कहानी : असमानता की खाई

कम्पू शहर और आसपास के इलाकों में आज तेज बारिश के साथ आसमान में बिजली बारहसिंगा की सींगों आकृति जैसी बनकर कड़क रही थी ।


बारिश से बचने की लगातार कोशिशों के बावजूद भी बूंदों के संयुग्मी वेग से उसका झोपड़ा एवं उस पर पड़ा फटा हुआ त्रिपाल क्षत-विक्षत हो रहा था।


बारिश का पानी पराक्रमी वीर सेना की भांति झोपड़े को चारों ओर से घेरकर हमला कर रहा था। जब स्वयं और स्वंयके अंश के अस्तित्व को बचाने का दारोमदार एक माँ सर पर हो उसकी अटूट इच्छा शक्ति के आगे तलवार की धार, रफ्तार एवं वेग कुंद पड़ जाता है। 


 


जीवन के कालांतर में सावित्री ने पति एवं दो बच्चों को खोकर भी जिंदगी से हार नहीं मानी थी, इस उम्मीद के साथ कि 7 साल का रामू उसकी आंखों की रोशनी, उम्मीद और जीवन जीने की हठधर्मिता भरे संघर्ष को बल दे रहा था।


 


वही शहर के दूसरे छोर से घरों से उठते मंद-मंद भीगे हुए धुँए की छाप, बालकनी में पानी से खेलते हुए बच्चे और उनको पीछे से पकड़कर घसीटकर ले जाती हुई उनकी मां,


छज्जे के नीचे गैलरी में हाथ में चाय के प्याले और कुछ स्वादिष्ट पकौड़ी जैसे स्वादिष्ट व्यजंन चटनी के साथ बारिश का आनंद दोगुना कर रहे थे ।


 


दूसरी तरफ रामू नाले के पास सड़क के किनारे बने अपनी झोपड़ी से कछुए की भाँति मुँह निकाल कर यह नजारा देख रहा था। आंखों से भूख की अग्नि को शमन करने की नाकाम कोशिश कर रहा था ।


आज घर में अन्न का दाना ना था । बारिश और लॉकडाउन के चलते मानो उनकी जिंदगी छिन   सी गई थी।


रामू की माँ बस इधर-उधर काम करके व भीख मांग कर पेट पालने भर का इंतजाम कर लेती थी, पर अब तो वह भी मुनासिब नहीं था ।


भीख मांगना भी विकल्प ना रह गया था । 


सड़के सुनसान पड़ी थी,


बाजार सुनसान पड़े थे,


चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था,


 लोग अपने घरों में दुबके हुए थे,


कोरोना के डर के मारे सड़क पर कोई निकल नहीं रहा था।


जो रास्ते कभी भीड़ भरे और मोटर गाड़ियों के शोर से शुकून न पाते थे, आज शांति की चादर ओढ़े निर्जन वन के जैसे चैन से सो रहे थे।


जो पीठ पर अपने वजन से ज्यादा किताबों का बोझ लिए बच्चे सूरज की किरणों की भांति सुबह निकलते रहा करते थे । वो घरो में कंप्यूटर और तकनीकी उपकरणो से पढ़ाई कर रह थे। 


 


"मां मुझे भी स्कूल जाना है।" उनको देखकर  रामू अपनी मां से दबे स्वर में बोला करता था।


अपने लाल के स्कूल जाने ख़्वाब उस माँ के लिए ऐसा होता था जैसे उसका बेटा कलेक्टर बनने वाला हो। 


बेहतरी की उम्मीदों का सपना लिए  आख़िर किसी तरह माँ ने बड़े जतन से पास के एक सरकारी स्कूल में रामू की पढ़ाई का बंदोबस्त किया था।


परन्तु नियती में कुछ और लिखना था, जो कलम और कागज़ से परे था, इसलिये अब दोनों के संघर्ष जीवन स्तर में सुधार से हटकर जीवन में बने रहने के लिए हो गए थे।


 


भूख बड़ी बेरहम होती  है। कोरोना की तरह इसके प्रभाव और रूप भी अलग-अलग होते हैं । पिज़्ज़ा हट और डोमिनोज के नाम से उठी भूख जानलेवा नहीं होती है ।


पिज़्ज़ा बर्गर के लिए रोते हुए बच्चे आपने देखे होंगे।


मगर सड़क के उस पार भूख से लड़ती हुई 2 जिंदगी और उनके संघर्ष के आयाम में झूलती हुई भूख के रुदन श्वर को भी किसी और रूप में आपने कभी न कभी और कहीं न कहीँ देखा ही होगा।


इन अभागे चेहरों पर रुदन के स्वर नहीं होते हैं मगर चेहरे पर आंसुओं से बने गहरे पथरीले रास्ते जरूर बन जाते  हैं जो राजस्थान के सूखे एवं तपते की पहाड़ों की तरह बादलो और बारिश को आशा से निहारते रहते है।


 


जब भूख अपने चरम पर होती है तो सड़क पर पड़ा अन्न का दाना भी कोहिनूर पाने की खुशी से भी अधिक खुशी देने वाला होता है ।


रामू भीगता हुआ बाहर निकला नाले के पास बनी सड़क में अवशेष खाने की चीजें, लोगों द्वारा छोड़े गए अंश, जो सड़क पर बिखरे पड़े थे, रामू उनको दौड़-दौड़ कर बटोरा रहा था। आइसक्रीम के खाली डब्बे के कोनो में अपनी जीभ से उम्मीद  भरा चक्कर लगा रहा था।


