मेरी प्रथम गुरु...



    "घर बालक की प्रथम पाठशाला और माँ प्रथम गुरु...."  यह उक्ति शब्दशः सत्य है।

     मैं अपने परिवार की पहली संतान, वो भी बेटी ,ऊपर से दुबली पतली कमजोर।पिताजी की "पहली बेटी धन की पेटी",बहुत लाड़ली।अतः अत्यधिक दुलार और सावधानी के कारण और भी नाजुक हो गई।पाँच साल की छोटीसी उम्र में जरा से शोरगुल से ही सरदर्द हो जाता और पूरा परिवार परेशान।ऐसे में स्कूल में भर्ती कराना, माता पिता दोनों के लिए बड़ा प्रश्न हो गया था।पिताजी कहते," यह पढ़े न पढ़े अभी, पर इसे कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिये। जब पूरी तरह स्वस्थ होगी एडमिशन करवा देगें ।"माँ परेशान। आखिर उसीने रास्ता निकाला।जैसे ही पिताजी ऑफिस जाते माँ अपना काम निबटा कर मुझे पढ़ाने बैठ जाती। सर्व प्रथम हाथ पकड़कर 'श्री' लिखना सिखाया।धीरे धीरे अ ,आ ,इ, ई,.. .. 1,2,3,4.....A B C D सीखा।पढ़ने लिखने के साथ साथ अच्छी अच्छी शिक्षाप्रद कहानियाँ भी सुनाती। समय गुजरता गया। और तीन साल बाद पूर्ण तैयारी के साथ मेरा एडमिशन चौथी कक्षा में हो गया । पर इस सब के साथ जो सबसे ज्यादा उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण बात जो हुई उसने मेरे जीवन को एक नया आयाम दिया।जब मैं पढ़ाई से थक जाती तो माँ मनोरंजन के लिए चॉक से फर्श पर मराठी की बाल कविताओं के शब्दों को साकार करते चित्र बनाती और फिर वो कविताएँ सस्वर गाकर याद करवाती।और यहीं रोपित हुआ बालमन में कविता का प्रेम। माँ की प्रेरणा से मेरे अंतर में प्रस्फुटित होते भाव शब्द रूप में कविता बनकर कागज पर उतरने लगे।

      कृतज्ञता से मस्तक झुक जाता है।अपनी माता ,मेरे प्रथम गुरु के चरणों में शत् शत् नमन🙏🙏🙏🙏🙏


वनिता एकबोटे

इंदौर

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