यात्रा-वृतांत कालिंजर दुर्ग


मैं, मनोज कान्त द्विवेदी, ऋषि राज त्रिपाठी, सुनील उपाध्याय और एस0 के0 सिंह कुल पाॅंच मित्र चित्रकूट भ्रमण पर निकले थे। द्विवेदी जी का निजी वाहन था। द्विवेदी जी और त्रिपाठी जी वाहन चलाने में दक्ष थे। हम मित्रगण प्रशस्त धरा पर फैली मनोरम प्रकृति के नयनाभिराम दृश्यों का अवलोकन करते हुए वार्तालाप में खोए हुए थे। पथरीली जमीन, विस्तृत नीरवता और किसी समाधिस्थ ऋषि के मानिन्द शांति में डूबी बुन्देलखण्ड की धरती अनभिज्ञ होते हुए भी हम सबको चिर परिचित लग रही थी। हो सकता है किसी जन्म में बुन्देलखण्ड की जमीन पर हम सबका जीवन फला-फूला हो। अनुराग और आत्मीयता वस्तुतः किसी अज्ञात अभिज्ञान का ही प्रतिफल है। जीवन-मृत्यु का अनवरत चक्र जीवात्मा को कहाॅं-कहाॅं आत्मीयता और अनुराग का आभास कराता रहता है, इसे अन्तर्यामी परमात्मा के सिवा कौन जान सकता है ? 
 चित्रकूट में मत्स्य गजेन्द्र नाथ महादेव की उपासना भूमि को अपने पावन जल से प्रक्षालित करते हुए अनवरत प्रवाहनमान माॅं मन्दाकिनी का यह पवित्र तट राम घाट के नाम से विख्यात है। ऐसी मान्यता है कि प्रभु श्रीराम ने अपने अनुज श्री लक्ष्मण जी के साथ इस पवित्र तट पर भक्त संत गोस्वामी तुलसीदास जी को दर्शन दिए थे-



  चित्रकूट के घाट पर, 
  भइ संतन की भीर।
  तुलसिदास चंदन घिसें,
  तिलक देत रघुबीर।।


 उपर्युक्त पंक्तियाॅं घाट पर निर्मित स्तम्भ, जिसके ऊपर गोस्वामी तुलसीदास की प्रतिमा स्थित है, पर भी अंकित हैं।


प्रभु की वनवास अवधि से जुड़ी स्मृतियाॅं तट के शिला-खण्डों पर बिखरी हुई हैं। प्रभु के पावन चरण इस तट पर पड़े होंगे, यह सोचकर भावावेश में हृदय प्रफुल्लित हो उठा। रामघाट पर माॅं मन्दाकिनी की गतिशील पुण्य सलिला में डुबकी लगाकर हमलोग मत्स्य गजेन्द्रनाथ महादेव के दर्शन किए। 
 अनन्त एवं अमोघ फलदायी कामदगिरि की परिक्रमा के क्रम में प्रभु श्री राम और भरत जी के मिलन-स्थल का दर्शन अत्यन्त भाव विह्वल करने वाला था। मिलन-स्थल को देखते ही लगा कि भरत-मिलन का क्षण कितना भावुक रहा होगा कि कठोर पाषाण भी तरल हो गए और प्रभु तथा परिजन के पद-चिन्ह कामदगिरि के परिक्रमा मार्ग में पाषाण-खण्डों के ऊपर सम्पूर्ण गरिमा एवं गौरव के साथ काल के प्रवाह से निरंतर टकराते हुए आज भी अमिट हैं। परिक्रमा मार्ग से हटकर कुछ कदमों पर एक पर्वत की समतल चोटी है। यहाॅं लक्ष्मण जी का मंदिर है, जहाॅं वे वनवास काल में माता जानकी एवं प्रभु श्री राम के प्रहरी बनकर सारी रात अपलक सजग रहते थे। लक्ष्मण जी का यह स्थल और यहाॅं स्थित कुएं का दर्शन अद्भुत एवं आश्चर्यचकित करने वाला था। 



 चित्रकूट स्थित गुप्त गोदावरी वस्तुतः उत्तर और दक्षिण भारत की सांस्कृतिक एकता को उद्घाटित करने वाली पुण्य सलिला है। ऐसा आध्यात्मिक विश्वास है कि चित्रकूट स्थित पर्वत की यह गुफा ही गोदावरी नदी का मूल उद्गम है। ऐसी मान्यता भी है कि चित्रकूट के इस पर्वत की सुन्दर एवं सुरम्य गुफा में प्रवाहमान यह जलराशि पाताल मार्ग से बहती हुई दक्षिण भारत की भूमि पर विशाल गोदावरी नदी के रूप में प्रकट होकर बह रही है। दक्षिण भारत की यह विशाल नदी अपनी अद्भुत जीवनदायिनी क्षमता के कारण दक्षिण भारत की गंगा कहलाती है। अपने तट के किनारे स्थित जनसमाज एवं प्रकृति-पर्यावरण का माॅं गोदावरी न केवल पोषण करती है, बल्कि उत्तर एवं दक्षिण भारत के जनसमाज के आपसी सम्बन्धों को अपने पावन एवं जीवनदायिनी जल की तरह शीतल, निर्मल एवं जीवन्त भी बनायी हुई है। गुप्त गोदावरी की गुफा पर्वत के शिलाखण्डों पर बनी प्राकृतिक आकृतियों के कारण अत्यन्त आकर्षक एवं विस्मयकारी लगती है।