सडकवासी राम

सडकवासी राम! 

न तेरा था कभी 

न तेरा है कहीं 

रास्तों दर रास्तों पर 

पाँव के छापे लगाते 

ओ अहेरी 

खोलकर मन के किवाडे सुन 

सुन कि सपने की 

किसी सम्भावना तक मे नहीं 

तेरा अयोध्या धाम। 

सडकवासी राम! 

सोच के सिर मौर 

ये दसियों दसानन 

और लोहे की ये लंकाएँ 

कहाँ है कैद तेरी कुम्भजा 

खोजता थक 

बोलता ही जा भले तू 

कौन देखेगा 

सुनेगा कौन तुझको 

ये चितेरे 

आलमारी में रखे दिन 

और चिमनी से निकलती शाम। 

सडकवासी राम! 

पोर घिस-घिस 

क्या गिने चौदह बरस तू 

गिन सके तो 

कल्प साँसों के गिने जा 

गिन कि 

कितने काटकर फेंके गए हैं 

ऐषणाओं के पहरुए 

ये जटायु ही जटायु 

और कोई भी नहीं 

संकल्प का सौमित्र 

अपनी धडकनों के साथ 

देख वामन- 

सी बडी यह जिन्दगी 

कर ली गई है 

इस शहर के जंगलों के नाम। 

सडकवासी राम! 

-हरीश भादानी 

स्वर्गीय हरीश भादानी की कविता ‘सडकवासी राम’ मुझे हद से बेहद में जाते एक कवि का हलफनामा लगती है। अपनी इस कविता में वे रामायण में वर्णित यशस्वी और अवतार की तरह स्वीकृत अयोध्या के परम प्रतापी राजा राम की बजाए सडकवासी राम को तर*ाीह देते हैं। जो अयोध्या-धाम में रह कर नहीं, बल्कि अस्तित्व की बुनियादी प्रतिज्ञा से जुडकर आज भी सडक (जीवन-पथ) पर संघर्ष-रत है। यह कविता एक जन-कवि के जीवन-मूल्यों का एक नायक पर सफल प्रतिरोपण भी है। क्योंकि इतिहास में राम पहले महापुरुष है जो जीवन-दर्शन के नाम पर बिना कोई बयानबा*ाी किए-उच्चतर निकष पर उसे जीकर दिखाते हैं। ‘रम्यन्ति इति रामा’ः जो सार्थक जीवन जीकर दिखाए उस शै का नाम है-राम।’ यही कारण रहा कि जीवन भर ‘गीता’ में उच्च जीवनादर्शों को खोजते महात्मा गाँधी भी अवसान वेला में राम पर ही आकर टिकते हैं।

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