कैसा ये तांडव

             कैसा ये तांडव



आख़िर ठान लिया मैंने
पीड़ा
से पीड़ा  की काट 
उठा   लिया     मैंने
,  
कुदाल रूपी क़लम काठ।


 


नेस्तनाबूत  की    चाह 


तुम्हारे विकराल रूप’ को 


बटोरती मैं  शब्द धार  


जोहती मैं तुम्हारी बाट। 


   


रचती    तुम्हें     मैं


किस नाम  से   पुकारूँ


महामारी, कोरोनाकोविड   


या  कोई षड्यंत्र मानूँ।       


 


मानव  से दानव  बनना   


गाथा  हर युग  की  है


वैज्ञानिक अलंकृत मनुज


श्रेष्ठता  के धुन  में हैं। 


                           


उदबोधित,   अजेय  मानव 


अब रौंदता चहुँ दिश चला 


निज कामना  की होड़ में   


विनाश का प्रचलन  बढ़ा।


 


 


यही     दोयम    दर्जा 


चीन    ने     कमाया  


रसायन   मंथन     से    


हलाहल- देवी  जन्माया। 


 


 


भारत  भी  समस्या  से 


बच  कहाँ   पाया    है 


कोरोना  का  क़हर यहाँ 


वैश्वीकरण  से  आया है। 


      


लाशों पर लाशें  बिछाकर                        


मसान शहर को बनाया है                      


दशहत  जगाकर  सबमें                                                              


राह में सन्नाटा कराया है।


 


 


क्या  करें  कहाँ  जाएँ


किससे मिले किससे बचें


दुविधा जन में फैलाया है


कैसा ये तांडव मचाया है।


 


 


हाथ जोड़कर,  नमन कर


संप्रेषण में दूरी बनाकर 


पूर्वजों    की    थाती


पुन: हमने अपनाया है।


 


करोना को दूर भगाया है


भक्षण से ख़ुद को बचाया है।



 


-सरोज राम मिश्रा


           


 


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