पवित्र गुफा में गोदावरी के जल की गहराई अधिकतम तीन फुट है, परन्तु गुफा के शिलाखण्डों के बीच जल फैला हुआ और स्थिर प्रतीत होता है। स्थिर, विस्तृत और शान्त जल को देखकर ऐसा लगता है जैसे बेटी मायके से विदा होने के पहले गम्भीर और शान्त हो गयी हो। प्रभु श्रीराम के वनवास की स्मृतियाॅं गुप्त गोदावरी की गुफा से जुड़ी हुई हैं। यह गुफा प्रभु की वनवास अवधि की साक्षी रही है। उनके वनागमन के समय यहाॅं के वन कितने दुर्गम और गुफा कितनी भयावह लगती होगी, इसकी महज कल्पना ही की जा सकती है। प्रभु का व्यक्तित्व कितना संघर्षशील रहा होगा, इसका अनुमान उनके वनागमन से जुड़े इन स्थानों को देखने मात्र से हो जाता है। माॅं जानकी और अपने अनुज के साथ ऐसी दुर्गम गुफा तक नंगे पाॅंव आना कितना दुष्कर और संघर्षपूण रहा होगा, यह सोचकर मैं विस्मित और भावुक हो उठा। प्रभु, माॅं जानकी और अनुज लक्ष्मण के पावन चरणों ने गुफा के शिलाखण्डों को स्पर्श किया होगा, ऐसा सोचकर हमलोग गुफा के शिलाखण्डों को नमन करते हुए विस्मयकारी गुफा का अवलोकन करते रहे। श्रद्धालु भक्त माॅं गोदावरी के जल में उतरकर गुफा को श्रद्धाभाव से देख रहे थे। हमलोग भी माॅं गोदावरी की स्थिर जलराशि में चलते हुए गुफा की प्राकृतिक कलाकृतियों को विस्मय एवं आध्यात्मिक भाव से देखते रहे। यह अनुभव हम लोगों के लिए बेहद रोमांचक था।  गुप्त गोदावरी की मनभावन एवं विस्मित करने वाली गुफा के दर्शन के उपरान्त माता सती अनसूया के प्रताप से प्रकट हुई माॅं मन्दाकिनी की पवित्र उद्गम भूमि एवं वहीं स्थित माता अनसूया के पावन आश्रम के दर्शन के उपरान्त हमलोगों ने रात्रि विश्राम चित्रकूट में किया। 
 चित्रकूट की सीमा को लांघते हुए मार्ग में स्थित जीर्ण-शीर्ण खण्डहर एवं खण्डहर परिसर में स्थित सरोवर 19 वीं शताब्दी के आरम्भ में विनायक राव पेशवा के वैभव एवं सुरूचिपूर्ण व्यक्तित्व की गवाही दे रहे थे। अत्यन्त कौशल के साथ वास्तुकला और स्नानागार के सौन्दर्य को मनभावन बनाया गया था। खण्डहर के बीच स्थित जल से परिपूर्ण सरोवर में खण्डित महल एवं चित्राकृतियुक्त आकर्षक भग्नावशेष खम्भों के प्रतिबिम्ब शांत एवं अथाह जलराशि में किसी उजड़े हुए देवलोक का आभास दे रहे थे। चित्रकूट में पेशवा की यह भग्न क्रीड़ा-भूमि अनायास ही पर्यटकों को अपनी ओर खींच लेती है। हमलोग भी भग्न खण्डहर को देखकर उसके तत्कालीन वैभव की कल्पना करते रहे। कुछ देर वहाॅं रूकने के उपरान्त हमलोग हनुमान-धारा की ओर बढ़ चले। उत्तंुग पर्वत शिखर पर संकटमोचन हनुमान जी की बायीं भुजा को प्रक्षालित करती हुई हनुमान धारा की पवित्र जलराशि के स्पर्श एवं नमन से आध्यात्मिक अनुभूति सजग हो उठी। महावीर हनुमान जी की बायीं भुजा पर निरंतर इतनी प्रभूत जलराशि कहाॅं से गिरती है, यह आज भी विस्मय, आश्चर्य और एक प्रकार का ईश्वरीय चमत्कार ही है। ऐसी मान्यता है कि प्रभु श्री राम की प्रेरणा से पवनपुत्र हनुमान इस पर्वत पर रामरक्षा स्त्रोत का पाठ करके प्रभु श्री राम की ब्रह्म चेतना में ध्यानस्थ हो गए थे।  तत्पश्चात हम लोगों ने मध्य प्रदेश के सतना जनपद में स्थित मैहर के लिए प्रस्थान किया। मैहर में उच्च पर्वत शिखर पर स्थित माता शारदा की पवित्र भूमि रात्रि के अन्धेरे में दीप और विद्युत प्रकाश से आकाश के मध्य स्थित किसी प्रकाश-लोक की तरह प्रतीत हो रही थी। हमलोग रोप-वे से पर्वत शिखर पर स्थित मंदिर परिसर में पहुॅचे। रोप-वे में बैठकर ऐसा लग रहा था जैसे हमलोग लघु विमान में बैठकर आसमान की ओर धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं। बढ़ती ऊॅंचाई के साथ रोप-वे से विशाल एवं विस्तृत धरती के वृक्ष, भवन, पथरीली जमीन पर स्थित खुले मैदान, सड़क, गली तथा अत्यन्त लघुता में दिख रहे गतिशील मानव समाज अत्यन्त रोमांचक एवं कौतूहलपूर्ण लग रहे थे। हमलोगों के लिए यह सब देखना बेहद रोमांचक और मनोरम लग रहा था। हम मित्रगण ऐसे विरल दृश्यों को मोबाइल के कैमरे में कैद करते जा रहे थे। पर्वत शिखर पर स्थित मंदिर का प्रांगण आध्यात्मिक चेतना से परिपूर्ण था। मंदिर का प्रांगण माॅं शारादा माता के जयघोष से गूॅंज रहा था। त्रिपाठी जी की बुलन्द आवाज में सहयोग देते हुए हमलोगों ने कई बार माता की भक्ति में जयघोष किया। मंदिर का परिसर उच्च पर्वत शिखर पर होने की वजह से किसी अन्य लोक का आभास दे रहा था। परिसर का वातावरण भक्ति और श्रद्धा की सुषमा से मनभावन हो उठा था। माॅं की इस