वरदान

मुक्ति नाथ झा
नदी तट के शिलाखण्ड से क्षिप्रा नदी की प्रवाहमान जलराशि को युवक पुण्डरीक निहार रहा था। शिलाखण्ड पर विशाल पाकड़ वृक्ष की छाया फैली हुई थी। क्षिप्रा की नमी और उसकी उर्वर मिट्टी से प्राप्त पोषण का प्रतिफल वृक्ष की विशाल काया और हरियाली में फलीभूत हो उठा था। क्षिप्रा की प्रशस्त जलराशि पर तरूण सूर्य का प्रकाश फैला हुआ था। हेमन्त ऋतु का सुहावना दिवस अवसान की ओर धीरे-धीरे बढ़ने लगा था। पाकड़ वृक्ष की कोमल पत्तियाँ अहर्निश पाषाण-खण्ड को स्पर्श करते हुए क्षिप्रा की जलधारा में गिरती रहती थी। कुछ पत्तियों को जलधारा सहयात्री की तरह लेकर आगे बढ़ जाती तो कुछ वहीं शिलाखण्ड के पास नदी तट की भूमि से चिपककर समय के साथ अपने अस्तित्व को मिट्टी में विलीन करते हुए उसकी उर्वरा-शक्ति में वृद्धि करती रहती। जीवन के संघर्ष और अभाव से दुःखी होकर पुण्डरीक प्रायः क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित इस शिला-खण्ड पर आकर बैठ जाता। क्या मनुष्य एक अतृप्त जीवन जीने के लिए अभिशप्त है ? ऐसा क्यों होता है कि किसी के पास संसार का समस्त वैभव है और कोई जीवनभर छोटी-छोटी खुशियों को पाने में भी असमर्थ रहता है। विषमताओं से भरा यह संसार किसी रहस्य से कम नहीं है। हम कहाँ से आते हैं और कहाँ अदृश्य हो जाते हैं, इस रहस्य को आज तक कोई नहीं जान पाया ? लोग कहते हैं कि अपनी गृहस्थी बसा लो। कुछ विद्याथियों को संस्कृत पढ़ाने से प्राप्त आय से अपना ही निर्वाह नहीं हो पाता, जीवनसंगिनी को क्या सुख दे पाऊँगा ? जीवन अभावों की निर्मम गाथा बनती जा रही है। पुण्डरीक का मस्तिष्क इन्हीं विचारों में खोया हुआ था लेकिन हाथ की गतिविधियाँ कुछ और ही कर रही थी। शिलाखण्ड के पास नदी के जल में एकत्र हुई पत्तियों को पुण्डरीक पास पड़ी हुुई पाकड़ की सूखी टहनी से निकालकर नदी तट पर रखता जा रहा था। उसका यह कार्य सप्रयोजन नहीं था बल्कि उसे ऐसा करते हुए मनोरंजन के साथ-साथ सुखद अनुभूति भी हो रही थी। शिलाखण्ड के नीचे नदी के निर्मल पानी में जल-देवता वरूण कुछ समय के लिए प्रवास करने आए थे। यह कौन युवक है जो मेरे अल्प प्रवास स्थल को निरंतर निर्मल बना रहा है ? वरूण देव यह सोचते हुए युवक पर प्रसन्न हो उठे। जल से निकलते हुए एक दिव्य प्रकाश से पुण्डरीक की आँखें चैंधिया गईं। वरूण देव युवक के समक्ष अपनी दिव्यता के साथ प्रकट हो गए। युवक को घबराया हुआ देखकर उन्होंने कहा- वत्स ! मैं जल का देवता वरूण हँू। पृथ्वी के समस्त जल का अधिपति मैं ही हँू। मैं पृथ्वी के सभी जलाशयों में प्रायः भ्रमण करते हुए अल्प समय के लिए रूकता रहता हँू। वास्तव में इस धरती पर जीवन का प्रथम स्पन्दन जल में ही हुआ था। धरती पर जब तक निर्मल जल है तभी तक जीवन है। मैं यह देखकर क्षुब्ध हँू कि जीवन के मूल आधार जल के प्रति लोग बहुत निर्मम और उदासीन हो गए हैं और