राजधर्म पर राम का संदेश

राजधर्म पर राम का संदेश



आठवां दृश्य


मुखिआ मुखु सो चाहिए


राम राम : हे भरत!


मुखिआ मुखु सो चाहिए खान पान कहुँ एक।


पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक ।।


यही राजधर्म है मुखिया को मुख के समान होना चाहिए जो खाने-पीने को तो प्रत्यक्ष रूप में अकेला ही है, पर वह शरीर के सब अंगों का विवेकपूर्वक पालन-पोषण करता है।



उसके सेवकों को मुखिया के हाथ, पैर और नेत्रों के समान होना चाहिए (सेवक कर पद नयन से, सेवक-स्वामी में ऐसी प्रीति-रीति होनी चाहिए। वेद, शास्त्र और सेवाधर्म बड़ा कठिन हैस्वामी धर्म और स्वार्थ में विरोध है। स्वामी धर्म-पालन में बैर और अंधा प्रेम नहीं होना चाहिए। स्वामी की सबके प्रति सेवक के काम के अनुसार समान रूप से प्रीति होनी चाहिएउसे सभी के प्रति समान होना ही नहीं चाहिए बल्कि दिखना भी चाहिए। उसका आचरण सेवकों और सेव्य के सामने पारदर्शी होता है।


राजा अपने राज्य का मुखिया है पर मुखिया का तात्पर्य केवल राजा से ही नहीं हैमुखिया एक सामाजिक इकाई, संस्था, संगठन, कार्यकारी इकाई या परिवार का भी हो सकता है। जो विभिन्न नामों, उपाधियों या पदों से जाने जाते हैं। वह मूलरुप से राज्य से लेकर पारिवारिक इकाई का प्रबन्धक या व्यवस्थापक होता है तथा उसमें उस देश, समाज, संगठन या संस्था के परिचालन का दायित्व निर्वाह के लिए कुछ विशेषाधिकार और शक्तियाँ निहित होती हैं।



हे भरत! तुम देश, प्रजा, सेना, मंत्री, मित्र, कोष आदि राज्य के अंगों का विवेकपूर्ण पालन-पोषण करते रहना जिससे वे सभी तुम्हारे राज्य के हित में मन से संलग्न रहें तथा तुम्हारे काम आयें। राजा को अपने राजधर्म के निर्वाह में मुनि, माता और मंत्रियों की सलाह मानकर पृथ्वी, प्रजा और राजधानी का पालन करते रहना चाहिए। मंत्रियों में भी जो बुद्धिमान मंत्री हो उनकी सलाह माननी चाहिएबुद्धिमान मित्रों की भी राजा को सलाह लेनी चाहिए। वस्तुतः मननशील व्यक्ति वह है जो निःस्वार्थी है तथा जिसकी सलाह वेद-शास्त्र सम्मत तथा समयानुकुल होती हैं।



मुँह देखने में सब अकेला खाता है पर वस्तुतः वह सब अंगों को यथायोग्य बांट देता हैइसी प्रकार समाज एक शरीर है, मुखिया उसका मुख है। सम्पूर्ण शरीर प्रयास करके जो कुछ अर्जन करता है, उसे मुख को अर्पण करता हैमुख उसे कूट-पीसकर अर्थात् एकीकरण करके, पाचन तंत्र अर्थात् मंत्रीमण्डल आदि के सुपुर्द करता है, वहाँ से वह रस-रक्तादि अर्थात् वेतन, प्रशंसा, पुरस्कार आदि से यथायोग्य सब अंगों की पुष्टि करता है।


मुख अपने पास कुछ भी नहीं रखता। दांत आदि में यदि कुछ लगा भी रह जाये तो उसे तृण के सहारे निकालकर अपनी सफाई किया करता है। इस प्रकार सभी अंगों का पोषण हो और बड़े विवेक के साथ होजिस रस से नख का पोषण होता है, वह आंख के पोषण के लिए न जाये और जिससे आंख का पोषण हो, वह नख के पोषण के लिए न जाने पाये। इस विवेक में तनिक भी ढिलाई पड़ने से समाजरुपी शरीर का नाश हो जाता हैदूसरे मुंह खाने के पश्चात् जिस-जिस अंग को जिस-जिस रस की जितनी आवश्यकता होती है, राजा उतना-उतना उन्हें देकर सभी अंगों का समुचित पोषण करता है। यदि कोई अंग दुर्बल, रोगग्रस्त या अक्षम हो जाये, तो उसे कमाबेशी देकर उसका विशेष ध्यान रखता है। अपने इस कर्तव्य-निर्वाह में राजा या मुखिया को साधुमत तथा लोकमत को हृदयंगम करते हुए स्वविवेक के अनुसार निर्णय करना चाहिए।


 