शक्तिपीठ के सम्बन्ध में कई रोचक एवं रहस्यमयी दंतकथाएॅं प्रचलित हैं। बुन्देलखण्ड के लोक मानस में बसे दो भाई आल्हा एवं ऊदल ने अपने परम पराक्रम एवं साहस से ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय इतिहास की वीरगाथाको न केवल गौरवान्वित किया बल्कि आज भी भारतीय जनमानस के वीरोचित संस्कार को अपने अविस्मरणीय रणकौशल से जीवन्त बनाए हुए है। शारदा माता के इस पावन मंदिर से दोनों वीर भ्राता की श्रद्धा एवं भक्ति जुड़ी हुई है, जो आज भी भारतीय जनमानस के गौरव की पुण्य स्मृति है। ऐसा लोक विश्वास है कि बुन्देलखण्ड के यही दोनांे महान पराक्रमी योद्धा आल्हा और ऊदल ने ही सर्वप्रथम जंगलों के बीच शारदा माता के इस मंदिर की खोज की थी। 12 वर्षों की अपनी तपस्या से माता को प्रसन्न करके आल्हा ने अमरत्व का वरदान प्राप्त किया। आल्हा माता को माई कहकर पुकारते थे। मंदिर के पास पर्वत के नीचे आल्हा तालाब है। तालाब से दो किलोमीटर पर एक अखाड़ा है, जहाॅं आल्हा और ऊदल कुश्ती लड़ा करते थे। ऐसी लोक मान्यता है कि आज भी दोनों भाई ब्रह्मबेला में प्रतिदिन सर्वप्रथम माता की पूजा और आरती करते हैं परन्तु अद्भुत चमत्कार है कि कोई उन्हें देख नहीं पाता है। प्रथम पूजा एवं आरती के प्रमाण मंदिर के पुजारी को प्रायः मिलते रहते हैं। यह आम धारणा है कि सुबह मंदिर का पट खुलने पर माॅं के चरणों में कभी-कभी ताजे पुष्प चढ़े मिलते हैं। भक्तजन इसे दोनों भाइयों द्वारा की गई पूजा का प्रमाण मानते हैं। माॅं शारदा माता के दर्शन करने के उपरान्त हम लोगों ने रात्रि विश्राम मैहर में किया और सुबह मध्य प्रदेश की विस्तृत भूमि पर पसरी हुई प्रकृति की शोभा देखते हुए बाॅंदा पहुॅंच गए। बाॅंदा की मिट्टी से मध्यकाल में एक ऐसा रत्न निकला था जिसकी आभा में भारतीय संस्कृति का समस्त उज्ज्वल पक्ष जगमग कर रहा है। इस रत्न को दुनिया तुलसीदास के नाम से जानती है। बाॅंदा की उर्वरा-शक्ति को मैंने साष्टांग नमन किया। बुन्देलखण्ड के पर्वतों एवं समतल मैदानों की प्राकृतिक सुषमा ने इतना मोहित किया कि हमलोग रास्ता भटक गए। बाॅंदा में ही विशाल पर्वत के शिखर पर दुर्ग का प्राचीर आकाश में लटके हुए विस्तृत दीवार की तरह प्रतीत हो रहा था। कुछ क्षण के लिए ऐसा लगा कि बाॅंदा की समतल भूमि से कहीं हमलोगों को देवलोक तो नहीं दिख रहा है। पता करने पर ज्ञात हुआ कि पर्वत शिखर पर स्थित यह अति प्राचीन अजेय दुर्ग कालिंजर का अभेद्य प्राचीर  है। ‘‘ कालिंजर ’’ का शाब्दिक अर्थ होता है जो काल को भी जर्जर कर दे अर्थात् पस्त कर दे। आसमान से बातें करता हुआ यह किला यदि आज भी कुछ अर्थों में अस्तित्ववान है तो निःसन्देह अपने नाम को ही सार्थक कर रहा है। जमीन से किले का बस प्राचीर दिखता है। किले तक पहुॅंचने के लिए पर्वत की पीठ पर गहरे काले रंग के डामर की घुमावदार सड़क बनी है। समतल जमीन से उठकर जाती हुई यह काली सड़क विष से व्याकुल किसी विशाल काले भुजंग का आभास देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि विष से व्याकुल होकर कोई विशाल नागिन चन्द्रमा से शीतलता लेने हेतु आकाश की ओर प्रबल वेग से अग्रसर हो गयी हो। हमलोगों में दुर्ग को देखने की इच्छा प्रबल हो उठी। द्विवेदी जी की गाड़ी किले की प्राचीर की ओर उठी उसी अद्भुत सड़क की ओर बढ़ने लगी। ज्यों-ज्यों जमीन से हम ऊॅंचाई की तरफ बढ़ रहे थे सफर रोमांचक होता जा रहा था। पथरीली जमीन पर उगे हुए पेड़ पर्वत रूपी समाधिस्थ ऋषि के आस-पास मौन खड़े उनके शिष्यों की तरह लग रहे थे। पर्वत के ढलान पर स्थित अनेक विशाल और अगम्य खाई तथा उसमें उगी हुई घनी घास किले की दुर्गमता का बोध करा रही थी। ज्यों-ज्यों गाड़ी सड़क की ऊॅंचाई पर चढ़ रहीं थी, बहते पवन की अनुभूति सघन होती जा रही थी। गाड़ी की खुली हुई खिड़कियों से वायु प्रबल वेग के साथ अवागमन कर रही थी। इतनी ऊॅंचाई पर कठोर चट्टानों के बीच खड़ा यह किला मनुष्य के अदम्य पुरूषार्थ का प्रबल हस्ताक्षर ही तो है। इस किले का अधिपति होने की अभिलाषा न जाने कितनी बार इस पर्वत