उभरता एशिया: सच होता एक सपना - अनुज अग्रवाल

सच तो यह है कि या बात सच है। और आप लगभग इस सच से अंजान हैं। कि वो अब यह नहीं हैं। न रुस और न अमेरिका और न ही नाटो देशों की फ़ौजे। दक्षिण एशिया से चार दशकों के बात बाहरी ताक़तें और महाशक्तियाँ ग़ायब हो चुकी हैं। अमेरिका की फौजे रातोंरात 9/11 से पहले ही अफ़ग़ानिस्तान के सातों अपने क़ब्ज़े वाले हवाई अड्डे ख़ाली कर भाग चुकी हैं और अफ़ग़ान तेज़ी से कट्टरपंथी तालिबान के क़ब्ज़े में आ रहा है। यह न अमेरिकी तालिबान है , न रूसी और न पाकिस्तानी व चीनी। अमेरिकी समर्थक कठपुतली सरकार के पाँव बस उखड़ने ही वाले हैं। समझना आवश्यक है कि क्या होंगे इसके परिणाम - 1) दक्षिण एशिया के लोग दशकों बाद विदेशी सेनाओं से मुक्त खुली हवा में साँस ले रहे हैं। 2) अब भारत व पाक की विदेशनीति रुस व अमेरिकी और नाटो के दबाव से मुक्त हैं। यानि स्वतंत्र विदेश नीति। न कोई हराम का पैसा, न षड्यंत्र। यह अभूतपूर्व स्थिति होगी जब रूसी वामपंथ को रोकने के लिए पूँजीवादी देश इस क्षेत्र में इस्लामिक कट्टरपंथ और उग्र हिंदुत्व को लड़ाने के लिए फ़ंडिंग बंद कर रहे हैं। 3) दक्षिण एशिया के देशों यानि भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मालदीव आदि के राजनीतिक, नौकरशाही, न्यायिक तंत्र, एनजीओ और मीडिया तंत्र में विदेशी घुसपैठ व पैसे का प्रवाह कई गुना सिकुड़ जाएगा या यूँ कहिए सिकुड़ने लगा है तेज़ी से। 4) निश्चित रूप से इस क्षेत्र के देशों में राजनीतिक स्थिरता, देशपरक नीति निर्माण, स्वाभाविक व द्रुत विकास तो होगा ही, साथ ही कट्टरता, आतंक, दंगे, अराजकता और आपसी वैर व विवाद कम होंगे। 5) अब इस क्षेत्र को चीन अपने प्रभाव में लेने की कोशिश कर रहा है और उसको रोकने के लिए भारत शक्ति संतुलन बनाए रखने में लगा है। चीन क़र्ज़ बाँटकर इस क्षेत्र के देशों पर प्रभाव जमाने में लगा है तो भारत अनुदान। मगर दोनो ही विकास योजनाओं पर ही काम कर रहे हैं यानि युद्ध व संघर्ष की संभावना बहुत कम है। चीन कभी भी नहीं चाहेगा कि अफ़ग़ान में कट्टरपंथ हावी हो, ऐसे में तालिबान की सोच में भी बड़ा बदलाव आना तय है। इस बात की संभावना भी कम है कि तालिबान भारत के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले क्योंकि उसका लक्ष्य “अफ़ग़ान में अपनी सरकार की स्थापना” पूरा होने ही जा रहा है। भारत से लड़ने के लिए न तो उसके पास हथियार हैं और न ही कोई वजह सिवाय इस्लाम के प्रसार के। मगर वैश्विक परिस्थितियाँ कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ हैं और टूटे फूटे व बिखरे अफ़ग़ान को ढर्रे पर लाना व अमेरिकी सार्थक सरकार से निपटना तालिबान के लिए ज़्यादा बड़ी चुनोती हैं। 5) सब बड़ा घटनाक्रम इस्लामिक कट्टरपंथ को मिलने वाली फ़ंडिंग में कमी का है। जब पाकिस्तान में सेन्य अड्डा ही नहीं बनाना तो पाक की शर्तें अमेरिका क्यों मानेगा और कट्टरपंथ व कश्मीर जैसे मुद्दे पर पाक के साथ खड़ा होगा? ऐसे में वह साउडी अरब व यूएई के माध्यम से आतंक व कट्टरपंथ को फ़ंडिंग क्यों कराएगा? इसीलिए इस क्षेत्र में कट्टरपंथी व आतंकी गुट सिमटते जा रहे हैं और इसीलिए कश्मीर मुद्दा हल हो गया व भारत अनुच्छेद 370 को हटा पाया और अब कश्मीर में चुनाव के लिए सभी दल सहमत हो गए क्योंकि अब उनका कोई आका व फ़ंडिंग कुछ नहीं बची। पाकिस्तान अब सारा ध्यान अफ़ग़ान पर लगा रहा है और उसकी औक़ात नहीं कि वह दोनो देशों की सीमाओं पर मोर्चे खोल दे। इसीलिए उसने सीमाओं पर सीसफ़ायर का उल्लंघन बहुत कम कर दिया है व लगातार भारत से गोपनीय कूटनीतिक वार्ताएँ कर संबंध सुधार रहा है। वह अफ़ग़ान ब पाक को एक करने की मुहिम पर है और ऐसे में कश्मीर अब उसके लिए बोझ बन गया है। इसीलिए पाक समर्थित आतंक में उत्तरोत्तर कमी आती जानी चाहिए। 6) भारत कोरोना के झटके के बाद भी तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है और अमेरिका व नाटो देशों के लिए इस क्षेत्र में चीन से निबटने व शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए एकमात्र मक़बूत व विश्वसनीय सहारा उसके मुक़ाबले लुंजपूँज पाकिस्तान जो हर माह सात से आठ हज़ार करोड़ रुपयों का क़र्ज़ चीन से लेकर अपना खर्चा चलाता है तो आबादी के बोझ तले दबा बांग्लादेश , ग्रहयुद्ध में उलझा म्यांमार व राजनीतिक झगड़ो में फँसा नेपाल है। भूटान, मालदीव व श्रीलंका को कोई बड़ा महत्व है भी नहीं। मध्यपूर्व एशिया से भी पश्चिमी देशों का मोह भंग होने वाला है क्योंकि खनिज तेल का स्थान सौर ऊर्जा व बिजली के वाहन लेते जा रहे हैं। इस दशक के अंत तक दशकों बाद यूरोप व अमेरिकी आतंक से तो एशिया मुक्त हो ही जाएगा ।अगर दक्षिण एशिया के देश संयम रखकर दूरदर्शी दृष्टिकोण अपनायें तो यह समय एशिया के उभरने व विश्व का नेतृत्व करने का है।

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