गुरुपूर्णिमा के उपलक्ष्य में लेख शृंखला - भाग 2




गुरू का खरा स्वरूप


शिष्य का विश्वास :‘गुरु विश्वास पर निर्भर है । अपने विश्वास पर ही गुरु की महत्ता आधारित है’, इसमें गुरु शब्द बाह्य गुरु के संदर्भ में प्रयोग किया गया है । गुरु पर विश्वास होगा, तो ही गुरु ‘गुरु’ का कार्य कर सकते हैं । ‘गुरु भी तुम्हारे विश्वास पर है । तुम्हारे विश्वास में ही गुरु है,’ इसमें गुरु अंतर्यामी गुरु के रूप में हैं ।


गुरु तत्त्व एक ही है : बाह्य स्वरुप में गुरु अलग अलग दिखते हैं, फिर भी अंदर से सभी गुरु एक ही होते हैं जिस प्रकार गाय के किसी भी थन से एक समान ही शुद्ध और निर्मल दूध प्राप्त होता है, उसी प्रकार प्रत्येक गुरु में गुरु तत्त्व एक ही होने के कारण आनंद की लहरी एक समान ही होती है। समुद्र की लहरें जिस प्रकार किनारे आती हैं उसी प्रकार ईश्वर अथवा ब्रह्म की लहरियां अर्थात गुरु समाज की ओर आते हैं। सभी लहरों के पानी का स्वाद जैसे एक ही होता है उसी प्रकार सर्व गुरु के तत्त्व एक अर्थात ब्रह्म ही होता है। पानी की टंकी में लगा नल छोटा हो अथवा बड़ा सभी में से एक सामान जल आता है। बिजली के बल्ब कितने ही प्रकार व आकार के हों तब भी उसमे से प्रकाश ही बाहर आता है, ऐसे ही गुरु बाह्यतः अलग अलग दिखाई देते हैं, तब भी उनके अंदर जो गुरु तत्त्व अर्थात जो ईश्वरीय तत्व है वह एक ही है, गुरु अर्थात स्थूल देह नहीं, गुरु को सूक्ष्म देह (अर्थात मन) व कारण देह (अर्थात बुद्धि) नहीं होने के कारण वे विश्वमन और विश्वबुद्धि से एकरूप हुए होते हैं। अर्थात सभी गुरु का मन और बुद्धि यह विश्वमन और विश्वबुद्धि होने के कारण एक ही होते हैं। 


गुरु सर्वज्ञ होते हैं : श्री ब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज जी कहते हैं  – ‘तुम स्वयं को जितना जानते हो, उससे कहीं अधिक मैं तुम्हें जानता हूं । जगत का नियम यह है कि जिसे जिसका जितना सान्निध्य मिलता है, उतना ही अधिक उससे परिचय होता है । तुम्हें देह का सबसे अधिक सान्निध्य प्राप्त है । यह देह इसी जन्म तक सीमित है । तुम उतना ही जान सकते हो । तुम्हें जब से जीव दशा प्राप्त हुई, तबसे जो-जो देह तुमने धारण किए हैं, रामकृपा से वे सब मुझे ज्ञात होते हैं । इससे समझ आएगा कि मैं तुम्हें जानता हूं ।’


गुरु की सर्वज्ञता के सन्दर्भ में हुई प्रतीति – ‘एक भक्त प.पू (परम पूज्य) भक्तराज महाराज जी को (बाबा को) पत्र भेजते थे । प.पू. बाबा से मिलने पर बाबा उन्हें पत्र में लिखे प्रश्‍नों के उत्तर देते थे । इसलिए उन्हें (भक्त को) ऐसा लगता था कि बाबा पत्र पढते हैं । एक बार प.पू. भक्तराज महाराज जी के इंदौर स्थित आश्रम को समेटते समय मुझे वे सर्व पत्र मिले । उन्हें खोला भी नहीं गया था । गुरु को सूक्ष्म से सर्व ज्ञात होता है, यह मैंने उस समय अनुभव किया ।’ – डॉ. आठवले


इस प्रसंग से गुरु की सर्वज्ञता ध्यान में आती है। 


संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ 'गुरुकृपायोग'


श्री. गुरुराज प्रभु 

सनातन संस्था 

संपर्क - 93362 87971

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