इसकी स्वच्छता का ध्यान किसी को नहीं है। क्षिप्रा की गतिशील जलराशि को निर्मल करते हुए देखकर मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हँू। तुम कौन हो ? अपने विषय में कुछ बताओ। वरूण देव की मृदुलता से युवक पुण्डरीक का भयाक्रान्त मन शांत, स्थिर और उत्साहित हो गया। युवक ने वरूण देव को प्रणाम करते हुए कहा - हे अम्बुपति ! मैं एक निर्धन ब्राह्मण पुण्डरीक हूँ । जीवन के संघर्ष और अभाव से प्रायः व्यथित रहता हँू। माँ क्षिप्रा की प्रवाहमान जलराशि को देखकर मुझे असीम शांति की अनुभूति होती है। क्या जीवन में सब कुछ इच्छामात्र से सुलभ नहीं हो सकता ? वरूण देव ने मुस्कुराते हुए कहा -वत्स पुण्डरीक ! जीवन की सार्थकता संघर्ष और द्वंद्व में है और इसी में जीवन का आकर्षण और मानव व्यक्तित्व का सतत् विकास निहित है। मृत्युलोक में संघर्ष मानव जीवन का प्राणतत्व है। व्यक्ति स्वयं के पुरूषार्थ से जो कुछ अर्जित करता है, उसकी वास्तविक उपलब्धि वही होती है और उसी उपलब्धि में उसका सहज आत्मविश्वास भी चमक उठता है। संघर्षहीन एवं निष्क्रिय जीवन निर्जीवता का द्योतक है। यदि जीवन में सब कुछ बिना परिश्रम के इच्छा मात्र से सुलभ हो जाए तो जीवन के आकर्षण और उद्देश्य की सार्थकता ही समाप्त हो जाएगी। वैभवशाली और अधिकार सम्पन्न जीवन की कठिनाइयाँ, उसकी पीड़ा और उद्विग्नता प्रायः वृहत् और विकट होती हैं। व्यक्ति की विडम्बना यह है कि उसे अक्सर अपनी ही व्यथा दिखती है। वैभवशाली और अधिकार सम्पन्न जीवन जी रहे लोगों की आन्तरिक व्यथा से वह प्रायः अनभिज्ञ रहता है। वत्स ! अक्सर जो दिखता है वही सत्य नहीं होता। यदि जीवन में सब कुछ सुखमय हो जाए तो वह सुख भी कालांतर में दुःख प्रतीत होने लगेगा। अस्तित्व, विकास और संतुलन पक्ष और विपक्ष की उपस्थिति से ही संभव है। सत्य यही है कि हर कुछ के अस्तित्व के लिए उसके विपक्ष या विरोध का होना आवश्यक है। यदि विपक्ष या विरोध न हो तो पक्ष भी अस्तित्वहीन हो जाएगा। जगत् में चीजें अपने पक्ष और विपक्ष के साथ ही आती है और दोनों के साथ ही अस्तित्ववान रहती है। अन्धकार के कारण ही प्रकाश अस्तित्ववान है। यदि मृत्यु न हो तो जीवन अर्थहीन हो जाएगा और यदि रात न हो तो दिन को परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसी से तुम पक्ष और विपक्ष की अनिवार्यता को समझ सकते हो। यही कारण है कि दुःख सुख से और सुख दुःख से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है और दोनों परिस्थितियों में समभाव होना ही विवेकवान मनुष्य का परिचायक है। यदि विरोध न हो तो जीवन एकांगी होकर अव्यवस्थित हो जाएगा। विरोध किसी भी व्यक्ति को अपने एकाकी विचार में अति तक जाने से रोककर उसे एक संतुलित जीवन देता है। वत्स ! किसी भी चीज की अति भी एक प्रकार की अव्यवस्था ही तो है। अतः जीवन में सुख के साथ दुःख, शांति के साथ बेचैनी, विश्राम के साथ व्यस्तता, समृद्धि के साथ अभाव और ज्ञान के साथ अज्ञान का संतुलन जीवन की गति और उसके विकास के लिए आवश्यक है। वत्स पुण्डरीक! जीवन के इन सत्यों को हृदय में धारण करके तटस्थ भाव से अपने दायित्वों का निर्वहन करो। युवक का अनुभूत सत्य बहुत कटु था। वह सरलता से वैभवशाली जीवन को पाने हेतु व्याकुल और व्यग्र था। वरूण देव के प्रेरक वचनों का प्रभाव युवक पर नहीं हुआ। जलाधिपति को पुण्डरीक की हृदयगत अभिलाषा को समझते देर नहीं लगी। वरूण देव ने पुण्डरीक को एक अँगूठी देते हुए कहा कि वत्स ! इस अँगूठी से तुम जैसे जीवन की चाह रखोगे, वैसा जीवन तुम्हें बिना संघर्ष के शीघ्र मिल जाएगा। याद रखना यह अँगूठी तुम्हें भौतिक वैभव से परिपूर्ण जीवन तो देगी परन्तु तुम्हारी आत्मिक शांति, ज्ञान की आकांक्षा और तुम्हारे व्यक्तिगत कौशल की पूर्ति इससे नहीं हो पाएगी। यहाँ पर जब कभी तुम मेरा आह्वान करोगे, मैं केवल एक बार और तुम्हें दर्शन दूँगा। इतना कहकर वरूण देव अदृश्य हो गए। युवक पुण्डरीक प्रसन्न था। उसे आत्मिक शांति, ज्ञान और व्यक्तिगत कौशल की आवश्यकता नहीं थी। इस अभावग्रस्त युवक को भौतिक समृद्धि और वैभव की बेहद गहरी प्यास थी। वह प्रसन्नचित्त होकर अँगूठी को निहारते हुए नदी तट से नगर की ओर चल पड़ा। वह नगर पहुँचकर नगर सेठ का विशाल महल और विस्तृत वैभव देखकर चकित रह गया। उसने अँगूठी से ऐसे ही जीवन की आकांक्षा प्रकट की। उसी समय नगर सेठ अपने महल की अट्टालिका पर अपनी पत्नी के साथ आए थे। विशाल अट्टालिका से वे नगर की शोभा का अवलोकन कर रहे थे। उनकी दृष्टि युवक पुण्डरीक पर पड़ी। नगर सेठ सन्तानहीन था। पुण्डरीक को देखते ही उसके प्रति सेठ दम्पति के हृदय में स्नेह उमड़ पड़ा। उसने पुण्डरीक को पुत्र के रूप में विधिवत स्वीकर कर लिया। पुण्डरीक का जीवन अचानक अभाव से वैभव में बदल गया। वह एक वैभवशाली जीवन व्यतीत करने लगा। कुछ ही दिन बीते होंगे कि उसे इस वैभवशाली जीवन से जुड़ी कठिनाइयों का आभास होने लगा। स्वादिष्ट व्यंजनों का सेवन और परिश्रमहीन वातावरण में उसका शरीर स्थूल हो गया और वह अस्वस्थ रहने लगा। अस्वस्थता की मनःस्थिति में उसे संसार का सारा सुख निरर्थक प्रतीत हो रहा था। पुण्डरीक की व्यापारिक अनुभवहीनता के कारण नगर सेठ को कई बार व्यापार में हानि हुई। पुण्डरीक व्यापार के व्यावहारिक प्रपंच से बिल्कुल अनभिज्ञ था। विडम्बना यह थी कि पुण्डरीक में व्यापार की बारीकियों को समझने और जानने की रूचि भी नहीं थी। नगर सेठ को लगने लगा कि पुण्डरीक उसके सिर पर किसी बोझ से कम नहीं है। समय के साथ नगर सेठ का गुणहीन पुण्डरीक के प्रति व्यवहार अपमानजनक रहने लगा। नगर सेठ अपनी बातों से उसे बार-बार अपनी कृपा की अनुभूति कराता जिससे पुण्डरीक का स्वाभिमानी मन कई बार आहत हो उठता। सेठ जी की उपेक्षा और अपमान के कारण वह मानसिक तनाव और