गडा.राधाकृष्णन वर्तमान युग के शिक्षकों के चर्मोत्कर्ष हैं जयंती विशेष


ललितपुर। यूं तो प्रत्येक व्यक्ति हर क्षण सीखता और सिखाता है। इसलिए सभी मनुष्य शिक्षक के दायरे में आ जाते हैं, परंतु आचार्यों, संतों और महात्माओं ने हिमालय से लेकर समुद्र तक अपनी पदयात्राओं के माध्यम से जो ज्ञान बांटा है उनकी ताकत सम्राटों, सेनापतियों और धनकुबेरों से भिन्न है। इसीलिए भारतीय गुरुशिष्य की परम्परा अभी भी कालातीत नहीं बनी हुई है। वस्तुत: वर्तमान शिक्षक दिवस प्राचीन गुरुपूर्णिमा का ही नया स्वरूप है। अँग्रेजों के आने से पूर्व गांव और नगरों में गुरुकुल थे, जहां नि:शुल्क शिक्षा गुरुग्रहों में दी जाती थी यथा गुरुग्रह गये पढऩ रघुराई, अल्पकाल विद्या सब आई। प्रत्येक मनुष्य श्रमिक है। धरती, धूप, हवा, पानी, आग, आकाश उसकी कच्ची सामग्री है। जिसका उपयोग करते हुए वह अपने आदर्शों के अनरूप दुनिया को ढालता रहता है। परन्तु जानवर चेतनारहित होता है। इस कारण वह बनी बनाई दुनिया में रहने को और प्राकृतिक रूप से स्वयं अपने को विकसित करने के लिए मजबूर है। यही फर्क है मनुष्य और जानवर में। मनुष्य अपने को परिपूर्ण बनाने के लिए आकाश के तारों तक को तोड़कर धरती को सुंदर बनाने में जरा भी कोताही नहीं करता। क्योंकि ज्ञान विज्ञान का कोई सीधा सपाट राजमार्ग नहीं है। इसकी चमकीली चोटियों पर वही पहुंच पाते हैं जो ढालू रास्तों की थका देने वाली चढ़ाई से नहीं डरते। इस प्रसंग में अत्यन्त उल्लेखनीय है कि मनुष्य की प्रथम गुरु उसकी मां है। सर्वप्रथम बच्चा जब धरती पर आता है तो वह अपनी भूख मिटाने के लिए रोता है। माता बिना किसी उधारी के तुरंत दुग्धपान कराके केवल बच्चे की भूख ही नहीं मिटाती बल्कि प्रेम के ढाई आखर का भी पहला पाठ पढ़ा देती है। जब बच्चा ढाई साल के लगभग हो जाता है तो प्रेम के पाठ को आगे बढ़ाते हुए वह उसे गोद में लेकर दूध पिलाते-पिलाते मातृभाषा सिखाते हुए कहती है देखो चांद बच्चा सुनता है। मां फिर उससे पूछती है कि चांद किधर है, बताओ? वह परीक्षा लेती है। बच्चा उंगली से बताता है कि चांद उधर है। चा-चा-चा-न-द और फिर चां-चांद कहता है यानि पहले वस्तु या मॉडल ग्रहण करता है और फिर बोलता है। अत:मां से बढ़कर और दूसरा अतिउत्तम शिक्षक और कौन हो सकता है। शिशु शिक्षा से लेकर यूनिवर्सिटी तक की शिक्षा का प्राणाधार यही वात्सल्य भाव है। मैं अपने उक्त विश्लेषण को तार्किक परिणति इस संश्लेषण के साथ प्रस्तुत कर रहा हूं जिसे महान सुधारक मार्टिन लूथर ने जर्मन अध्यापकों के सम्मेलन में कहा था यदि मैं धर्मोपदेशक (पादरी) न होता, तो मैं अध्यापक बनना चाहता, क्योंकि धर्मोपदेशक के रूप में, मैं ऐसे लोगों को संबोधित करता हूं, जिनकी कमर झुक गई है, जिनके हाथ सूखकर कठोर हो गए हैं, ऐसे लोग, जिनहें जीवन ने अपाहिज और गन्दा बना दिया है वे कूपमंडूक की तरह कुएं के व्यास को सम्पूर्ण जगत मानने के कारण कोई नई बात सुनना ही नहीं चाहते, लेकिन आप, अध्यापकगण, आप पवित्र आत्माओं को संबोधित करते हैं। वह सत्य, जिसका मैं उपदेश देता हूं, भ्रष्ट आत्मओं मे जागृता है और कभी-कभी वह स्वयं वहाँ भ्रष्ट हो जाता है या यों ही गतिहीन कंकड़ की तरह व्यर्थ पड़ा रहता है, जो सत्य आप बच्चों की ग्रहणशील और पवित्र आत्माओं को पेश करते हैं वह देदीप्यमान लौ की भांति चमकता रहेगा। अत: मैं पुन: यह तथ्य आप सभी को आत्मसात कराना चाहता हूं कि वस्तुत: शिक्षक ही समाज का इंजन है।



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