भीमा कोरेगांव की घटना: एक विश्लेषण
डॉ विवेक आर्य
पुणे के समीप भीमा कोरेगांव में एक स्मारक बना हुआ है। कहते है कि आज से 200 वर्ष पहले इसी स्थान पर बाजीराव पेशवा द्वितीय की फौज को अंग्रेजों की फौज ने हराया था। महाराष्ट्र में दलित कहलाने वाली महार जाति के सैनिकों ने अंग्रेजों की ओर से युद्ध में भाग लिया था। हम इस लेख में यह विश्लेषण करेंगे कि युद्ध का परिणाम क्या था और कौन इसका राजनीतिक लाभ उठा रहा हैं।
इतिहास में लड़ी गई अनेक लड़ाईयों के समान ही यह युद्ध भी एक सामान्य युद्ध के रूप में दर्ज किया गया था। डॉ अम्बेडकर ने 1927 में कोरेगांव जाकर 200 वर्ष पहले हुए युद्ध को महार दलितों की ब्राह्मण पेशवा पर जीत के समान चर्चित करने का प्रयास किया था। जबकि यह युद्ध था विदेशी अंग्रेजों और भारतीय पेशवा के मध्य। इसे जातिगत युद्ध के रूप में प्रचलित करना किसी भी प्रकार से सही नहीं कहा जा सकता। अंग्रेजों की सेना में सभी वर्गों के सिपाही थे। उसमें महार रेजिमेंट के सिपाही भी शामिल थे। पेशवा की फौज में भी उसी प्रकार से सभी वर्गों के सिपाही थे। जिसमें अनेक मुस्लिम भी शामिल थे। युद्ध केवल व्यक्तियों के मध्य नहीं लड़ा जाता। युद्ध तो एक विचारधारा का दूसरी विचारधारा से होता है। फिर इस युद्ध को अत्याचारी ब्राह्मणों से पीड़ित महारों के संघर्ष गाथा के रूप में चित्रित करना सरासर गलत हैं। क्यूंकि इस आधार पर तो 1857 की क्रांति को भी आप सिख बनाम ब्राह्मण (मंगल पांडेय जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश के सिपाही) के रूप में चित्रित करेंगे। इस आधार पर तो आप दोनों विश्वयुद्धों को भी अंग्रेजों की विजय नहीं अपितु भारतीयों की विजय कहेंगे। क्यूंकि दोनों विश्वयुद्ध में पैदल चलने वाली टुकड़ियों में भारतीय सैनिक बहुत बड़ी संख्या में शामिल थे।
इससे यही सिद्ध होता हैं कि यह एक प्रकार से पेशवाओं को ब्राह्मण होने के नाते अत्याचारी और महार को दलित होने के नाते पीड़ित दिखाने का एक असफल प्रयास मात्र था।
अब हम यह विश्लेषण करेंगे कि वास्तव में कोरेगांव के युद्ध में क्या हुआ था। सत्य यह है कि कोरेगांव के युद्ध में अंग्रेजों को विजय नहीं मिली थी। जेम्स ग्रैंड डफ़ नामक अंग्रेज अधिकारी एवं इतिहासकार लिखते है कि "शाम को अँधेरा होने के बाद जितने भी घायल सैनिक थे उनको लेकर कप्तान स्टैंटन गांव से किसी प्रकार निकले और पूना की ओर चल पड़े। रास्ते में राह बदल कर वो सिरोर की ओर मुड़ गए। अगले दिन सुबह 175 मृत और घायल सैनिकों के साथ वो अपने गंतव्य पहुंचे। अंग्रेजी सेना के एक तिहाई घोड़े या तो मारे जा चुकें थे अथवा लापता थे। "
(सन्दर्भ-A History of the Mahrattas, Volume 3,By James Grant Duff page 437 )
क्या आप अंग्रेज इतिहासकार की बात भी नहीं मानेगे जो अपनी कौम को सदा विजयी और श्रेष्ठ बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते? चलों हम मान भी ले कि अंग्रेजों को विजय मिली। तो भी इस युद्ध को हम 'दलित बनाम ब्राह्मण' किस आधार पर मानेंगे? कोरेगांव युद्ध में एक भी महार सिपाही का नाम किसी सेना के बड़े पद पर लिखा नहीं मिलता। यह यही दर्शाता है कि महार सैनिक केवल पैदल सेना के सदस्य थे। आपको यह जानकर भी अचरज होगा कि कोरेगांव युद्ध को अंग्रेजों ने कभी अपनी विजय तक नहीं माना। महार सैनिकों ने युद्ध में अंग्रेजों की ओर से भाग लिया। इसका ईनाम उन्हें आगे चल कर कैसे मिला। यह आगे जानेगे।