अवसाद में रहने लगा। वहाँ उसने बहुत नजदीक से देखा कि किस तरह लाभ के लिए सेठ के कर्मचारीगण झूठ बोलते हुए व्यापार में नाना प्रकार का प्रपंच रचते हैं। नगर सेठ की व्यापारिक गतिविधियों में ईमानदारी और बेईमानी के मध्य सम्यक् संतुलन था और तत्समय का यही युगधर्म भी था। नगर सेठ चाहते थे कि पुण्डरीक भी व्यापार के युगधर्म को समझे। तत्समय के युगधर्म के कारण ही पाप के आवरण में पुण्य के प्रदर्शन का व्यापार भी चलता रहता था। गरीबों, देवालयों और जरूरतमंदों को दान देने के साथ-साथ अन्य परोपकार के कार्य भी होते रहते थे। इस प्रकार के द्वंद्वपरक जीवन से शीघ्र ही पुण्डरीक का मन व्यथित हो गया। इन सब के अतिरिक्त वह सेठ जी के अपमानजनक व्यवहार से आहत और व्याकुल रहने लगा था। इसी मानसिक क्लेश की मनःस्थिति में एक दिन वह बिना किसी को बताए रात्रि के अन्धेरे में सेठ का घर सदा के लिए छोड़कर चला गया। सेठ का न तो वह पालित और न ही जैविक पुत्र था। पुण्डरीक के प्रति नगर सेठ का वह क्षणिक अनुराग अँगूठी के प्रताप से उत्पन्न हुआ था जो समय के साथ धीरे-धीरे समाप्त हो चुका था। अतः सेठ ने उसे वापस लाने के लिए कोई यत्न नहीं किया। पुण्डरीक का जीवन पुनः वहीं लौट गया जहाँ से वह आगे बढ़ा था। जीवन की कठिनाइयों से वह पुनः दुःखी रहने लगा। एक दिन वह राजपथ के किनारे खड़ा था। राजा अपने सैन्य बल के साथ राजपथ से गुजर रहा था। राजसी वैभव देखकर वह हतप्रभ रह गया। वह सोचने लगा कि राजा के पास वैभव भी है और अधिकार भी। निश्चय ही राजा सुखी जीवन जीता होगा। उसने अँगूठी निकाली और राजा बना देने की इच्छा उसे बता दी। कुछ ही क्षण बाद उसी राजपथ से राजा की इकलौती पुत्री अपनी सहेलियों के साथ राज उपवन जा रही थी। राजमार्ग पर खड़े सुन्दर पुण्डरीक को देखकर राजकुमारी का हृदय कमल खिल उठा। राजकुमारी पुण्डरीक को साथ लेकर अपने पिता के पास गई। पिता भी युवक पुण्डरीक को देखकर प्रसन्न हो उठे। उन्होंने राजकुमारी का विवाह पुण्डरीक से कर दिया। राजा चैथेपन में पहुँच गए थे। राजा ने पुण्डरीक को राज्य सौंपकर स्वयं तपस्या करने वन में चले गए। पुण्डरीक ने बिना योग्यता और परिश्रम के राजपद को प्राप्त कर लिया था। राजा बनते ही उसे राजा के दायित्वों का आभास हुआ। राजा के लिए यह आवश्यक है कि उसे शस्त्र और शास्त्र दोनों का ज्ञान हो ताकि वह राज्य की रक्षा करने के साथ-साथ प्रजा के प्रति न्याय भी कर सके। दुर्भाग्यवश पुण्डरीक में दोनों गुणों का अभाव था और उससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह था कि दोनों गुणों को अर्जित करने की उसमें कोई चेष्टा भी नहीं दिख रही थी। भाग्य से प्राप्त उपलब्धियाँ कर्म से अर्जित पुरूषार्थ की दीवारों के घेरे में ही रूक पाती है। गुणहीन व्यक्ति का सम्मान पत्नी भी नहीं करती है। राजकुमारी को अब लगने लगा कि तन का सौन्दर्य मृग मरीचिका की तरह