पं.जुगुल किशोर शुक्ल द्वारा हिंदी पत्रकारिता के लिए मापदण्ड आज भी प्रासांगिक है


पं.जुगुल किशोर शुक्ल द्वारा हिंदी पत्रकारिता के लिए मापदण्ड आज भी प्रासांगिक है। भारतीय पत्रकारिता का इतिहास एक तरह से आजादी की लड़ाई के साथ जुड़ा है, जो जन विरोधी, अन्याय, तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुझने से शुरू हुई थी, जिसमें प्रतिबद्धता का सरोकार सबसे ज्यादा था। 
आजादी की लड़ाई में जनचेतना का प्रवाह गतिशील करने में हिंदी पत्रकारिता का योगदान सबसे ज्यादा रहा है। अंग्रेजों के बड़ते शोषण और उनके दमन चक्र ने जहां हमें सचेत किया,वहीं राष्ट्र प्रेम एवं देश की आजादी सर्वस्व न्यौछावर की प्रेरणा भी एक तरह से पत्रकारिता से ही मिली है। आजादी के पूर्व पत्रकार जहां राष्ट्रप्रेम से सराबोर थे, वहीं उनमें सामाजिक चेतना और जागरुग बनने का संकल्प भी कूट-कूट कर भरा हुआ था। उस समय का बुद्धजीवी वर्ग राष्ट्रवादी एवं सांस्कृतिक गतिविधियों को भी आजादी की ओर मोड़कर कर राष्ट्रीय चेतना का उन्मेश प्रवाहित कर रहा था।
      हिंदी पत्रकारिता कि गौरवमयी परम्परा कि शुरुवात 1826 में कलकत्ता से प्रकाशित उदंत मार्तण्ड साप्ताहिक अखबार से हुआ था। जिसके कर्ताधर्ता पं.जुगुल किशोर शुक्ल कानपुर के निवासी थे। मार्तण्ड ने उस समय जहां अंग्रेजियत को प्रभावहीन किया वहीं इस प्रकार कि मानसिकता को तोड़ने में काफी मश्क्कत की थी। वैसे भी इस अखबार के संपादन का मुख्य उद्देश्य हिन्दुस्तानियों को आजाद करना था।  आर्थिक कठनाईयों के कारण इस अखबार को आखिरकार 4 दिसम्बर 1829 को बंद करना पड़ा। यद्यपि इस पत्र की उर्म ज्यादा लम्बी नहीं रही, फिर भी इस अखबार ने पत्रकारिता कि दशा और दिशा का जो संकल्प लिया था, वह आगे पत्रकारिता के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ। दुनिया के छापाखानो ने ही जहां अखबारों को आगे आने में गति प्रदान की है,वहीं ज्ञान-विज्ञान व अखबारों का जनसामान्य तक पहुंचने का गुरुतर कार्य भी किया। प्रीटिंग प्रेस की बदौलत आम आदमी ने अखबारों से रिश्ता जोड़ा हैं। लेकिन रिश्ते को कायम रखने में अखबारों ने अहम भूमिका निभाई है। 
उस समय पत्रकारिका को सच्चाई की खोज की संज्ञा दी जाती थी,जिसे उस समय के पत्रकार मिशन के रूप में स्वीकार करते थे। आज पत्रकारिता की परिस्थितियां बिलकुल विपरीत हैं। वर्तमान पत्रकारिता उद्देश्यहीन हो गई है, भावुकता की जगह व्यावसायिकता ने ले ली है। वहीं खबरों के चयन और लेखों के आंकलन का भी नजरिया धीरे-धीरे ही सही बदल गया है। मौजूदा परिस्थितियों में कुछ अपवादों को छोड़ दे तो अखबारों में बाजार भाव हावी है। देश में कुल प्रचलित लगभग 4453 अखबार हैं। जिनमें अंग्रेजों के अखबार 320 हैं, जबकि हिंदी के 2004, उर्दू के 473 कन्नड़ के 268, मराठी के 261 और मलयालम के 2041 हैं। मैकाले के मानस पुत्रों के कारण ही  आज भी भारत में अंग्रेजों का भाषाई उपनिवेष कायम ह,ै और कोई भी भारतीय भाषा सरकार से संवाद का माध्यम नहीं बन सकी है। मैकाले भारत में ऐसे बीजरोपण में सफल हुआ जिनसे वह वर्ग तैयार हुआ जो रक्त और रंग से तो भारतीय है , परन्तु रूचि, विचार और  नैतिकता में अंग्रेजी परास्त। देश की न्याय व्यवस्था की भाषा अंग्रजी है। जिसे देश के 98 प्रतिशत नागरिक नहीं जानते हैं। चुनावों में जनमत सर्वेक्षण भी मूलतरू अंग्रेजी अखबार ही देते रहें है, और देश के मतदाता को गुमराह करते रहे, जबकि सच यह है कि, अंग्रेजी अखबारों का पाठक वर्ग सीमित है फिर भी अंग्रेजी पत्रकारिता आज भी हावी है, और हिन्दी पत्रकारिता को अपने सामने अस्तिवहीन समझता है।