की चट्टानों को मनुष्य के रक्त से नहलायी होगी। पर्वत का पाषाण अश्व टापों से दहल उठा होगा। खडगधारी अश्वारोही वीर प्रबल वेग से दुर्गम खाइयों को लांघते हुए आकाश की तरफ उठे पर्वत के पाषाण खण्डों का मान मर्दन करते हुए किले पर आधिपत्य के लिए टूट पड़ते होंगे। मेरे मन में आया कि वायु के प्रबल वेगयुक्त आवागमन से उठ रहे सुर खडगधारी उन पुरूषार्थी वीरों की विरूदावली तो नहीं हैं। कई साहसी योद्धा पर्वत चट्टानों से टकराकर खाई में लुढ़ककर और दुर्ग के पर्वतीय मार्ग पर चल रहे भीषण संग्राम में आहत होकर अपने प्राणों से हाथ धो बैठे होंगे। इतिहास भी ऐसे गुमनाम रणमतवालों से अनभिज्ञ है। किसी शासक की इच्छा की कोख से उत्पन्न जिद और हठ के लिए न जाने कितने अनाम वीरों को कुर्बानी देनी पड़ी होगी। रणबांकुरे मर मिटकर चले गए परन्तु किला आज भी पर्वत के भाल पर क्षत-विक्षत अवस्था में खड़ा होकर मनुष्य के अविवेक और उसकी मूर्खतापूर्ण अभिलाषा का उपहास कर रहा है। किसी ने इस दुर्ग को अपनी रूचि के अनुरूप सॅंवारा तो किसी ने इसे पाने के लोभ में इसकी भव्यता को ही  क्षतिग्रस्त और खण्डित कर दिया। मनुष्य का मनोविज्ञान है कि जिसे वह पा नहीं सकता उसे नष्ट करने की चेष्टा करने लगता है। इस समय दुर्ग की तरफ हम पाॅंच लोग धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। द्विवेदी जी और त्रिपाठी जी ने अद्भुत तालमेल के साथ पर्वत के चारों और फैली प्राकृतिक सुषमा का अवलोकन कराते हुए वाहन को किले के प्रांगण में खड़ा कर दिया। द्विवेदी जी ने प्राचीर के प्रांगण में खड़े होकर चोरों ओर किले पर एक विहंगम दृष्टि डाली। उनको देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वे किले के क्षतिग्रस्त महल और टूटे हुए प्राचीर से कह रहे हों कि कभी हमलोग अश्व और खडग के साथ आपके प्रांगण में आए थे। आज युगों बाद अपने वाहन से आया हूॅ। पहचान रहे हैं आप। हमारा आपका परिचय बहुत पुराना है। आज भी मन में वही अदम्य इच्छा शक्ति है और भुजा में वही खडगहस्त वाला बल मौजूद है। सिंह साहब के चेहरे पर विजयी योद्धा जैसी चमक और हॅंसी थी। त्रिपाठी जी मध्यकाल के उस योद्धा की तरह लग रहे थे जो किला फतह के बाद आगे की योजना पर मनन कर रहे हों। उपाध्याय जी की गम्भीरता उस योद्धा की तरह थी जो किले में छिपे अन्य दुश्मनों की आशंका के निराकरण पर अपना ध्यान केन्द्रित किए हुए हों। मेरी स्थिति आश्चर्य से इन रणबांकुरों के रणकौशल को देखने वाले द्रष्टा की तरह थी और आज भी मैं टूटे और आहत हृदय से किले की भग्नता को देख रहा था। दुर्ग की भग्नावस्था से किसी समय उसकी भव्यता का आभास हो रहा था। उस उजड़े हुए दुर्ग को देखकर मैं व्यथित हो उठा। मुझे लगा कि दुर्ग का दुःखी हृदय उच्चरित हो उठा हो। दुर्ग बोल उठा और हृदय से हृदय का संवाद आरम्भ हो गया। मुक्ति नाथ ! युगों से लोग मुझे पाने, देखने और भग्न करने आ रहे हैं। प्रजाति मनुष्य की है परन्तु सबके उद्देश्य अलग-अलग रहे हैं। कोई मुझे अस्तित्व में लाया तो कोई अपने प्रहार से मेरे अस्तित्व को नष्ट करने की कोशिश करता रहा। जिस पर्वत पर आज तुम मुझे देख रहे हो यहाॅं कभी मनोरम प्रकृति का साम्राज्य था। मनोरम जलाशय, नाना प्रकार के पादप, पुष्प और लताएं इस पर्वत शिखर की मनभावन सम्पदा थीं। वनवासी साधक, सरल जीवन के प्रेमी कोल और भील तथा प्रकृति के अन्य प्राणियों से पर्वत शिखर आबाद था। ऐसा लगता था कि स्वर्ग लोक धरती पर यहीं पड़ाव डालकर रूका हो। कालांतर में धरती पर मनुष्य सभ्य होकर नगर बसाने लगे थे। मैंने कहा आप कैसे अस्तित्व में आए ? वही बता रहा हूूॅं। सभ्यता और स्वार्थ का अटूट नाता है। मनुष्य जितना सभ्य हुआ उतना ही स्वार्थी भी हुआ है। विंध्याचल के इस पर्वतखण्ड ने प्राचीन काल से ही मुझे अपने ऊपर धारण कर रखा है। सान्निध्य और स्नेह में नजदीक का नाता है। एकांत क्षणों में पर्वत अपनी व्यथा मुझे बताया करता है। मेरे आने से पूर्व यहाॅं के सौन्दर्य का बोध मुझे पर्वत ने हीे कराया है। नगर के विकास के साथ ही मनुष्य के