एक यात्रा के दौरान सीख

 संस्मरण


एक यात्रा के दौरान सीख 

यात्राओं के संस्मरण तो बहुत से हैं

पर मेरे साथ  वर्ष२००२ में इन्दौर से भोपाल यात्रा के दौरान एक घटना ऐसी घटी जो भुले नहीं भूलती।

 हुआ यूं-  हम किसी पारिवारिक कार्यक्रम में शामिल होने भोपाल से इन्दौर आये थे। कार्यक्रम के दौरान ही ज्ञात हुआ कि कार्यक्रम के दूसरे दिन जेठानी के पोते के जमाल का कार्यक्रम है। चूकि पतिदेव को आफिस में आवश्यक कार्य था अतः उनका रुकना संभव नहीं हो पा रहा था, अतः मैंने एक दिन रुककर कार्यक्रम में शामिल होने की इच्छा जताई। मैंने चूंकि कभी भी अकेले एक शहर से दूसरे शहर की यात्रा

नहीं की थी इसलिए पतिदेव मुझे रुकने से मना कर रहे थे।  मैंने  उन्हें कहा इन्दौर और भोपाल के बीच का सफर ज्यादा लम्बा सफर तो है नहीं पांच घंटे में पहुंच ही जाऊंगी। मेरे पिताजी की इच्छा भी थी कि मैं ससुराल के इस आयोजन में जरुर शामिल होऊं। अतः उन्होंने  कार्यक्रम पश्चात मुझे भोपाल की बस में बैठाने की जिम्मेदारी लें ली।

दूसरे दिन कार्यक्रम तीन बजे तक  तक समाप्त हो गया था, चूंकि मेरा गणेश चतुर्थी का व्रत था, और चांद के दर्शन के पश्चात् ही भोजन प्रसादी गृहण करती हूं अतःजल्दी फ्री हो गई थी। घर के सभी बड़ों से आज्ञा ली

मेरे बाबूजी ने मुझे बस में बैठाने आये

बस में मेरी चचेरी बहन के पड़ौसी सरदार जी यात्रा कर रहे थे, बाबूजी ने उनसे मेरा परिचय कराते हुए कहा-बेटा रास्ते में तुझे कोई दिक्कत हो तो ये सरदार जी बड़े भाई जैसे हैं इनकी सहायता ले लेना। सरदार जी को भी मेरा ध्यान रखने का कहा।

मैंने मन ही मन विचार किया कि बाबूजी तो किसी भी अनजान से परिचय कराते रहते हैं मुझे इस पांच घंटे की यात्रा में किसी से सहायता लेने की भला क्या आवश्यकता। 

खैर! बस चली भोपाल से इन्दौर का रास्ता प्राकृतिक छटा से भरा हुआ, मैं खिड़की से बाहर इस मनोरम नज़ारे का आनन्द ले रही थी कि हमारी बस (आष्टा-सोनकच्छ के बीच) एक पेड़ से टकरा गई, मुझे कुछ क्षण के लिए समझ नहीं आया कि क्या हुआ?

मेरी सीट बीच में थी। झटका इतनी जोर का था कि मुझे आगे की सीट का  हेंडिल गले में लग गया साथ ही हाथ की कलाई में भी चोट लगी थी। मुसाफिरों की चित्कार सुनकर मैं भी घबरा गई कि अब क्या होगा? कि मुझे सरदारजी याद आये, मैं उन्हें ढुंढने लगी, जैसे ही वे दिखे उनके पास जा खड़ी हुई। सरदारजी ने मुझसे पूछा बहन कहीं चोंट तो नहीं लगी आपको? मैंने उन्हें बताया कि हाथ की कलाई में लगी है। उन्होंने अपने सामान के साथ मेरे सामान को भी हाथ में लिया और मुझे बस से उतारा। एक वेन जो भोपाल की ओर जा रही थी उसे हाथ दिखाया वह रुक गई। उसमें चार युवा बैठे थे, उन्होंने बताया कि उनको भोपाल से भी आगे जाना है।सरदार जी ने उन मुसाफिरों से भोपाल बस स्टेंड तक छोड़ने का निवेदन किया, वे लोग मान गये। सरदार जी मुझसे  बोले दीदी अपन इसमें चलते हैं। मैं कुछ क्षण निरुत्तर थी इसी सोच में कि पता नहीं कैसे लोग होंगे। सरदारजी मेरी भंगिमाओं को देख-समझकर धीरे से बोले- दीदी-कुछ मत सोचो मैं आपके साथ हूं ना! बस की सवारी की भीड़ बढ़े, उसके पहले निकल लो।

