भीम’ फिल्म ऐसे दौर में आयी है जब दुनिया में नये स्वरूप में बदलाव हो रहा है
भीम’ फिल्म ऐसे दौर में आयी है जब
दुनिया में नये स्वरूप में बदलाव हो रहा है,
तकनीकी, अदालत और पुलिस की जगह
एनआईए जैसी संस्थानों का कुख्यात कारनामा
जनता देख रही है। फिल्म ‘जय भीम’ मद्रास हाईकोर्ट के जज रहे
जस्टिस चंद्रा के उस चर्चित मामले पर आधारित है जो उन्होंने अपनी
वकालत के दिनों में लड़ा। हालांकि, असल में ये मामला कुरवा जनजाति
के लोगों के उत्पीड़न का था। इस फिल्म में पुलिस और थाना के अत्याचार के साथ
थाने में हत्या की घटना को फोकस किय गया है। पुलिस के पास उस वक्त चोरी जैसे केस में हत्या
कर देने की घटना इस बात को दर्शाता है कि पुलिस पैसे के लिए गुलामी करती है। इस गुलामी
में अपने आप को खत्म कर देती है, सच भी है।फिल्म में थाना की भूमिका और अत्याचार की
पोल खोलकर रख दी गयी है। कहानी सिर्फ तमिलनाडू के आदिवासियों की नहीं है, बल्कि
भारत के अंदर दस आदिवासी राज्यों में ऐसी ही कहानी थानों में हर रोज चलती है।
फिल्म ‘जय भीम’ को अपनी असल कहानी पर आने में थोड़ा वक्त लगता है।
फिल्म पहले आदिवासी जनजाति के लोगों की जीवन शैली की तरफ ध्यान खींचती है।
ये लोग खेतो में फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले चूहों को पकड़ते हैं और घरों में निकले
विषैले सांपों को पकड़कर वापस जंगलों में छोड़ देते हैं। घर में निकले एक सांप को पकड़ने गए
एक आदिवासी पर उस घर के लोग चोरी का आरोप लगा देते हैं। फिल्म शुरू होते वक्त दिखाया जाता
है कि कैसे आपराधिक मामलों की कागजी खानापूर्ती करने के नाम पर पुलिस निर्दोष लोगों को जेल से
रिहा होते वक्त ही फिर से पकड़कर हवालातों में डाल देती है। असरदार के घर चोरी को सुलझाने का दबाव
पड़ने पर निर्दोषों की पुलिस हिरासत में बेरहमी से पिटाई होती है और एक दिन पुलिस हिरासत से तीन लोग
लापता हो जाते हैं। लापता होने वाले एक आदिवासी की गर्भवती पत्नी अपने पति को खोजते खोजते एक ऐसे
वकील के पास पहुंच जाती है जिसके लिए कानून वह इकलौता हथियार है जिसके जरिये शोषितों और वंचितों
का इंसाफ दिलाया जा सकता है। फिल्म में एक बात बड़ी प्रमुखता से रखी गयी है,वह है रुचोरी आदिवासी की
नैतिकता, ईमानदारी। थाना को अपराध के तरीके का इजाद करते दिखाया गया है। पुलिस थाना में हत्या करती है।
उसे छुपाने के लिए पीड़ित की बेटी का अपहरण करती है। हत्या कर दूसरे थाना क्षेत्रा में लाश फेंक देती है। एक
तरफ आदालत में केस चल रहा है और दूसरी तरफ थाना अपराध पर आपराध करता जा रहा है। इस बीच
तकनीकी साधन न होने पर अदालत में साबित होते होते पीढ़ी दर पीढ़ी गुजरजाती हैं। गांव व जंगल के लोग, जो\
पढ़ना नहीं जानते, कानूनी भाषा में अपने को निर्दोष साबित करने में उसकी पूरी जिंदगी निकल जाती है। आज
भी झारखंड और भारत के थानों और जेलों में हजारों आदिवासी झूठे केस में बंद हैं। इस फिल्म में अदालत क
भूमिका पॉजिटिव दिखायी गयी है,यह थाना और अदालत के फंदे में फंसे आदिवासियों
को संविधान के सहारे लड़कर न्याय पाने को प्रेरित करता है। आदिवासियों को न्याय के लिए
प्रेरित करती फिल्म ‘जय भीम’
फिल्म-समीक्षा
जय भीम
कलाकार
सूर्या , लिजोमोल जोस , के मणिकंदन , राजिशा विजयन , राव रमेश और प्रकाश राज
लेखक
टी जे ज्ञानवेल
निर्देशक
टी जे ज्ञानवेल
निर्माता
सूर्या और ज्योतिका
ओटीटी
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