     हिन्दी के प्रति समर्पण की भावना सीमान्त गांधी अब्दुल गफर खान में देखी गई जब 1947 में भारत की संवैधानिक असेम्बली में हिन्दी में बोले थे। स्वतंत्रता के बाद जब एक आम भाषा का सवाल उठा, तब मतदान हुआ और अध्यक्ष के निर्णायक मत में हिन्दी विजयी रही। इस प्रकार भारत का संविधान तैयार किया गया।तब अनुच्छेद 353 में संघ की राजभाषा हिन्दी और देवनागरी लिपि घोषित की गई। यद्यपि  अनुच्छेद 348 में न्यायालय की भाषा हिन्दी भाषा के विकास का नर्देष दिया गया जो इस प्रकार है, संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रचार बढ़ाए,उसका सामाजिक सांस्कृतिक तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। हिन्दी के प्रति तमाम राजनीतिक दलों का नजरिया पाखण्डी है। संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भले ही पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल विहारी वाजपेई हिन्दी बोलते हैं, पर देश का स्वदेशी बजट अंग्रेजी भाषा में पढ़ा जाता है। किसी देशी भाषा में नहीं,हिन्दी पत्रकारिता इन्हीं कारणों से जूझती हुई नजर आ रही है। उदारीकरण के नाम भारतीय पत्रकारिता में विदेशी मीडिया का निवेश भी अंग्रेजी भाषा का उपनिवेश का घ्योतक है प्रतीत हो रहा है। देश की पत्रकारिता में भूचाल खड़ा कर देने वाले इस विदेशी मीडिया की घुसपैठ की समालोचनाएं भी हुई ।  एक वरिष्ठ पत्रकार ने तो इसके पक्ष में अनेक तर्क दिए और काफी संख्या में अखबार मालिकों को पक्ष में खड़ा कर केंद्र सरकार से शोहरत पाई थी,लेकिन भाषाई उपनिवेशवाद की निर्णायक लड़ाई अभी लड़ी जानी है। अखबार में बाजार भाव हावी होने की दशा में आज स्थित यह हो गई है कि समाज संस्कृति, विज्ञान,स्वास्थ्य,शिक्षा ,पर्यावरण जैसी मानव से सरोकार की खबरें तो यदा कदा, लेकिन हिंसा,अनाचार, अपराध और राजनीति की खबरें बड़े चटखारे के साथ प्रकाशित की जा रहीं हैं। इसका पूरा श्रेय राजनीति का हर क्षेत्र में भी समाचारों,तथ्यों की निष्ठा,लोकतंत्र का स्वास्थ्य व्यवसाय के साथ,निष्ठा के साथ,अगर पत्रकारिता के मूल तत्वों का पालन किया जाए तो गणेश शंकर विद्यार्थी ऐसे विज्ञापनों के सख्त खिलाफ थे जिनसे सामाजिक मर्यादाएं भंग हो और अपसंस्कृति पैदा हो। तब के सम्पादक अखबारों में विज्ञापनों के सख्त खिलाफ थे लेकिन आज अखबारों में स्थान विज्ञापनदाताओं के धन तय करते हैं। 
