कानून बनाते हैं और उसका माखौल उड़ाते हैं। और तो और थोड़ा बहुत ये न्याय की कुर्सी का खेल भी तो रच लेते हैं। इन्होंने वर्दी को भी चाहे खाकी हो या सफेद अपने जाल में फंसा रखा है। यहां अब चार का चक्रव्यूह है, टोपी, काला कोट,खाकी और सफेद  वर्दी।आम आदमी तो दूर ही रहना चाहता है। महिलाएं और गरीब तो और दूर भागते हैं। जो थोड़े बहुत हिम्मत भी करते हैं पेशी दर पेशी धक्के खाते हुए जिंदगी गुजार देते हैं। आंदोलनों और  राजनीति के चक्कर में ही कुछ महिलाओं और गरीबों के मामले मुझ तक और निर्णय की दहलीज तक पहुंच पाते भी हैं, तो खाकी और सफेद वर्दी और काले कोट के बीच फुटबॉल की तरह ठोकरें खाते रहते हैं। ऊपर से टोपी का दखल।मैं तो मी लार्ड , एकदम बेबस हूं।


न्यायमूर्ति  अग्नि ने कहा-"यहां तो तुम ही सर्वे सर्वा हो,दूसरों पर दोष मत मढ़ो। खुद भी तो सुर्खियां बटोरने में लगी रहती हो।न्याय की बात आती है तो हजार बहाने,  सालों का समय, हजारों पन्नों की गवाही, हजारों पन्नों का निर्णय ! भाषा ऐसी की किसी की समझ में ही ना आए! ऐसी ही भाषा में घर में भी क्या बात करती हो? समय का कुछ तो मूल्य किया करो!!"


 


न्याय की मूर्ति ने विनम्रता से कहा-" न्यायालय में समय बहुत लंबा हो गया है मी लॉर्ड। यहां घड़ी मिनट और घंटों में नहीं तारीखों से चलती है। एक-एक तारीख कई बार कई महीनों की या कई-कई सालों की हो सकती है। यहां तारीखें बड़ी हो जाती हैं और जिंदगी छोटी। ब्रम्हा जी ने भी तो अपना समय अलग बनाया हुआ है!!"


 


चित्रगुप्त जी ने कहा-" वाह! तो तुम ब्रह्मा जी का स्थान लेना चाहती हो। बहुत खूब।"


 


इतने में चित्रगुप्त जी महाराज की द्रष्टि  हथौड़े पर पड़ी उन्होने पूछा-" बुद्धि और विद्या के दरबार में तेरा क्या काम? तू सज धज कर यहां कैसे बैठा है?"


 


हथौड़ा अदब से बोला-" हुजूर मैं डराने और चुप कराने के काम में आता हूं । अनुशासनहीनता और अराजकता अंदर और बाहर कितनी बढ गई है मैं  इसका प्रतीक हूं ।"


 


न्यायमूर्ति अग्नि ने कहा-" संगत का असर तुम पर भी कम नहीं, बड़ा रौब है। आज तुम न्यायालय के अर्दली का काम करोगे। जाओ सबसे पहले काले कोट को हाजिर करो।"


 


काले कोट ने आते ही हथौड़े से फुसफुसा कर  कहा-" आधी रात को पेशी कोई टोपी फंस गई है क्या? या फिर टोपी खरीद फरोख्त का मामला है?"


 


न्यायमूर्ति अग्नि ने कहा-" कानाफूसी नहीं, वरना भस्म कर दूंगी!!पैसों के लिए तुम कुछ भी करने को तैयार रहते हो महिलाओं गरीबों के लिए मन में तुम्हारे कोई सम्मान है क्या ? उनका केस सालों लटकाये  रहते हो। इतना शर्मिंदा कराते डराते हो कि वे न्यायालय का मुंह तक नहीं देखना चाहते।"


न्यायमूर्ति आकाश ने गुस्से से पूछा-" क्या तुम्हारे घर में महिलाएं नहीं है क्या?


 


उनका दुख दर्द समझते क्यों नहीं?"


 


काले कोट ने अदब से कहा-" माय लॉर्ड घर वालों के लिए ही तो दिन रात तिकड़म भिड़ता हूं। इसीलिए घरवालों के लिए समय ही नहीं बचा पाता।वैसे यहां खाकी का बड़ा रोल है। यहां आने के पहले हफ्ता देने में ही लोगों के पसीने छूट जाते हैं।"


 


 


 


 


न्यायमूर्ति जल ने पूछा-" यह हफ्ता क्या है?"


 


काले कोट ने जवाब दिया-" मी लॉर्ड मैं जो लेता हूं वह फीस कहलाती है,खाकी जो उगलवाती है  हफ्ता कहलाती है और सफेद  वर्दी जो वसूलती है बिल कहलाता है। जैसे मंदिर में चढ़ावा चढ़ता है कुछ वैसा ही। सबसे ज्यादा तो टोपी लेती है उसे कभी चंदा कहती है कभी सेवा।"


 


न्यायमूर्ति आकाश हतप्रभ थे उन्होंने कहा-" यह सभी निस्वार्थ सेवा की शपथ लेकर कर ऐसे घिनौने काम कर रहे हैं??"


