पंचायती राज में पेसा के तहत गाँव का विकास : एक आधे-अधूरे सपनों का पूरा सच

 




                                                           अशोक सिंह

पंचायती राज व्यवस्था लागू होते वक्त आम आदमी से लेकर प्रशासनिक पदाधिकारियों तक के लोगों के मन में यह भावना थी कि मुखिया अपने पंचायत के प्रधानमंत्री होंगे। गाँव और टोलों के विकास की योजना बनेगी और मुखिया व उनकी कार्यकारिणी उन योजनाओं को लागू करायेगी। मगर बिडम्बना यह रही कि दो-ढाई साल बाद भी शायद ही ग्राम सभा द्वारा पारित की गयी किसी अनोखी और उस गाँव पंचायत के लिए आवश्यक योजना को सरकारी तौर पर स्वीकृति मिली हो और उसे लागू करने के लिए फंड का आवंटन किया गया हो। देखा गया है कि ऐसी योजनाएँ अक्सर खारीज हो जाती है, जबकि राज्य सरकार समय-समय पर योजनाओं के विकेन्द्रीकरण का संकल्प दुहाराती रही है।

  पिछले दिनों संबंधित विषय-वस्तु पर अध्ययन के सिलसिले में जब दुमका जिले मुखिया संघ के अध्यक्ष सागेन मुर्मू से बातचीत की गयी, तो सरकार द्वारा अब तक पूरा अधिकार नहीं दिये जाने का मसला उठाते हुए उन्होंने कहा कि गाँव की जनता हम से विकास की अपेक्षा कर रही है, गाँव के प्रधानों की भी आस हमसे जुड़ी है कि उनके द्वारा ग्राम सभा में पारित योजनाओं को हम पूरा करें लेकिन अधिकार पूरा नहीं मिलने और अफसर की मनमानी से हम मुखियाओं को काम करने में परेशानी हो रही है। कुछ ऐसी ही मिली-जुली बातें बन्दरजोरी पंचायत की मुखिया रेणुका सोरेन, पुराना दुमका पंचायत के रविन्द्र बास्की और आसनसोल पंचायत की मुखिया पानमुनी मुर्मू भी कहती हैं।

बात सिर्फ इन चंद मुखियाओं की नहीं हैं ब्लकि राज्य का हर मुखिया मिलते ही सबसे पहले अब तक पूरा अधिकार न मिलने का रोना रोते हैं और अपनी तमाम जिम्मेदारियों से कतराकर संबंधित विभागीय पदाधिकारी व कर्मचारियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि अबतक जो भी अधिकार उन्हें मिले हैं उसका भी जनहित में समुचित उपयोग वे नहीं कर पा रहे हैं। जैसाकि सर्वविदित है कि संवैधानिक तौर पर हर काम अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा की सहमति और वार्ड सदस्य की मदद से किया जाना है, मगर फिल्ड वर्क का अनुभव बताता है कि अधिकतर मुखियाजी उससे बचते हैं। वे अपने चंद सहयोगियों की मदद  से उनके व अपने हित-अहित को ध्यान में रखकर योजनाओं को तय कर लेना चाहते हैं। कभी ग्राम सभा में कोरम पूरा नहीं होने का बहाना बनाकर, तो कभी अधिकारियों के अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप और अनवश्यक दबाव की बात करके। आमतौर पर प्रायः सभी मुखिया उन मामलो को औपचारिक ही बना देना चाहते हैं। जहाँ तक ग्राम सभा में कोरम पूरा नहीं होने का बहाना है तो ग्राम प्रधानों और ग्रामीणों के अनुसार इसके लिए व्यापक प्रचार-प्रसार ही नहीं किये जाते है और न ही विधिवत ग्राम सभा जुड़े सदस्यों को इसकी सूचना ही दी जाती हैं। 

अध्ययन के दौरान क्षेत्र भ्रमण में कई मुखियाजी ने अपनी समस्याएँ सुनायी। उन समस्याओं में एक महत्वपूर्ण समस्या दुमका जिले में अब तक कई पंचायतों का पंचायत सचिवालय बनकर तैयार नहीं हुआ है। दूसरी समस्या कई पंचायत सचिवों के जिम्मे कई-कई पंचायत दिये गये हैं। ऐसे पंचायत सचिवों पर काम का बोझ ज्यादा है और वे पंचायत प्रतिनिधि और प्रखण्ड पदाधिकारियों के बीच संतुलन नहीं बना पा रहे हैं। कुछ ऐसे पंचायत सचिवों का सुझाव है कि मुखिया के पास आज जितना काम दिया गया है उसके लिए कम से कम तीन-चार स्टाफ चाहिए लेकिन इधर किसी था ध्यान नहीं है। सारा काम अकेले पंचायत सचिव को ही करना पड़ता है। जनता का दबाव, अधिकारियों का आदेश और पंचायत प्रतिनिधियों की झिड़की के बीच हम सब  पिसा रहे हैं। 

