जाति का ज़हर!

****** अपने यहाँ जाति की अवधारणा आज जिस रूप में है, वह मन को क्षुब्ध और कुंठित करता है। इस पर तुर्रा यह कि हर किसी को अपनी जाति पर गर्व है। जातियों में बँटे भारत में हर जाति को अन्य जातियों से वैमनस्य करने, श्रेष्ठ दिखने, लड़ने का बहाना मिल जाता है। जातिविशेष का अखिल भारतीय से लेकर पंचायत स्तर तक का संगठन बनाने वाले अध्यक्ष, महामंत्री, महासचिव, प्रवक्ता आदि अन्यान्य पदनामधारी लोग मिल ही जाते हैं। मैं जन्मना ब्राह्मण हूँ, पर मुझे सदा लगा है कि भारतीय समाज को अगर वैश्विक स्तर पर श्रेष्ठता सिद्ध करनी है, तो जातिगत बंधन तोड़ने होंगे। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जाति के आधार पर लड़ने वाले दो तरह के लोग हैं– 1. जाति की राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले। 2. मध्य वर्ग का वह तबका जो काम कम करता है, आराम से खाना खाकर सोशल मीडिया पर यूँ ही समय बिताता है या कार्यालय की ओछी पॉलिटिक्स करते, चाय पीते, गुटका खाते जातिवाद आदि पर भी सोशल मीडिया पर कुछ लिख मारता है। औसत से भी कम प्रतिभा के ये लोग अपने लिखे से क्रांति का बिगुल फूंकते रहते हैं, भले ही बजे उनसे सीटी भी न। वस्तुतः, जो बहुत ग़रीब है, उन्हें रोटी की चिंता है और जो बहुत अमीर या बहुत सफल हैं, वे अपने उद्यम में इतना व्यस्त हैं कि इन चीज़ों के लिए उसके पास समय ही नहीं। जो राजनीतिक या निठल्ला तबका है वही रूढ़ियों से जकड़ा है या दूसरे सिरे पर जाकर वही नफ़रत की खेती करता है। वे धर्म को मानते हैं, धर्म की नहीं मानते या बुद्ध को मानते हैं, बुद्ध की नहीं मानते। आप अपने फेसबुक मित्रों पर ही इस विश्लेषण को आजमा कर देख सकते हैं। #नमन इन्हें जिन्होंने मानवीय आज़ादी की बात की- छुआछूत, विधवा मुंडन, देवदासी प्रथा, स्त्री-मुक्ति, अशिक्षा और ग़रीबी से मुक्ति की बात की।
लेखक-कमलेश कमल

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