स्वामी को मुख के समान होने का तात्पर्य है कि उसके मनसा-वाचा-कर्मणा में एक्य होना चाहिएहाथ, पैर और नेत्र सेवक का काम करके मुखरूपी स्वामी को लाकर देते हैंमुखिया या स्वामी अकेला ही है और अधीनस्थ या अनुयायी उच्च पदस्थ व्यक्ति का ही अनुकरण करते हैं। स्वामी ही राज्य या संगठन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सतर्क और जिम्मेदार रहता है। सेवक को स्वामी के सभी शास्त्र-सम्मत या धर्मानुकूल आज्ञा का पालन करना चाहिए। यदि स्वामी की आज्ञा शास्त्र-सम्मत या धर्मानुकूल न हो तो सेवक को इस आज्ञापालन में निहित कठिनाई का स्वामी को उल्लेख करना चाहिए। इसके बाद भी यदि स्वामी अपनी आज्ञा के पालन का आदेश देता है, तो उसे शिरोधार्य करके उसका मन-कम-वचन से पालन करना चाहिए। यदि सेवक का स्वार्थ न हो, तो वह अपने सेवाधर्म का समुचित रूप से पालन कर सकता है।


हे भाई! तुम्हारे अंग हैं-देश, प्रजा, सेना और सैन्य साज-सामान, मंत्री, मित्र, कोशतुम इन सभी अंगों का विवेकपूर्ण पालन-पोषण करते रहना जिससे वे सब तुम्हारे काम आयें तथा तुम्हारें सहायक बनेंजिसका जैसा क्षेत्राधिकार है, उसी के अनुसार उसका पालन सुनिश्चित करना। जो मेरी आज्ञा मानता है, वह मेरा प्रिय सेवक है। यदि मैं नियमों या मानदण्डों के विरुद्ध कुछ कहता हूँ तो उसे बिना किसी संकोच या भय के मुझे ऐसा करने से रोकना चाहिए। नियमानुसार प्रत्येक स्वामी अपने सेवक या अधीनस्थ को प्यार करता है पर मैं उन्हें अधिक प्यार करता हूँ जो मेरी सेवा करते हैं। पर मैं कर्महीन चाटुकार सेवकों को पसन्द नहीं करता। जब तक किसी राज्य या संस्था में स्वामी और सेवक के बीच सही ढंग से सम्बन्ध स्थापित नहीं होते, तब तक कोई प्रगति सम्भव नहीं है।


राजा या स्वामी को निरंकुश या अभिमानी नहीं होना चाहिए। सफलता, धन या समृद्धि की अधिकता राजा या स्वामी को आत्मकेन्द्रित और संतुष्ट बना देती है। शनै: शनै: ऐसा राजा या प्रबन्धक निरंकुश और अनियन्त्रित हो जाता है। वह अपनी सोच, विचार या मंतव्य के विरोध में सलाह या आवाज सुनना पसन्द नहीं करता। उसका मुँह से निकला कथन ही उसका अंतिम आदेश होता है जिसका बिना किसी शर्त के पालन होना ही चाहिए। यहीं से उसका तथा उसके राज्य या संगठन का पतन आरम्भ हो जाता है। राज्य का प्रबन्ध एक जटिल कार्य है जिस पर प्रजा का जीवनयापन निर्भर करता है। राज्य का प्रबन्ध कई लोगों की सलाह तथा सहयोग के बिना सुचारु रूप से हो ही नहीं सकता। शासन या प्रबन्धन में स्वेच्छाचारिता तथा निरंकुशता को दूर रखना आवश्यक है। परस्पर विचार-विनिमय या बहस आवश्यक है पर अंतिम निर्णय का विशेषाधिकार मुखिया का ही है। इस कार्यविधि से ही सुराज्य या सुशासन की स्थापना होगी।


ऐसे तो राजा या मुखिया को सलाह देने वाले चतुर व्यक्तियों के झुण्ड के झुण्ड हैं परन्तु ऐसे कुछ ही व्यक्ति हैं जो नेक सलाह देते हैंऐसे योग्य तथा निःस्वार्थ व्यक्तियों के चुनाव में ही राजा की सफलता का रहस्य छुपा होता हैजो राजा सचिव, वैद्य और गुरु की सलाह नहीं सुनते और मानते, उनकी असफलता निश्चित हैराजा को ध्यान रखना चाहिए–प्रथम राज्य को प्रजा का प्रत्येक अंग संचालित करता है-किसान खेती करके अन्न अपजाता है, वैश्य वाणिज्य करता है, ब्राह्मण ज्ञान-साधना तथा ज्ञान-प्रसार करता है। शूद्र विशाल सेवा क्षेत्र का परिचालन करता है और क्षत्रिय देश की संरक्षा तथा रक्षा में संलग्न रहता है।


द्वितीय राजा अकेला ही युद्ध में नहीं लड़ता हैउसके साथ उसकी संतुष्ट, बहादुर तथा कुशल सेना लड़ती है। राजा को अपनी सेना का स्वयं सबसे आगे होकर युद्धक्षेत्र में नेतृत्व करना चाहिएहे भरत! जो राजा काम, क्रोध, लोभ और मोहवश निर्णय लेते हैं, वे कभी सफल नहीं होते। प्रत्येक राजा या मुखिया को यह सब समय हृदयंगम करना चाहिए कि वह ही राज्य को धारण या उसकी रक्षा नहीं करता बल्कि धर्म ही राज्य को धारण और रक्षण करता हैयही राजधर्म का सार है।


 


x रामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड, दो0-315


xx रामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड, दो 306


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