लालच और आधिपत्य कायम करने की दुष्प्रवृत्ति प्रबल हो उठी और रक्तरंजित संग्रामों का अंतहीन सिलसिला प्रारम्भ हो गया। पर्वत शिखर के स्वाभाविक प्राकृतिक सौन्दर्य को मिटाकर मुझे बनाया गया और मेरा प्रांगण भोग-विलास और खूनी संघर्ष का केन्द्र बन गया। मेरे प्रांगण में कई गगनचुम्बी महल बने और मिट गए। कई बार सुन्दर स्नानागार और उपवन बनाए गए और कई बार उनका विध्वंस किया गया। मनुष्य के सृजन और उसकी क्रूरता का खेल मेरी छाती पर चलता रहा। मैंने कई आक्रांताओं को आते देखा। मुझ पर आधिपत्य के लिए अपने प्राचीर के आगे योद्धाओं के सिर, हाथ, पैर, आॅंख और पेट को मैंने कटते और फटते देखा है। पर्वत के पाषाण-खण्डों पर घायल सैनिकों की छटपटाहट और चीत्कार की स्मृतियाॅं आज भी मुझे उद्विग्न कर देती है। मेरा प्रांगण और पर्वत की पाषाण भूमि कई बार मानव रक्त से नहा चुकी है। संगीत की सुर लहरी और नर्तकियों के पद चापों में बॅंधे घुॅंघरू की ध्वनि से मेरे प्रांगण के प्राचीर कई बार प्रकम्पित हो उठे हैं। पराक्रमी सामंतों और शासकों की बलिष्ठ भुजाओं में सिमटकर उनकी प्रशस्त छाती पर अपने उन्नत उरोजों का मर्दन करती हुई सुन्दर स्त्रियों की काम-क्रीड़ा का भी मेरे महल, प्राचीर, सरोवर और उपवन साक्षी रहे हैं। 




 मुक्ति नाथ ! मेरा अस्तित्व अति प्राचीन है। इतिहास की दृष्टि में मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व नहीं समा सकता। प्रखर अन्तर्दृष्टि सम्पन्न संवेदनशील सुहृदय मनुष्य मुझे देखकर ही मुझे एवं मेरे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को अनुभूत कर सकता है। अति प्राचीन काल से लेकर आज तक मैं काल के गतिशील चक्र का मौन द्रष्टा रहा हूॅं। यही कारण है कि स्वयं के सम्बन्ध में मेरी अनुभूति बहुत गहरी और गूढ़ है। यद्यपि गहन अनुभूति की सशक्त अभिव्यक्ति मौन है, क्योंकि गहन अनुभूति कभी अभिव्यक्त नहीं हो पाती, तथापि मैं तुम्हें अपने इतिहास की संक्षिप्त क्षीण रूपरेखा भी सुना देता हूॅं। कभी मुझे भी अपने वैभव और बुलन्दी का अहंकार था। काल की गतिधारा में मेरा अदम्य अहंकार तिनके की भाॅंति बिखरकर बह चुका है। कालचक्र केवल जड़ को ही नष्ट नहीं करता है, बल्कि चेतन के मोह और दर्प को भी भंग करता हुआ गतिशील रहता है। मैं अपने अनुभव से सत्य कह रहा हूॅं कि जीवात्मा और जगत् के कल्याण का सशक्त मार्ग सकल जड़ एवं चेतन के प्रति संवेदना एवं सहृदयता को विस्तार देने में है। अधिकार और वैभव सम्पन्न मनुष्य यदि मुझे देखकर मात्र कुछ क्षण मनन कर ले तो उसे बहुत गहरी सीख मिल सकती है। मैंने कई युगों का उत्थान एवं अवसान देखा है। जनसमाज के साथ कई वैभवशाली राजवंशों को काल की गतिधारा में मैं तृण की तरह पनपते और उखड़ते देख चुका हूॅं। मेरा अस्तित्व हर युग में रहा है। युग के उत्थान और अवसान के साथ मेरा नाम बदलता रहा। सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापर युग मंे सिंहलगढ़ और कलयुग में कालिंजर के नाम से मैं विख्यात रहा हॅंू। जेजाकभुक्ति साम्राज्य की शक्ति का मुख्य केन्द्र मैं ही था। पराक्रमी चंदेल राजवंश का प्रभुत्व जब मुझ पर था, उस समय महमूद गज़नवी, कुतुबुद्दीन ऐबक और हुमायूं ने मेरे ऊपर आधिपत्य के लिए यहाॅं आक्रमण किया था परन्तु पराक्रमी चन्देलों की तलवारों की चमक इन आक्रमणों को विफल करती रही। चन्देल शासक अपने प्रताप एवं पराक्रम के बल पर ही ‘‘कालिन्जराधिपति’’ की उपाधि का वरण करके गौरावान्वित होते थे। कुछ समय तक मुगल सम्राट अकबर का आधिपत्य भी मेरे ऊपर था। मुगलों के हाथों से मुझे जीतने का गौरव बुन्देलखण्ड के महाप्रतापी राजा छत्रसाल को जाता है। भारतवर्ष पर अॅंगे्रजों का प्रभुत्व स्थापित होते ही सन् 1812 में मैं भी अॅंग्रेजों के अधीन हो गया। भारतवर्ष के गौरव का नवीन अध्याय असंख्य देशभक्त सपूतों की कुर्बानी से मिली आजादी के साथ प्रारम्भ होता है। आज मैं भी हर्ष और गौरव के साथ मौन द्रष्टा बनकर लोकतांत्रिक भारत में कालचक्र की गति को शांतिपूर्वक देख रहा हूॅं। मेरे प्रांगण में विध्वंस और सृजन की प्रक्रिया निरंतर चलती रही है। मृगधार, कोटितीर्थ, चैबे महल, राठौर महल, पाण्डव कुंड, भगवान सेज, बेलाताल, रामकटोरा ताल, मतोला सिंह संग्रहालय, मजार ताल और भरचाचर आदि की उपस्थिति विध्वंस और निर्माण की सतत् प्रक्रिया की ही गवाही दे रही है। दुर्ग पुनः किसी समाधिस्थ वृद्ध संत के समान मौन हो गया। हमलोग विस्मित नेत्रों से कालिंजर दुर्ग का विस्तार और उसके भग्न वैभव को देख और समझ रहे थे। 