ही आकर्षक और उपयोगी तो प्रतीत होता है परन्तु उसमें स्थायी और वास्तविक आकर्षण नहीं होता। वास्तविक सौन्दर्य व्यक्ति का तन नहीं बल्कि व्यक्ति के गुण हैं। गुणरूपी सौन्दर्य को ही भारतीय संस्कृति ने सत्य और शिव कहा है-‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’। पुण्डरीक अब राजकुमारी की उपेक्षा और बात-बात पर अपमान से आहत रहने लगा था। अपनी अयोग्यता और अनुभवहीनता के कारण राजदरबार में पुण्डरीक की स्थिति कभी-कभी हास्यास्पद हो जाती थी। राजतंत्र की राजनीति का एक अभिन्न अंग कूटनीति भी है जिसमें प्रायः षडयंत्र, कठोरता, निर्ममता, हिंसा-प्रतिहिंसा और घात-प्रतिघात के खेल चलते रहते हैं। पुण्डरीक के लिए यह सब नवीन, भय देने वाला, रहस्यमय और विस्मयकारी था। उसे अब लगने लगा कि एक राजा का जीवन बेहद तनावपूर्ण और काँटों से भरा होता है। शीघ्र ही यह बात दुश्मन राज्य में फैल गई कि पड़ोसी देश का राजा अकर्मण्य और अनुभवहीन है। इस अवसर का लाभ उठाकर दुश्मन राज्य ने पुण्डरीक के राज्य पर आक्रमण कर दिया। पुण्डरीक में तलवार उठाकर सेना के साथ रणभूमि में उतरने का न तो साहस था और न ही बल। राज्य पर आए संकट के निवारण के लिए महामंत्री के पुत्र ने युद्ध में राज्य का नेतृत्व किया और दुश्मन की सेना को वापस लौटने के लिए विवश कर दिया। महामंत्री के पुत्र की जय जयकार होने लगी। राज्य सत्ता वास्तविक रूप में महामंत्री के हाथ में आ गई। पुरूषार्थी और कर्मशील व्यक्ति के प्रति ईष्र्या अकर्मण्य व्यक्ति के स्वाभाविक एवं सहज लक्षण होते हैं। अकर्मण्य पुण्डरीक को भी महामंत्री और उसके पुत्र से घोर ईष्र्या होने लगी। सौन्दर्य की तुलना में गुण का आकर्षण अधिक गहरा और स्थायी होता है। तन का सौन्दर्य उम्र के साथ परिवर्तनशील है परन्तु कर्म से अर्जित कौशल और गुण प्रायः अपरिवर्तित होते हैं। अतः तन के सौन्दर्य की अपेक्षा व्यक्तित्व के गुण और कौशल से प्रभावित प्रेम में स्थायित्व एवं लालित्य अधिक होते हंै। यही कारण था कि राजकुमारी का अनुराग धीरे-धीरे महामंत्री के पुत्र के प्रति बढ़ने लगा। यह अनुराग शीघ्र ही प्यार में परिवर्तित हो गया। पुण्डरीक और राजकुमारी के बीच इस बात को लेकर घोर मनमुटाव रहने लगा। पुण्डरीक को लगा कि राज परिवार बहुत निष्ठुर, निर्मम और अवसरवादी होता है। उसे राजा का जीवन दुःख और काँटों से भरा प्रतीत होने लगा। एक रात राज गुप्तचर ने पुण्डरीक को सूचना दी कि राजकुमारी आपकी हत्या का षड्यंत्र रच रही है और महाराज! किसी भी समय आपकी हत्या हो सकती है। यह सब देख सुनकर पुण्डरीक का मोह राज्य सत्ता से पूरी तरह भंग हो गया और उसी रात उसने भेष बदलकर सदा के लिए राजमहल छोड़ दिया। पुण्डरीक का मन संसार से फट चुका था। वह अवसाद और चिन्ता में इधर-उधर भटक रहा था। ऐसी ही मनोदशा में एक दिन उसे शांत चित्त का विरक्त संन्यासी दिखा। अकर्मण्य