अब जहाँ तक बात मुखिया जी को अब तक पूरा अधिकार मिलने, न मिलने की है तो संविधान की 11 वीं अनुसूची के प्रावधानानुसार झारखण्ड की पंचायतों को 29 विभागों के अधिकार मिलने हैं। जिसमें से अभी कुल 8 अर्थात लगभग एक तिहाई अधिकार भी ठीक से नहीं मिले हैं। अधिकारों के मिलने न मिलने को लेकर अफसरों का कहना है कि अभी तक सिर्फ संकल्प जारी हुए हैं। नोटिफिकेशन जारी नहीं हुआ है। कुछ राज्य स्तर के विभागीय सचिव उसे अफसरों का निकम्मापन और गैर-जिम्मेदाराना बयान कहते हैं। पंचायत प्रतिनिधियों के दबाव से बचने के लिए वे लोग गोल-मटोल जबाव देकर अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं। इस मुद्दे पर मानव संसाधन विकास विभाग के सचिव श्री डी. के. तिवारी कहते हैं कि अधिसूचना से ज्यादा महत्व संकल्प का है। संकल्प ज्यादा शक्तिशाली है। जहाँ तक अधिकारियों द्वारा पंचायत प्रतिनिधियों को महत्व नहीं दिये जाने और मनमानी करने की बात है, तो यह उनकी कमजोरी है। यही कारण है कि सरकारी  संकल्प की अवहेलना करने वाले अबतक किसी पदाधिकारी के खिलाफ किसी भी पंचायत प्रतिनिधि ने पत्र लिखकर शिकायत करने की जहमत नहीं उठायी।

जब इस बात को लेकर जिले के कुछ प्रखण्डों के मुखिया एवं अन्य पंचायत प्रतिनिधियों से चर्चा-परिचर्चा की गयी कि पूरा न सही, थोड़े बहुत भी जो अधिकार उन्हें मिले हैं उसका वे जनहित में कितना और कैसे उपयोग कर रहे हैं ? उस पर कई मुखियाओं ने अपने-अपने अनुभव सुनाये। एक महिला मुखिया ने कहा कि अभी हाल में प्राथमिक स्कूलों में बच्चो की पोशाक की खरीददारी की गयी लेकिन उसके लिए हम लोगों से विचार-विमर्श नहीं किया। दूसरे मुखियाजी ने समाज कल्याण के तहत आँगनबाड़ी, मुख्यमुंत्री कन्यादान योजना, लाडली लक्ष्मी योजना, विकलांग पेंशन आदि का मुद्दा उठाते हुए कहा कि उन सब कामों और संबंधित लाभुकों के चयन को लेकर सभी प्रकार की निगरानी और सुनवाई में उन्हें शामिल नहीं किया जाता जबकि संबंधित विभाग के संकल्प में हमारे लिए ऐसा प्रावधान है। एक मुखिया जी ने ध्यान आकृष्ट कराया कि प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ साक्षारता को भी हमारे क्षेत्राधिकार में दिया गया है लेकिन प्रशासनिक तौर पर अभी भी साक्षरता कार्यक्रमों में हमारी वैधानिक भागीदारी नहीं हो पायी है।

इस तरह देखा गया कि एक दूसरे की शिकायतों को लेकर अपने जिम्मेदारी और जबावदेही से हर लोग भाग रहे हैं। पदाधिकारी पंचायत प्रतिनिधियों को और पंचायत प्रतिनिधि पदाधिकारियों को, गाँव के असंतुलित और धीमी विकास के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। ठीक इसके विपरीत पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था से जुड़ा एक बड़ा समूह ग्राम प्रधानों का भी है, जो ग्रामीण विकास की निराशाजनक स्थिति के लिए इन दोनों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।

अब जहाँ तक पंचायती राज में पेसा के तहत गाँव के विकास का सवाल है तो क्षेत्र भ्रमण से प्राप्त आँकडो़ और तथ्यों से कई बातें निकल कर सामने आयी। जिसके आधार पर ग्रामीण विकास की प्रभावित होती दशा-दिशा और उससे जुड़ी विसंगतियों व चुनौतियों को चिह्नित किया जा सकता है। एक तो यह कि अधिकतर गाँवों में निर्धारित मानक के अनुसार नियमित ग्राम सभा नहीं होती। जो थोड़ी बहुत होती भी है, तो वह मुख्य रूप से सिर्फ सरकारी योजनाओं को परित करने के लिए, जबकि पेसा के तहत और भी ग्राम विकास से जुड़े कई मुद्दे और विषय हैं, जिसका ग्राम सभा में चर्चा का अभाव दिखता है। 