 अचरजपूर्वक किले के विस्तार एवं भग्नावशेषों को देखते हुए हमलोग किले के प्रांगण में स्थित विशाल सरोवर को देखा। सरोवर के किनारे एक विशाल शिवलिंग था और थोड़ी दूर पर नीलकंठ महादेव मंदिर की ओर जाने के मार्ग का बोर्ड लगा हुआ था। विशाल सरोवर के चारों ओर सीढ़ियाॅं, कुछ मेहराब तथा बुर्ज बने हुए थे। सरोवर लगभग सूख गया था। सीढ़ियाॅं, मेहराब और बुर्ज प्रायः भग्न हो चुके थे। निःसन्देह जब ये बने होंगे तब इनकी भव्यता अद्भुत रही होगी। सरोवर की चट्टानों के बीच कहीं-कहीं थोड़ा बहुत जल भी दिख रहा था। उसे देखकर ऐसा लगा कि किसी समृद्ध सेठ के अभाव और दरिद्रता के दिनों में उसके कुछ भग्न रत्न उसकी झोली में शेष रह गए हों। मैं इन सबको देखकर अचानक बोल उठा-कितना भव्य और विशाल सरोवर है। दुर्ग की आत्मा फिर बोल उठी। निःसन्देह मुक्ति नाथ ! इस सरोवर की भव्यता अद्भुत थी लेकिन आज तुम एक भग्न और मलिन सरोवर देख रहे हो। किसी समय इस सरोवर के जल को सुन्दर मृगनयनी स्त्रियों के कोमल अंगों को स्पर्श करने का सौभाग्य और गौरव मिला है। यह जो तुम कठोर चट्टानों के बीच अवशेष उदासीन और मलिन जल देख रहे हो, इन्हें अपने पूर्वजों के सौभाग्य और सुख की स्मृति नहीं है। मैंने इस सरोवर के निर्मल और प्रभूत जलराशि में रूप की धनी युवतियों को जल-क्रीड़ा करते देखा है। आज कठोर चट्टानों के बीच सड़ते हुए सरोवर के इस अल्प मलिन जल को देखकर मेरी छाती फट रही है। सरोवर वही है, जल भी वही है लेकिन सरोवर के जल का वैसा भाग्य और समय नहीं रह गया। यही कालचक्र है। समय के प्रवाह में किसी भी भव्यता को निस्तेज और मलिन करने की शक्ति है और समय का प्रवाह सदा ऐसा करता आया है परन्तु मूर्ख मनुष्य की आसक्ति सृष्टि के इस संदेश को समझ नहीं पाती। सांसारिक आकर्षण के वशीभूत होकर उसके पीछे मनुष्य अपने अन्दर स्थित ईश्वर अंश आत्मा पर मलिनता की धूल जमा कर लेता है और अनन्तकाल तक जन्म-मृत्यु के भव-चक्र में घूमता रहता है। अब तुम्हीं देखो न ! भग्न सरोवर के अल्प जल में वह सामथ्र्य, निर्मलता और आकर्षण कहाॅं रह गया है? सरोवर के किनारे स्थित विशाल शिवलिंग को हमलोगों ने नमन किया। दुर्ग की आवाज मुझे फिर सुनाई दी। मुक्ति नाथ ! दुरावस्था के इन दिनों में भी मैंने अपने प्रांगण में अक्षय और अनुपम गौरव को धारण कर रखा है और यह अक्षय गौरव मेरे प्रागंण में नीलकण्ठ महादेव का विराजमान होना है। स्वयं महाकाल ने मेरे प्रांगण में विराजकर मुझे धन्य कर दिया। असंख्य आक्रान्ताओं के प्रहार को सहन करके यदि आज भी मैं इस पर्वत शिखर पर विराजमान हूॅं तो उसका श्रेय मैं नीलकण्ठ महादेव को देता हूॅं। सकल ब्रह्माण्ड उन्हीं का विस्तार है तथापि शिवरूप में विचरण करते हुए वे भक्तों की रक्षा और कल्याण करते रहते हैं। महाप्रभु के विग्रह के ठीक ऊपर स्वर्गारोहण कुण्ड है। इसी कुण्ड में इन्होंने विषपान के बाद विश्राम किया था। विष के प्रभाव से आज भी इस कुण्ड का जल नीला है। परमेश्वर नीलकण्ठ महादेव की ग्रीवा से निरंतर पसीना निकलता रहता है। तुम इसे प्रत्यक्ष देख सकते हो। विज्ञान के इस युग में भी मनुष्य की बुद्धि महाकाल के कण्ठ से निरंतर निकल रहे पसीने रूपी जल का रहस्य समझ नहीं पायी। आध्यात्मिक चमत्कार को मनुष्य की बु़िद्ध से नहीं समझा जा सकता, इसके लिए आध्यात्मिक अनुभूति का होना आवश्यक है। ईश्वर का साक्षात्कार ज्ञान और तर्क से नहीं बल्कि आत्मिक अनुभूति से संभव है। मंदिर का पुजारी महादेव के कण्ठ को पोछता रहता है और पसीना निरंतर बहता रहता है। इस भूमि की मनोहरता उन्हीं के प्रताप