हर बेहतरीन निर्देशक अभिनेता होता है

डॉ संदीप अवस्थी
--------------------------------------------- फ़िल्म ऐसा जीवन्त माध्यम जो हमारे मन,दिल,जीवन को भावों से भर देता है। हमे एक ऐसी दुनिया मे ले जाता है जो हमारे आसपास की होती हुई भी अनूठी और नई लगती है। वहीं कई बार आसमान छूती ऊंचाइयों पर भी ले जाता है।पर्दे पर भले ही अभिनेता दिखते हैं,सुपरस्टार बनते हैं। लेकिन इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है फ़िल्म निर्देशक की । जो फ़िल्म का मूल विचार,सिद्धांत को मन मे लाता है।फिर लेखको के साथ बैठकर कहानी चयन,उसके प्रभाव पर चर्चा,फिर पात्र चयन ,लोकेशन चयन जहां फ़िल्म शूट होगी,गीत संगीत ,कैमरामैन फिर एडिटिंग से लेकर फ़िल्म ढंग से प्रदर्शित हो इसके लिए उपयुक्त तिथि आदि। प्रदर्शन के बाद फ़िल्म चले,न चले इसकी सम्भवना। सभी कुछ सहन करता है निर्देशक। सबसे मुश्किल काम होता है लगातार अभिनेताओं से अच्छा,अपने मनमाफिक काम करवाना। फ़िल्म दरअसल पूर्णतः निर्देशक का माध्यम है और ऐसे में वह अभिनेता भी हो तो फ़िल्म की गुणवत्ता और अच्छे परिणाम की संभावना बढ़ जाती है। भारतीय फिल्म जगत के ऐसे ही कुछ बेहतरीन,प्रतिभाशाली व्यक्तित्व हैं जो सामान्य से होते हुए विशिष्ट बने। उनके जीवन से हम असफलताओं,निराशाओं और लगातार जीवन एक सा के मिथ, आडम्बर को तोड़ सकते हैं। अपनी किस्मत खुद लिखते लोग
------------------------------------------ ऐसे लोग हर जगह ,हर शहर ,कस्बे में हुए हैं जो अपनी नियति को मान चुप बैठ जाते तो सदैव गुमनाम ही रहते। इसीलिए दिनकर की पंक्तियाँ हैं," ।न जाने कितने लोग हैं जो चुपचाप पैदा होते हैं,पढ़ते लिखते,नोकरी,शादी घर,बच्चे कर मर जाते हैं। उनके अंदर छिपे हुनर को, अच्छे कलाकार, संस्कृतिकर्मी को कभी बाहर आने का मौका नही मिलता।क्योकि वह इंतज़ार करते रहते हैं कि कोई आएगा और हमे मौका देगा।तकदीर के भरोसे रहते हैं और रहते हुए ही चले जाते हैं। दरअसल जीने के लिए कोई बनी बनाई लीक नही होती। हर इंसान की लीक,प्रतिभा और हिम्मत अलग होती है,वही उसे आगे बढ़ाती है। प्रतिभा जन्मजात होती है परन्तु उसे आगे जिंदा रखता है आपका साहस और सामने लाता है आपका आत्मविश्वास। याद रखें आप हर क्षण,मोके पर अलग होंगे, झुंड अलग आप अलग। बिल्कुल न घबराएं बल्कि खुश होए की आपको ईश्वर ने विशेष प्रतिभा दी है। बस अब आगे बढ़ना है। यह चन्द इंसान ऐसे ही हैं (प्रतिभाशाली कभी "थे" नही होते बल्कि सदैव रहते हैं अपने कार्यों से ) जिन्होंने बनी बनाई लीक पर चलना स्वीकार नही किया। आइए मिलते हैं ------ 1.महबूब खान
----------------------पहला नाम सामने आता है महबूब खान का। जिन्होंने चौकीदारी, एक्सट्रा की भीड़ में खड़े होने से लेकर अखबार तक बेचे। फिर आधे आधे मिनट के रोल किए। और आगे जाकर औरत,1937, इसी का रीमेक मदर इंडिया 1957, सन ऑफ इंडिया सहित यादगार फिल्मे निर्देशित की। आप अनपढ़ थे और लिखी हुई स्क्रिप्ट प्रारम्भ में यानि हिटफिल्म औरत के बाद तक नही पढ़ पाते थे। उधर उस वक़्त ईरानी, वाडिया, शांताराम,दादा साहब फाल्के आदि थे जो बाकायदा प्रशिक्षित थे और विदेशो तक कि जानकारी रखते थे।एक्सट्रा से प्रारम्भ हुआ सफर कामयाब निर्माता निर्देशक तक जारी रहा।तीव्र समझ,व्यवहारिक बुद्धि से आज भी इनका मुकाम अमर है। मदर इंडिया में हर किरदार को अपने अभिनय से ऊंचाइयो तक ले जाने में निर्देशकीय क्षमता का बहुत बड़ा हाथ है।