कई मुखिया भी दबी जुबान में इस बात को स्वीकारते हैं कि उनके पंचायत में पड़ने वाले सभी राजस्व ग्रामों मे नियमित व व्यवस्थित ग्राम सभा नहीं हो पाती है। आदिवासी एवं गैर आदिवासी समुदाय की एक बड़ी अबादी के अनुसार जहाँ एक ओर निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों में लगभग दो तिहाई जनप्रतिनिधि ऐसे हैं, जो अपने पद की जिम्मदारियों के अनुसार सजग सक्रीय और जानकर नहीं हैं, जो उनकी सक्षमता पर प्रश्नचिह्न खडा़ करता है। अध्ययन के दौरान चर्चा-परिचर्चा में शामिल हुए लोगों के अनुसार अधिकतर प्रतिनिधि विशेषकर महिला प्रतिनिधियों का सारा कार्य उनके पति या अन्य रिश्तेदार ही करते हैं, यही वजह है कि किताबों में भले ही वार्ड सदस्य, मुखिया, पंचायत समिति सदस्यों को कई अधिकार मिले हों, पर उसका समुचित उपयोग कर पाने में अभी भी वे पूरी तरह परिपक्व और सक्षम नहीं दिखते, जिसकी वजह से उनके क्षेत्र में जमीन पर कोई बेहतर विकास नजर नहीं आता। इस संबंध में साक्षर भारत कार्यक्रम के तहत दुमका प्रखण्ड के बन्दरजोरी लोक शिक्षा केन्द्र से जुड़ी प्रेरक सुजाता कर्ण अपना अनुभव सुनाते हुए कहती हैं कि जब भी किसी काम से वे अपने पंचायत की मुखिया रेणुका सोरेन के पास जाती हैं और उस दौरान उनके मोबाइल पर कोई फोन आता है, तो मुखिया रेणुका जी कहती हैं कि मुखिया जी नहीं हैं, वजह पुछे जाने पर मुस्कुराकर कहती हैं कि मेरा सारा काम वही करते हैं इसलिए लोग उन्हें ही मुखिया जी कहते हैं। कुछ ऐसा ही अनुभव अध्ययन के दौरान क्षेत्र में मुझे भी देखने को सुनने को मिला। दुमका प्रखण्ड के ही आसनसोल पंचायत की मुखिया पानमुनी मुर्मू से साक्षात्कार के लिए जब फोन किया तो उनके पति से बात हुई, वही खुद को मुखिया बताये और पानमुनी जी से बात नहीं कराये। अंततः मुझे खुद ही एक दिन उनके घर जाकर उनसे साक्षात्कार लेना पड़ा, जिसमें उनका कम उनके पति से जबाव ज्यादा मिला।

यही हाल ग्राम प्रधानों का भी है। अध्ययन क्षेत्र से जुड़े गैर-आदिवासी लोगों के अनुसार उनके ग्राम प्रधान सरकारी काम काज और योजनाओं से जुड़ी गतिविधियों को सफलतापूर्वक करने में सक्षम नहीं लगते हैं। आदिवासी समुदाय के लोग भी कमोवेश इस बात को स्वीकारते हैं लेकिन दूसरी तरफ उनका यह भी कहना है कि पारंपरिक रीति रिवाज और गाँव स्तर से जुड़े विवादां को सुलझाने में वे लोग सक्षम हैं। बातचीत में लोगों ने यह भी स्वीकार किया कुछ ग्राम प्रधान व्यक्तिगत लाभ के लिए दूसरे के हाथ की कठपुतली बन जाते हैं और गाँव का हित त्यागकर दो बोतल शराब और थोड़े बहुत रूपये के लालच में किसी के बहकावे में आ जाते हैं। आदिवासी समुदाय के लोगों ने गैर-आदिवासी समुदाय के लोगों पर आरोप लगाया कि हमारे ग्राम प्रधानों को बहकाने में वे लोग आगे हैं। जब इस संबंध में ग्राम प्रधानों से बातचीत की गयी तो ग्राम प्रधानों ने भी स्वीकार किया कि पंचायती राज व्यवस्था में सरकारी कामकाज और योजनाओं को लेकर उनमें पर्याप्त जानकारी का अभाव है, जिसकी वजह से सही गलत का निर्णय करने में कठिनाई होती है और कभी-कभी दूसरे के बहकावे में आ जाते हैं। एक बड़ी और महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए उनलोगों ने कहा कि योजनाओं और उससे जुड़े लाभुकों के चयन में अप्रत्यक्ष रूप से प्रशासनिक पदाधिकारियों का भी हस्तक्षेप होता है। जब भी लाभुकों के चयन की बात होती है, प्रशासनिक पदाधिकारियों या कर्मचारियों द्वारा पूर्व में ही लाभुकों का नाम व स्कोर अंकित कर ग्राम सभा में सूची भेज दिया जाता है, जिसको लेकर ग्राम सभा में अक्सर हंगामा होता है। मुखिया भी इस बात को स्वीकारते हैं कि स्कोर के मामले को लेकर उनकी भूमिका सिर्फ अनुशंसा करने तक रह जाती है। 