 


चित्रगुप्त महाराज जी ने कहा-" दुर्भिक्ष, महामारी और प्राकृतिक आपदाओं के जरिए मानव को हमारे द्वारा चेतावनी समय-समय पर दी जाती है लेकिन  इस बार तो उन्होंने अति कर दी है। महिलाओं, कमजोरों, गरीबों और प्रकृति का दोहन और शोषण  एक साथ हो रहा है। इन सभी का महत्व एक बार मानव  को फिर से समझाना होगा। क्या ऐसी महामारी लाई जाए जिससे लोग घरों में बैठने को मजबूर हो जाएं? नारी तथा घर का मूल्य समझें? सारी वर्दियां बाहर घूम घूम कर, सेवा द्वारा अपना खोया हुआ गौरव वापस प्राप्त करें! प्राकृतिक आपदाओं का एक ऐसा दौर लाया जाए जिससे मानव प्रकृति का मूल्य समझे! तूफान, भूस्खलन, अतिवृष्टि ,भूकंप, सभी एक साथ! क्या ऐसा निर्णय लिया जाए??"


 


सभी न्यायाधीशों ने महाराज चित्रगुप्त  सहित प्रश्नवाचक मुद्रा में खिड़की से झांकते बद्रीनाथ की तरफ देखा , मानो सभी उसकी अनुमति चाहते हों। बद्रीनाथ का हाथ अनजाने ही तथास्तु की मुद्रा में ऊपर उठ गए ।इतने में आवाज आई बद्री भैया यहां कैसे खड़े हो। पीछे मुड़कर उसने देखा तो गमतू सफाईवाला खड़ा हुआ था।


 


झेंप कर उसने सोचा अरे मैं तो यहां खड़े खड़े ही शायद सपना देख रहा था। वापस कुर्सी पर आकर उसने अपना झोला उठाया और साइकिल लेकर घर का रुख किया।


 


रास्ते भर बद्री सोच में डूबा रहा। उसे लगा प्रकृति कितनी दयालु है। कितने जतन करती है। ऊपर वाला भी कितना सोचता है हमारे बारे में।हम ही उसका इशारा नहीं समझ पाते या समझ कर अनजान बने रहते हैं।क्या  इस बार मानव जागेगा? चौथे पहर का सपना था, सच भी हो सकता है ।सच हो तो सोचो कितना अच्छा हो!लेकिन कुत्ते की  टेढ़ी पूंछ पोंगली से निकल कर  सीधी रह पाएगी या पोंगली को ही टेढ़ा कर देगी!!


 


घर पर बद्री की पत्नी लछमी उतावली हो कर उसका इंतजार कर रही थी। शादी के समय लछमी  मैट्रिक पास थी और बद्री आठवीं पास लेकिन लछमी में  पढने की बहुत लगन थी, बद्री ने भी बढ़ावा दिया। प्राइवेट में ही लछमी ने स्नातक की परीक्षा पास कर ली। इरादा था कुछ काम करेगी। राजनीति और समाचारों की वह दीवानी थी। रोज सुबह समाचार और उनका विश्लेषण बद्रीनाथ को सुना कर चकित करती रहती थी। आज तो उसे बहुत ही जबरदस्त समाचार और उसका विश्लेषण बद्री को देना है।बद्रीनाथ के  चेहरे पर किस तरह आश्चर्य के भाव आएंगे सोचकर वह मन ही मन मुस्कुरा रही थी।


 


 


 


बद्री को चाय का कप पकड़ आते हुए उसने कहा-" पता है कोरोनावायरस महामारी की घोषणा हुई है? लॉक डाउन होने वाला है! घर में बंद रहना पड़ेगा!! छुआ-छूत से भी बड़ी बीमारी है यह।


 


लक्ष्मी ने सोचा उसका यह समाचार बद्री में उत्सुकता, जिज्ञासा और बेचैनी ले आएगा।वह विस्तार से  बता कर अपने ज्ञान का रौब झाड़ेगी।


 


बद्री यह सुनकर भी शांत रहा मानो उसे पहले से ही सब पता था।चाय  की चुस्की लेते हुए निर्लिप्त  भाव से कहा-" चलो नारी को कुछ तो सुकून मिलेगा।गरीबों की तरफ भी कोई देखेगा। वर्दीधारी लोगों को  कुछ तो अपने कर्तव्यों का ज्ञान आएगा। शायद उनका मान सम्मान और गौरव फिर से लौटे।


 


नेताओं में कुछ और  संवेदनाएं जागेंगी।शायद इस बार त्रासदी का परिणाम  कुछ अच्छा हो।"


 


अब लछमी के चौंकने की बारी थी। वह अवाक हो चाय की चुस्की लेते हुए  बद्रीनाथ की तरफ देखने लगी।


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