आज चोसठ वर्ष बाद भी यह फ़िल्म देखें तो छोटे से छोटा किरदार ,चाहे वह बिरजू के बचपन का बाल कलाकार ,याकूब हो,जो बाद में सन ऑफ इंडिया ,महबूब की ही फ़िल्म, से होता हुआ हॉलीवुड में भी सफल अभिनेता बना। गीत संगीत और उनका फिल्मांकन यह सब अभिनेता के मूल गुण अपने अंदर लिए महबूब खान में थे। गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांक रे..गाने का फ़िल्मांकन देखें,आज तक उस स्तर का गीत शूट नही हुआ। बैलगाड़ियों की दौड़, खुला मैदान ,आज से चौसठ वर्ष पूर्व तकनीक कुछ नही थी,फिर भी इस गाने में दौड़ता कैमरा वर्क, हाव भाव , खुशी,नायिका नायक की जीत की होड़, बड़ी बूढ़ों का उत्साह, जोश दिखता है। कल्पना करें उस ज़माने में ऐसा गीत का फिल्मांकन ,यूट्यूब पर देखें,तो आप समझ जाएंगे कि जीनियस जीनियस होता है।आपने सरदार अख्तर, औरत फ़िल्म में नरगिस से बीस वर्ष पहले यही भूमिका की थी,से निकाह किया।महबूब स्टूडियो, मुम्बई आज भी इस फिल्मकार की दूरंदेशी,विलक्षण प्रतिभा का गवाह है। हर सफल निर्देशक एक अच्छा अभिनेता होता है।क्योंकि छोटे से छोटे पात्र से वह अभिनय करवाता ही नही उसके सबसे अच्छे शॉट को चुनता भी है।अभिनय करवाने से पहले बताता भी है कि उसे क्या चाहिए। अभिनय करके दिखाता भी है। फ़िल्म माध्यम की सारी समझ ,टॉप एंगल,वाइड एंगल,फेड इन,फेड आउट से लेकर प्रकाश व्यवस्था,एडिटिंग,संगीत,संवाद,कहानी आदि इन सबकी गहरी समझ रखता है। इन अमूर्त पर महत्वपूर्ण,गूढ़ चीजो के मध्य अभिनय भी करके बताना।अभिनेता तो अपनी एक भूमिका निभाता है पर निर्देशक तो फ़िल्म के हर पात्र को स्वयं जीता है। वह हर पात्र को अभिनय बताता है फिर चाहे वह नायिका,खलनायक,नायक हो या कोई भी छोटा किरदार।तो समझ सकते हैं कि निर्देशक कितनी प्रतिभा,समय,समर्पण,और निष्टा से बनता है। (2) गुरुदत्त :
--------------ऐसे ही प्रतिभा के धनी इंसान थे।वह इसके साथ साथ बहुत अच्छे नर्तक भी थे। बतौर नायक सफल रहे।कुछ चर्चित फिल्में हैं सीआईडी,मि.एंड मिसेज पचपन आदि। फिर निर्देशक के रूप में बाजी,साहब, बीवी और गुलाम, प्यासा,कागज के फूल आल टाइम क्लासिक्स, ।लेकिन नायक गुरुदत्त के ऊपर हमेशा निर्देशक हावी रहा। प्रतिभा का विस्फोट ,उसका चरम,उसका शीर्ष नही होता। यह अनवरत यात्रा होती है।इसका आकर्षण,नशा चढ़ जाए तो फिर क्या जीनियस और क्या सामान्य निर्देशक कोई बच नही पाता। वही हुआ। गुरुदत्त हालांकि इस चीज को संभाल पा रहे थे परन्तु अपने समय के आगे का बनाने लगे। जो यकीनन क्लासिक तो था परन्तु उन्हें सृजनशीलता से खाली भी कर रहा था। उस वक़्त प्यासा, कागज के फूल ,इतनी बुरी तरह फ्लॉप हुईं की जीनियस भी नही समझ पाए। वजह इतनी मुश्किल नही। दरअसल हर जीनियस एक खास ऊँचाई पर होता है,वहां से वह अपने ही बनाए, चुने मनपसन्द जोन को ही भूल जाता है।प्रारम्भिज दौर की सीआईडी, जाल,बाजी हो जो आम लोगो की फिल्में थीं। जो सुपरहिट हुई और गुरुदत्त को ऊंचा म्यार दिला गईं। परन्तु बाद में वह सूक्ष्म,अपने दिल के करीब फिल्मो की तरफ मुड़ते हुए यह भूल गए कि हमेशा समाज मे जीनियस, बुद्धिजीवी एक या दो प्रतिशत ही होते हैं। तो प्यासा,कागज के फूल उतने ही लोगो ने देखी और बस.....गुरुदत्त अत्यधिक शराब,कोई दोस्त नही होना और खुद की नाकामी के साथ खुदकुशी कर गए। लेकिन यही गलती की लोकप्रिय ,अठानवे प्रतिशत लोगो के लिए हिट फ़िल्म बनाते हुए ,क्लासिक फ़िल्म बनाने की गलती आगे उसी दौर में एक ने की पर जल्दी ही सुधार ली। क्योकि वह अभिनेता,निर्देशक गुरुदत्त के अंजाम से सबक ले चुका था। वह थे राजकपूर।

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