                  यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते,रमन्ते तंत्र देवतारू को अप्रासंगिक करते हुए व्यावसायिक पत्रकारिता आये दिन नारी को उपभोक्ता संस्कृति के रूप में विज्ञापित कर समाज और खुद को शर्मसार कर अपनी व्यावसायिकता की भूख मिटा रही  है। व्यावसायिक पत्रकारिता के इस दौर में सामाजिक मानदण्डों की खउली चुनौती है। इस माहौल में स्थापित अखबार प्रतिस्पर्धा में आगे भले हो लेकिन पत्रकारिता की अस्मिता के लिए सबसे बड़े घातक सिद्ध हो रहे हैं। अखबार चाहे बड़ा हो या छोटा,स्वस्थ्य पत्रकारिता के लिए स्थापित मानदण्डों के सिद्धान्तों की कसौटी पर खरा उतरना ही मेरी दृष्टि में सबसे उत्तम पत्रकारिता और समुन्नत अखबार है। उदन्त मार्तण्ड ने अपने कम समय में पत्रकारिता की जो यात्रा तय की है,आज के वे अखबार जो अपने को लोकतंत्र के कथित पोषक मानते हैं,उसके सामने बौने हैं।
आज पत्रकारिता के क्षेत्र में हमने विशेष उपलब्धियां भले ही अर्जित कर ली हों लेकिन संविधान में चैथे स्तम्भ के रूप में अपने प्रतिपाद्य नहीं कर पाये हैं। संविधान से अभिव्यक्ति के नाम पर सामान्य नागरिक को जो अधिकार प्रदत्त हैं वहीं पत्रकारों को है। प्रेस की आजादी के लिए संविधान में संशोधन हों। इंडियन फेडरेशने ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट के 26 जून 2003 को राष्ट्रीय अधिवेशन में मांग की है कि वह संविधान के अनुच्छेद19(ए) में संशोधन कर अखबारों की आजादी के लिए अलग प्राविधान करें। 
      इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स की 22 दिसम्बर 2003 तो राष्ट्रीय परिषद के 50 वें अधिवेशन के दौरान मीडिया और विधायिका की खुली चर्चा में मैंने यह बात खुलकर उठाई थी कि पत्रकारिता के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक आवश्यक आचार संहिता बनाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक बहस हो और एक आयोग गठित हो ताकि छद्म पत्रकारिता  की आड़ में अराजकता के प्रवेश को कड़ाई से रोका जा सके। प्रेस की आजादी के लिए संविधान संशोधन की दशा में तमिलनाडु विधानसभा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर तुषारात करके अंग्रेजी दैनिक व हिन्दू के पाँच वरिष्ठ पत्रकारों व मुरासोली  के सम्पादक  के साथ विशेषाधिकारों में रोक के साथ पत्रकारों को अपमान की जलालत नहीं झेलनी पड़ेगी। यह तभी सम्भव है जब पत्रकार संगठनों के साथ समाज के प्रबुद्ध वर्ग एक साथ प्रयास करें।संविधान में प्रेस की आजादी का अधिकार मिलने पर ही पत्रकारिता की अस्मिता को जिन्दा रखकर ही लोकतंत्र और समाज की रक्षा की जा सकती है। इसके लिए जरूरत है आत्म गौरव की भावना में राष्ट्रीय प्रेम की। आज पत्रकारिता की उपलब्धियों के साथ उन तमाम चुनौतियों का सामना हमें करना है,जो हिन्दी पत्रकारिता की अविरलधारा प्रवाहित होने में रोड़ा बनकर बाधक है।इसीलिए हिन्दी पत्रकारिता के लिए वह लड़ाई पं. जुगुल किशोर शुक्ल,गणेश शंकर विद्यार्थी,विष्णुरामव पराड़कर,मदन मोहन मालवीय,सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे क्रान्तिवीर पत्रकारों ने शुरू की थी जारी है। यह विचार चिन्तन उन तमाम हम विचार धारा के पत्रकारों के लिए संदेश है जो हमारे आत्म चिन्तन से सहमत है।पत्र चाहे लघु ही क्यों न हो? लेकिन यदि उनका सामाजिक चिन्तन पत्रकारिता के मानदण्डों पर ही है तो वह किसी वटवृक्ष से कम नहीं है।अखबार का समाज के साथ उत्कृष्ट सरोकार ही आज पत्रकारिता के लिए पत्रकारों के लिए चुनौती है।


 


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