का प्रतिफल है। महादेव की उपस्थिति यहाॅं के एक-एक कण का अक्षय पुण्य है। महादेव नीलकण्ठ ने ही तुमलोगों को बुलाया है, जाकर उनके दर्शन का पुण्य लाभ प्राप्त करो। हमलोग किले के पश्चिमी छोर पर स्थित नीलकण्ठ महादेव मंदिर पहुॅंच गए। दुर्ग की मुख्य भूमि से सौ सीढ़ियाॅं नीचे उतरने के बाद नीलकण्ठ महादेव का मंदिर है। मंदिर का गर्भ गृह पर्वत की गुफा में स्थित है और मंदिर की छत कई खम्भों पर टिकी है। मंदिर परिसर की वास्तुकला अद्भुत है। पत्थरों पर उकेरी गई नक्काशियों एवं शिला-खण्डों को तराशकर बनाई गई देव प्रतिमाओं तथा कमल के पुष्प मौर्य एवं गुप्त काल के प्रतीत होते हैं। काल के प्रवाह ने मंदिर परिसर की अधिकांश कलाकृतियों को क्षतिग्रस्त कर दिया है। गर्भगृह में शिवलिंग पर ही नीलकण्ठ महादेव की मुखाकृति है तथा उसके नीचे उनकी ग्रीवा स्पष्ट दिखती है। ग्रीवा यानी कण्ठ से निरंतर पसीने के रूप में बॅूंदे उभरती रहती है। इसे हमलोगों ने प्रत्यक्ष देखा और अनुभूत किया। यह महाकाल की जाग्रत उपस्थिति का प्रबल प्रमाण है। गर्भगृह के ऊपर दो चट्टानों के बीच में एक कुण्ड है जिसमें नीला पानी भरा रहता है। पानी उसमें कहाॅं से आता है, यह ज्ञात नहीं है। यही स्वर्गारोहण कुण्ड के नाम से जाना जाता है। स्वर्गारोहण कुण्ड को देखते ही गजब की आध्यात्मिक अनुभूति होती है परन्तु अधिक देर तक देखते रहने पर भय का आभास भी होता है। नीलकण्ड महादेव का विग्रह अत्यन्त जीवन्त एवं परम फलदायी है। मंदिर परिसर में परम शांति की अनुभूति होती है। नीलकण्ठ महादेव का दर्शन करते ही उनकी अमोघ कृपा से शरीर रोमांचित हो उठा। महादेव की इस विलक्षण निवास भूमि के सम्बन्ध में कभी सुना भी नहीं था। बाॅंदा पहुॅंचने पर ही किले के परिसर में परम पावन नीलकण्ठ महादेव के मंदिर की जानकारी मिली। हम सबको ऐसा प्रतीत हुआ कि महाप्रभु ने स्वयं बुलाकर दर्शन और आशीर्वाद दिया है। हमलोग नीलकण्ठ महादेव को नमन करके और मंदिर परिसर की कलाकृतियों को देखने के उपरान्त पुनः दुर्ग की मुख्य भूमि पर आ गए थे। पसीने से हमलोगों का बदन भीग गया था। पीपल के एक पेड़ के नीचे हमलोग खड़े हो गए। दुर्ग की आत्मा पुनः बोल उठी। तुमलोगों के सात्विक संस्कार का ही प्रतिफल है कि महादेव नीलकण्ठ प्रभु के दर्शन का सौभाग्य तुमलोगों को प्राप्त हुआ है। इनके दर्शन का फल अमोघ एवं अक्षय होता है। पीपल के पेड़ के नीचे हमलोगों को बड़ी राहत मिली और पसीना सूखने लगा। किले की आवाज फिर मेरे कानों में गूॅंजने लगी। मुक्ति नाथ ! वृक्ष मनुष्य को छाया और फल ही नहीं देता है बल्कि प्रतिपल जीवन भी देता है। प्राणवायु के बिना मनुष्य एक पल भी नहीं जी सकता है और इस प्राणवायु का स्रोत वृक्ष ही हैं। जो प्रतिपल जीवन देते हैं, उनके प्रति कृतज्ञ रहने के बदले मनुष्य वृक्षों को धरती से उन्मूलित करने में लगा है। मैं जब भी वृक्षों को कटते देखता हॅंू मुझे लगता है कि मनुष्य अपनी अज्ञानता में अपने जीवन को ही नष्ट कर रहा है। कभी यह पर्वत शिखर घने वृक्षों से आच्छादित था। पर्वत शिखर का यह प्राकृतिक आभूषण समय के साथ मिटता गया। आज यह शिखर घने वृक्षों से लगभग विहीन हो चुका है। मेरे निर्माण में भी शिखर के कई घने वृक्ष काट डाले गए। शिखर तक आने के मार्ग तैयार करने और मुझ पर वर्चस्व की लड़ाई में भी मनुष्य प्राणवायुप्रदाता वृक्षों को निर्ममतापूर्वक नष्ट करता रहा। मनुष्य अपने अहंकार और क्षणिक शक्ति के मद में जो विनाश लीला रचता है उसका दुष्प्रभाव युगों तक उसकी संतति झेलती है। मुक्ति नाथ ! मैं स्वयं अपने वैभव और पराभव का साक्षी हॅंू। मुझे अहंकारी मनुष्यों की अज्ञानता और अदूरदर्शिता पर हॅंसी आती है। न तो शक्ति के मद में बर्बर आक्रान्ताओं का मेरे ऊपर आधिपत्य स्थायी रहा और न ही मेरा वैभव और अभेद्यता ही अक्षुण्ण रही। आज यह कालिंजर उपेक्षा और पराभव लिए खड़ा है। काश ! कभी इसे सर्वस्व मानकर मानव रक्त की धारा बहाने वाले निर्मम आक्रान्ता मुझे देख पाते तो उन्हें अपनी मूर्खता का एहसास होता। अश्व टापों, खडग की चमक, वाद्य