उस समय मोबाईल फोन भी नहीं होते थे, मुझे तो कुछ सूझ ही नहीं रहा था    सो... मैं ईश्र्वर को याद करते हुए सरदार जी के साथ वेन में बैठ गई। सरदार जी वेन में बैठे मुसाफिरों से मेरी सिस्टर कहते हुये मेरा परिचय कराया। मेरा सीधे हाथ की कलाई में फेक्चर होने से सूजन और दर्द बढ़ रहा था। उन अपरिचित में से एक ने सरदार जी को मेरे लिए दर्द की गोली दी, सरदार जी ने मेरी पानी की बोतल से पानी दिया और दवाई खिलाई। उस समय मैं पूरी तरह उन्हीं(सरदारजी)पर आश्रित थी।  वेन में बैठे लोगों को भोपाल से आगे जाना था अतःउन लोगों ने हमें भोपाल बस स्टेंड पर उतार दिया।

सरदार जी को भी दिल्ली की रेल पकड़ना थी, अतःउन्होंने मुझे सामान के साथ बस स्टेंड पर बैठा दिया और अगली यात्रा के लिए रवाना हो गए। मेरे पति बस स्टेंड लेने आने वाले थे, पिताजी ने मेरे पति को घर पहुंच कर दूरभाष (लेंडलाईन) पर मेरी बस का नंबर बता दिया था इसलिए वे बस आने का इंतजार कर रहे थे, किन्तु बस समय पर बस स्टेंड न पहुंची न ही बस की कोई जानकारी मिल रही थी। श्रीमान् जी चिंतित टहल रहे थे कि मैं ने उन्हें दूर से देख लिया और सुनो सुनो आवाज़ देने लगी वे मेरी आवाज़ सुनकर आये और बोले बस तो आई नहीं अभी तक ! तुम कैसे पहुंची। मैंने उन्हें दुर्घटना का सारा वृतांत सुनाया

उन्हों बस स्टेंड के मेनेजर को बस दुर्घटना की जानकारी दी।   

 सामान सहित नाहर अस्पताल पहुंचे

डाक्टर नाहर ने एक्सरे करवाने का कहा, रात बहुत हो चुकी थी। एक्सरे करने वाला भी जा चुका था हम भी घर चले आये। सुबह एक्सरे कराया, सीधे हाथ में एक माह का प्लास्टर चढ़ा गया था।

परन्तु-

 आज भी इस वाक्या को याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि सरदारजी की मदद न मिलती तो न जाने कैसी -कैसी परेशानी उठा मैं कितनी रात घर पहुंचती और परिजन अलग परेशान होते।

इस सफर ने एक सीख तो दे ही दी थी कि हम कितने भी सक्षम हों हमें अपने बड़ों की हिदायत का सम्मान करना आना चाहिए। वे बहुत अनुभवी होते हैं

मेरे बाबूजी मेरे ने सरदार जी भाई से परिचय न कराया होता तो, न जाने इस छोटे से सफर में मुझे कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता।

घर हमारी प्रथम पाठशाला है।

माता-पिता प्रथम गुरु।

मेरी स्व०माँ और मेरे बाबूजी प्रथम गुरु हैं, जिन्होंने मुझे बहुत सा व्यवहारिक ज्ञान दिया है।

 माता-पिता को शिक्षक दिवस पर मेरा सादर प्रणाम


कुमुद दुबे

इन्दौर(म०प्र०)

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