और अपरिपक्व मनःस्थिति में हम किसी भी चीज से शीघ्र प्रभावित हो जाते हैं और पुण्डरीक के साथ भी यही हुआ। अभिलाषाओं से दूर संन्यास उसे गहरायी से छू गया। पिछली व्यथाओं से उद्विग्न और व्यथित पुण्डरीक के मन में अब संन्यासी बनने की इच्छा प्रबल हो उठी। वह चित्त की शांति के लिए व्याकुल हो गया। पुण्डरीक ने अँगूठी से संन्यासी बनाने की बात कही। कुछ पल बाद एक विरक्त संन्यासी ने उसके कन्धे पर हाथ रखा और कहा - पुत्र ! किस चिन्ता में मग्न हो ? हमारे साथ आओ और प्रभु का स्मरण करते हुए इस भव-बन्धन से मुक्त हो जाओ। वत्स! जन्म ही दुःख का कारण है और हमारी सांसारिक अभिलाषा इस दुःख को और अधिक गहन कर देती है। मोक्ष और इस जीवन में आत्म-शांति के लिए अपेक्षा और अभिलाषाओं को त्याग दो । पुत्र ! मैं तो यही कहँूगा कि मनुष्य तन पाए हो तो भगवत भजन करते हुए जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष पद को प्राप्त करो। संन्यासी की वाणी से पुण्डरीक को बड़ी शांति मिली और वह उस विरक्त संन्यासी के सान्निध्य में एक तपस्वी का जीवन जीने लगा। पुण्डरीक जैसे अकर्मण्य पुरूष के लिए यहाँ भी जीवन का मार्ग सरल नहीं था। वैराग्य का दुर्गम मार्ग सांसारिक मार्ग से अधिक जटिल तो था ही, साथ ही चंचल मन पर नियंत्रण पुण्डरीक को और कठिन प्रतीत हो रहा था। भौतिक विलासिता का त्याग आसान है परन्तु मोह, ईष्र्या, तृष्णा, क्रोध, वासना, इच्छा, अभिमान और यश की अभिलाषा आदि वैचारिक दुर्भावनाओं को छोड़ पाना अत्यन्त कठिन और साधनापरक है। वास्तव में सांसारिक बन्धनों से मुक्त होकर वास्तविक संन्यासी आत्मा के कठोर अनुशासन को स्वीकार करके जीता है। सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी, धूप-छाँव आदि सभी अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में तन और मन को समभाव की स्थिति में रखना आसान नहीं होता है परन्तु यही समभाव संन्यास का सर्वप्रमुख आधार है। पुण्डरीक का मन संन्यास की कठिन साधना से दहल उठा। संन्यास उसके लिए सहज और स्वाभाविक नहीं रह गया। संन्यास के बन्धन में आकर उसका मन पहले से अधिक चंचल और उद्विग्न रहने लगा। जब किसी नारी पर उसकी दृष्टि पड़ती, राजकुमारी के कोमल तन की स्मृति उसे व्याकुल कर देती। स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए जिह्वा ललचाती रहती। भोजन मिलने पर अल्पाहार की जगह वह अधिक भोजन उदरस्थ कर बैठता। संग्रह संन्यासियों के लिए वर्जित है परन्तु सांसारिक मनुष्य की तरह भविष्य की सुविधाओं को ध्यान में रखकर वह संग्रह भी करने लगा। संन्यास के सारे नियम उससे छूटते गए और वह एक भ्रष्ट संन्यासी के रूप में कुख्यात हो गया। अपयश से अपमान और उपेक्षा बढ़ी और समय के साथ न तो वह संन्यासी रहा और न सांसारिक। पुण्डरीक को अब वरूण देव के वचन याद आ रहे थे। कठिन परिश्रम से अर्जित वैभव का ही हम