यंत्रों की मधुर ध्वनि, रमणियों की मुस्कान एवं अह्लादकारी हॅंसी, नर्तकियों के घुॅंघरूओं की झंकार और प्राचीरों पर फैले खड्गधारी सूरमाओं की मुस्तैदी-सब काल के प्रवाह में विलीन हो गए और आज मेरा यह प्रांगण वीरान और उपेक्षित है। कभी मेरी एक कमी या अधूरेपन को तुरंत दूर किया जाता था और आज मैं क्षतिग्रस्त होकर उपेक्षित अपाहिज की तरह पर्वत शिखर पर बोझ बना बैठा हॅंू। तुम्हारे साथ आए द्विवेदी जी को याद नहीं होगा, इन्होंने कितने सुरूचिपूर्ण ढंग से मेरे प्राचीर को नवीनता प्रदान की थी और मेरे प्रांगण में सुन्दर महल और उद्यान बनवाए लेकिन आज मेरी भग्नता को देखकर इनकी अन्तरात्मा दुःखी है। शरीर पर थकान और उदासी इनकी आत्मा के उसी दुःख का प्रकटीकरण है। वास्तुकला के प्रति इनकी वर्तमान अभिरूचि और संघर्ष की अदम्य इच्छाशक्ति से परिपूर्ण इनका पुरूषार्थ पूर्वजन्मों के संस्कारों का ही प्रतिफल है। तुम्हारा, उपाध्याय जी, त्रिपाठी जी और सिंह साहब सबका इस दुर्ग से पूर्व जन्म का अनुराग एवं सम्बन्ध है। मुझे यह सब ज्ञात है। असंख्य पथिक मेरे नजदीक से आते-जाते रहते हैं परन्तु जिनका इस दुर्ग से पूर्वजन्म का सम्बन्ध है, उन्हीं का पुनर्पदार्पण प्राचीर से घिरे मेरे इस परिसर में हो पाता है। तुमलोगों का अनायास मेरे पास आना महज एक संयोग नहीं है, यह जन्म-जन्मान्तर के आत्मिक अनुराग का प्रतिफल है। कभी मेरे प्रांगण से प्रशस्त धरा पर फैले ग्राम एवं नगरों पर शासन किया जाता था। प्रजा के भाग्य एवं राज्यों के भविष्य की रूपरेखा मेरे प्राचीर एवं महलों के अन्दर तय की जाती थी। आज मेरा क्षतिग्रस्त और उपेक्षित प्राचीर, महल और प्रांगण सुखद स्मृतियों को स्मरण करके आंसू बहा रहे हैं। मुक्ति नाथ ! मुझे देखकर मनुष्य को सोचना चाहिए कि कुछ भी सदा-सर्वदा के लिए वैभवपूर्ण और उपयोगी नहीं होता। समय के प्रवाह में चीजें महत्वपूर्ण और महत्वहीन होती रहती हैं। जब इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है, तो फिर किसी सांसारिक वस्तु के प्रति अतिशय अनुराग और उसे अपनी कमजोरी बनाकर मनुष्य मानवता की हत्या क्यों करता रहता है ? इस संसार में वह कत्र्तव्य निर्वहन की भावना से तटस्थ होकर क्यों नहीं जीता है ? मनुष्य की क्षमता, शक्ति और प्रतिभा की सार्थकता तो उसे प्राणिमात्र के कल्याण में नियोजित करने से ही सिद्ध और सफल होगी। भगवान आदित्य अस्ताचल की ओर बढ़ने लगे थे। कालिंजर दुर्ग ने कहा - मुक्ति नाथ ! सूर्यदेव के अस्त होते ही आकाश में तारागण की तरह मेरा परिसर दीप की ज्योति से जगमगा उठता था। प्राचीर पर बने बुर्ज और परिसर के महलों की अट्टालिकाएॅं मशाल के प्रखर प्रकाश में जगमगा उठती थी। लेकिन अब मेरे यहाॅं रात की वह रौनक नहीं रही। अन्धेरा घिरते ही सियार और उल्लू की आवाजें मेरी उपेक्षा और दुरावस्था की पीड़ा को और गहन बना देती हंै। अतः अन्धेरा घिरने से पूर्व ही तुमलोग अपने गंतव्य के लिए प्रस्थान कर जाओ। पूर्वजन्म में भी तुमलोग यहाॅं आ चुके हो, रह चुके हो। तुमलोगांे को दोबारा देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मैंतुमलोगों के पुनः आगमन की प्रतीक्षा करूॅंगा। आज मेरे गौरव का एकमात्र स्थायी आधार भगवान नीलकण्ठ महादेव का मेरे परिसर में निवास है। मुझे ऐसा लगा कि सूर्य की क्षीण रोशनी में कालिंजर की आवाज भी क्षीण होती जा रही है। हमलोग कालिंजर के मुख्य द्वार पर आ गए थे और दुर्ग से बाहर जाने की तैयारी करने लगे। मैंने मुख्य द्वार से विशाल कालिंजर दुर्ग का पुनः अवलोकन करते हुए उन्हें करबद्ध नमन  किया। मुझे ऐसा लगा कि जर्जर और विशाल कालिंजर हमलोगों को आशीर्वाद देते हुए विदा कर रहा है। अन्धेरा घिर चुका था। नीला आकाश चन्द्रमा और तारागण की रोशनी से सुशोभित होने लगा। कालिंजर दुर्ग के विशाल पर्वत से नीचे उतरते ही द्विवेदी जी का वाहन लखनऊ के मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ने लगा था। 
              मुक्ति नाथ झा 


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