ग्राम सभा में बिचौलियों के दबाव और भ्रष्ट्राचार के मुद्दे पर ग्राम प्रधानों और अन्य लोगों की राय है कि ग्राम सभा से लेकर प्रखण्ड कार्यालय तक बिचौलिये योजनाओं पर हावी हैं। जनमत के प्रोग्राम कोर्डिनेटर मुकेश कुमार तरूण से प्राप्त जानकारी के अनुसार पंचायत चुनाव के दौरान जनमत शोध संस्थान के द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण में संभावना व्यक्त की गयी थी कि पंचायती राज में बिचौलिये की वजह सें भ्रष्टाचार और बढ़ेगा। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण पिछले दिनो संवाद झारखण्ड द्वारा आयोजित ग्राम सभा समस्याओं पर आधारित एक जन संवाद कार्यक्रम में देखा गया, जिसमें स्थानीय मुखिया, वार्ड सदस्य सहित दुमका जिला परिषद के अध्यक्ष पुलिसनाथ मराण्डी उपस्थित थे। उक्त जन संवाद कार्यक्रम में 85 प्रतिशत उपस्थिति महिलाओं की थी जहाँ सागोरी देवी, लीला देवी, मुन्नी देवी, गीता मुर्मू, सालोनी टुडू, सारोदी सोरेन जैसी दर्जनों महिलाओं ने गाँव में ग्राम सभा नहीं होने और कभी कभार होने पर उनकी बातें नहीं सुनी जाने तथा बिचौलिये के द्वारा रूपये की माँग करने, जनवितरण प्रणाली में उचित मात्रा में अनाज नहीं मिलने तथा अन्य किसी योजना का लाभ नहीं मिल पाने की शिकायत की लेकिन मुखिया से लेकर जिप अध्यक्ष तक से उन्हें कोई संतोषजनक जबाव नहीं मिला और वे निराश लौट गयी। जाते-जाते उन महिलाओं ने कहा कि बिचौलियागिरी और भ्रष्ट्राचार के कारण ही वे लोग ऐसी किसी सभा में जाने से कतराते हैं। आयोजक सामाजिक कार्यकर्ता एनी टुडू ने मौके पर कहा कि आमलोगों को जरूरी काम के लिए मुखिया तथा प्रखण्ड मुख्यालय के बार-बार चक्कर काटने पड़ते हैं। बिना पैसा खर्च किये आमलोगों का काम नहीं हो पाता है। ऐसे आयोजनों की लिखित रिपोर्ट हम संबंधित पंचायत प्रतिनिधि एवं विभागीय अधिकारियां को देते भी हैं लेकिन उस पर समुचित कारवाई नहीं होती है। जिसकी वजह से ग्रामीण ऐसी किसी सभा में जाना नहीं चाहते। वरीय अधिकारी भी स्वीकारते हैं कि सरकारी योजनाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी हैं लेकिन यह अराजकता ज्यादातर निचले स्तर पर है। 

      कुल मिलाकर जनतंत्रीय विकेन्द्रीकरण की बाधाओं को देखने-परखने से यह स्थिति स्पष्ट होती है कि जहाँ एक ओर ग्राम सभा का विफल क्रियान्वयन, ग्रामीणों में एकजुटता का अभाव, सामाजिक अंकेक्षण की अनदेखी, समुचित प्रशिक्षण वो जानकारी के अभाव में असक्षम और निष्क्रीय ग्राम प्रधान व पंचायत प्रतिनिधियों, स्थायी समितियों के गठन की धीमी गति, पदाधिकारियों द्वारा प्रखण्ड से लेकर जिला स्तर से योजनाओं एवं कार्यक्रमों के बारे में जारी पत्र पंचायत प्रतिनिधियों को उपलब्ध नहीं करना, सूचनाधिकार के क्रियान्वयन का लोकव्यापीकरण और आम लोगों में इसको लेकर जारूकता के अभाव का होना, पंचायती राज में पेसा के तहत गाँव के समुचित विकास की गति को प्रभावित कर रहा है, वहीं दूसरी ओर कर्मचारियों का अभाव, पदाधिकारियों का अफसरशाही रवैया, जनप्रतिनिधियों को दिये गये अधिकारों के अनुपालन के प्रति उनकी उदासीनता एवं बिचौलिये के बढ़ते प्रभाव, और भ्रष्टाचार व साम्प्रदायिकता जैसी बीमारियाँ भी स्थानीय स्वशासन की जड़ों को खोखला कर रही हैं। 

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