पूर्ण संतुष्टि के साथ उपभोग कर पाते हैं। वस्तुतः अपने कर्म से अर्जित कौशल से प्राप्त पात्रता से हम जो कुछ प्राप्त करते हैं वही वास्तव में हमारा होता है और उसी उपलब्धि में हमारे आत्मविश्वास की आभा भी चमकती रहती है। पुण्डरीक परिश्रम से नहीं बल्कि वरदान स्वरूप इच्छामात्र से चीजें प्राप्त करता रहा जिसे पुण्डरीक उद्यम से अर्जित पुरूषार्थ की जमीन न दे पाने के कारण पाकर भी उसे तृप्तिपूर्वक भोग नहीं सका जिसके फलस्वरूप उसे हर बदला हुआ जीवन दोषपूर्ण प्रतीत होता था। पुण्डरीक को संन्यासी के रूप में भी संतुष्टि नहीं मिली। अब उसे अपना गाँव और वहाँ का स्वाभाविक सरल जीवन सुखद प्रतीत होने लगा। क्षिप्रा नदी की वह निर्मल गतिशील जलधारा उसे अपनी ओर खींचने लगी और एक दिन पुण्डरीक यायावर संन्यासी के आवरण को तोड़कर क्षिप्रा नदी के उसी शिलाखण्ड पर जाकर बैठ गया। शरद ऋतु का मनोरम मौसम था। भगवान आदित्य का प्रकाश आकाश से धरती तक बिखरा हुआ था। नदी की बहती जलराशि पर बिखरे हुए प्रकाश में अनेक बाल-रवि क्रीड़ा करते हुए प्रतीत हो रहे थे। पुण्डरीक सूर्य प्रकाश में क्षिप्रा की चमकती गतिशील जलराशि को देखकर मंत्रमुग्ध हो उठा। उसने हाथ में अँगूठी रखकर बन्द नेत्रों से वरूण देव का आह्वान किया। बन्द नयन के आगे उसे प्रखर ज्योति का आभास हुआ। नेत्र खुलते ही पुण्डरीक ने देखा कि मुस्कुराते हुए सामने जलाधिपति वरूण देव उपस्थित हैं। युवक पुण्डरीक ने उन्हें नमन करते हुए कहा- भगवन अम्बुपति ! आपका वचन सर्वथा सत्य ही नहीं बल्कि व्यावहारिक भी था। वास्तव में जीवन की सार्थकता संघर्ष और उद्यम में है। प्रभु ! मैं अपने अनुभव से यह जान पाया हँू कि कोई भी वैभव, समृद्धि एवं उपलब्धि तभी स्थायी और उपयोगी है जब उसे संघर्ष के साथ पूरी क्षमता और योग्यता से प्राप्त किया जाए। जीवन की सार्थकता वरदान में नहीं बाधाआंे मंे छिपा है। प्रभु ! आप अपनी यह मनवांछित अँगूठी वापस ले लीजिए और यह कहकर पुण्डरीक ने जलाधिपति के दीप्तिपूर्ण चरण पर अँगूठी रखते हुए कहा- प्रभु ! मानव जीवन वरदान से नहीं बल्कि कर्म की कठोर साधना से अर्जित पुरूषार्थ से गतिशील रहता है और जीवन की यही गतिशीलता जीवन की वास्तविक उन्नतिशील उपलब्धि है। जलाधिपति वरूण देव ने पुण्डरीक को आशीर्वाद देते हुए कहा- वत्स पुण्डरीक! यह तुम्हारा अनुभूत सत्य है जो तुम्हारे आत्मविश्वास को मजबूती देकर जीवन के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण को अधिक स्पष्ट और प्रखर करेगा। परिश्रम करके अपने पुरूषार्थ को जाग्रत करो और पूरे आत्मसम्मान और नैतिकता के साथ पृथ्वी की विपुल सम्पदा का भोग करो। पुण्डरीक ने पुनः हाथ जोड़कर जलाधिपति को प्रणाम किया। अम्बुपति वरूण देव का ज्योतिर्मयी शरीर क्षिप्रा की निर्मल और अथाह जलराशि में विलीन हो गया।

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