कुछ खाने के टुकड़े वहां से माँ के लिए खट्टे कर रहा था ।


21 दिन से यह उसकी दिनचर्या बन गया था ।


कहा जाता है ना किसी भी काम को 21 दिन तक करते रहो तो वह आपकी आदत आदत में शुमार हो जाता है ।


 


मां को तेज बुखार था परंतु जब भूख और दवा के बीच किसी एक को चुनना हो तो दवा अक्सर बेअसर हो जाती है और हार जाती है। 


करीब 24 दिन तक भूख से चले इस संग्राम में मौत ने विजय पाई और रामू की मां उस अभागे को छोड़ कर चली गई इसके साथ ही झोपड़ी में पल रही 2 उम्मीदों का दिया बुझ गया था।


बचा तो बेसहारा अनाथ रामू।


धीरे-धीरे उसके स्वर और सांसो की रफ्तार धीमी पड़ती जा रही थी उसके रुदन का स्वर विलुप्त हो गया था आंखों से बस झर झर झर झरनों की तरह आंसू बहे जा रहे थे और इस भूख से लड़कर इतने दिन तो जीत लिए थे, मगर अब बेसहारा और जीवन में बिना किसी आशा, कुचली हुए उम्मीदों भरे जीवन के आगे रामू दुनिया को अलविदा कह गया।


 


नई सुबह थी बारिश के बाद अपने जैसे नहा धोकर कपड़े बदलकर नए कलेवर से उपस्थित हुई हो ।


लॉक डाउन चल रहा था बच्चे घरों में ऑनलाइन क्लास ले रहे थे रसोई घर में खटपट के साथ बनने वाले व्यंजनों की खुशबू खिड़कियों से होकर सड़कों तक जा रही थी ।


आईपॉड वाले बच्चों के पेट खाली नही थे ।


अपने कमरों के नरम सोफा और बिस्तर  एवं सुसज्जित कुर्सियां और कमरों की दीवारों पर तामाम तरह की नक्काशी वाले घरों में पढ़ रहे बच्चों पर रसोईघर की महक अप्रभावी हो गई थी।


 दफ्तर और व्यापार की कम तनख्वाह और आमद वाली दिनचर्या से कमाया धन बच्चों की भूख को कुंभकरण की नींद सुला कर परास्त कर चुका था।


हाथों में बड़े-बड़े विदेशी टेबलेट, मोबाइल की रोशनी भी उनकी आंखों में चमक नहीं पैदा कर पा रही थी और ऑनलाइन क्लास लेते हुए अफसर का बेटा आदविक सो गया था।


ऑनलाइन क्लास अभी भी चल रही थी ।


और  समुद्र की लहरों की तरह चल रहे थे सवालों की एक फेहरिस्त:-


 



  • आखिर कब तक जाने लेती है भूख।

  • यह गरीबी और अमीरी की खाई आखिर कब भरेगी ।

  • समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र कब तक उस दमित वर्ग पर अप्रभावी बने रहेंगे।

  • तमाम सरकारी तंत्रों को कब तक समानता का झूठा राग अलापना पड़ेगा।

  • और कई ऐसे ही हृदय को कचोटने वाले और कई ऐसे सवाल।


 


"रामू जैसे न जाने कितने और है और इनकी सुध कौन और कब लेगा ।"


 


ऐसे तमाम सवालों को छोड़कर गई जिंदगी आगे भी संघर्ष के आयाम में दम तोड़ती रहेगी और इसकी पुनरावृत्ति करती रहेंगी 


चांदी के चम्मच में खाने वाले शायद ही कभी इस भूख के अंतर को समझेंगे , दर्द को समझेंगे , और चिर निद्रा से जागेंगे।


 और यह सोचेंगे कि आखिर मौत ही अन्त है सबकी और समाज की खाई पटेगी।


 


 सुखदुःख भारी यात्रा का।


और कम से कम भूख और अभाव में किसी की जिंदगियां न दम तोडे। 


 


जब तक नही जागेंगे नीतिनिर्माता तब तक कलम और कागज एक दूसरे का हाथ थामें साथ साथ चलते रहेंगे और रामू जैसे हर उस बेजुबान की आवाज बनते रहेंगे। उनकी नींद में खटक पैदा करते रहेंगे।


 


तकलीफ किसी अफसर के बेटे से नहीं है, तकलीफ आईपैड चलाने वालो बच्चों से भी नहीं है, 


तकलीफ असमानता और अपरिपक्वता, अनदेखेपन, खोखली सत्ता और तंत्र से जो आज भी समानता की लड़ाई का ढोंग रच रहा है।


तकलीफ सिर्फ उससे है जो हाथ में रोटी के लिये फावड़ा और हाथ मे कटोरा थमा रहा है।


 


इसके लिए जिम्मेदार लोग आखिर कब तक सिर्फ रायशुमारी करते रहेंगे मानवता को एक न एक दिन जागना ही पड़ेगा कि हजारों साल के विकाश को हम तब सार्थक नही कर पाएंगे जब तक समाज मे समानता का अभाव बना रहेगा।


ये सवाल हमारे आपके जेहन में उमडते रहेंगे बादलों की तरह। और इस उम्मीद के साथ कि कभी ना कभी बादल बरसेंगे और इस धरती में कभी  मनुष्यत्व की खेती लहराएगी।


 


 


 


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