बहुत कम लोग इतिहास के इस तथ्य को जानते है कि महार सैनिक मराठा सेना के अभिन्न अंग थे। छत्रपति शिवाजी की सेना में महार बड़ी संख्या में ऊँचें पदों पर कार्यरत थे। शिवांक महार को उनकी वीरता से प्रभावित होकर शिवाजी के पुत्र राजाराम ने एक गांव तक भेंट किया था। शिवांक महार के पोते जिसका नाम भी शिवांक महार था ने 1797 में परशुराम भाऊ की निज़ाम के साथ हुए युद्ध में प्राणरक्षा की थी। नागनक महार ने मराठों के मुसलमानों के साथ हुए युद्ध में विराटगढ़ का किला जीता था जिसके ईनाम स्वरुप उसे सतारा का पाटिल बनाया गया था। बाजीराव पेशवा प्रथम की फौज में भी अनेक महार सैनिक कार्य करते थे। इससे यही सिद्ध हुआ कि अंग्रेजों की सेना के महार सैनिकों ने पेशवा की सेना के दलित/महार सैनिकों के साथ युद्ध किया था। पेशवा माधवराव ने अपने राज्य में बेगार प्रथा पर 1770 में ही प्रतिबन्ध लगा दिया था। आप सभी जानते है कि बहुत काल तक अंग्रेज हमारे देश के दलितों को बेगार बनाकर उन पर अत्याचार करते रहते थे। एक बार पेशवा के राज्य में किसी विवाद को लेकर ब्राह्मणों ने महारों के विवाह करवाने से मना कर दिया था। इस पर महारों ने पेशवा से ब्राह्मणों की शिकायत की थी। पेशवा ने ब्राह्मणों को महार समाज के विवाह आदि संस्कार करवाने का आदेश दिया था। न मानने वाले ब्राह्मण के लिए दंड और जुर्माने का प्रावधान पेशवा ने रखा था। यह ऐतिहासिक तथ्य आपको किसी पुस्तक में नहीं मिलते।
1857 के विपल्व में भी 100-200 महार सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया था। 1894 तक आते आते अंग्रेजों ने महार सैनिकों को अपनी सेना में लेना बंद कर दिया था। अंग्रेजों ने महारों को अछूत घोषित कर सेना में लेने से मना कर दिया। बाबा वलंगकर जो स्वयं महार सैनिक थे ने अंग्रेजों को पत्र लिखकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि महार क्षत्रिय है और शिवाजी के समय से ही क्षत्रिय के रूप में सेना में कार्य करते आये हैं। जबकि अंग्रेज महारों को क्षत्रिय न मानकर अछूत मानते थे। प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों ने कुछ महारों को सेना में स्थान दिया। मगर युद्ध के पश्चात फिर से बंद कर दिया। बेरोजगार महारों से बेगार कार्य करवाकर बिना सेवा शुल्क दिए अंग्रेजों के अदने से अदने अफसर उन्हें धमकी देकर भगा देते थे। डॉ अम्बेडकर ने महारों को सरकारी सेना में लेने और महार रेजिमेंट बनाने के लिए अंग्रेजों से नियम बनाने का प्रस्ताव भेजा था। बहुत कम लोग जानते है कि डॉ अम्बेडकर को इस कार्य में हिन्दू महासभा के वीर सावरकर और बैरिस्टर जयकर एवं डॉ मुंजे का साथ मिला था। वीर सावरकर ने तो रत्नागिरी में महार सम्मलेन की अध्यक्षता तक की थी। अंग्रेजों का लक्ष्य तो महारों का विकास करना नहीं अपितु उनका शोषण करना था।आगे 1947 के बाद ही डॉ अम्बेडकर द्वारा स्वतंत्र भारत में महार रेजिमेंट की स्थापना हुई। इससे अंग्रेज महारों के विकास के लिए कितने गंभीर थे। यहपता चलता है।
अभी तक यह सिद्ध हो चूका है कि न तो पेशवा की कोरेगांव में हार हुई थी। न ही अंग्रेज कोई महारों के हितैषी न्यायप्रिय शासक थे। न ही पेशवा कोई अत्याचारी शासक थे। अब इस षड़यंत्र को कौन और क्यों बढ़ावा दे रहा हैं? इस विषय पर चर्चा करेंगे। हमारे देश में एक देशविरोधी गिरोह सक्रिय हैं। जो कभी जाति के नाम पर, कभी आरक्षण के नाम पर, कभी इतिहास के नाम पर, कभी परम्परा के नाम पर देश को तोड़ने की साज़िश रचता रहता हैं। इसके अनेक चेहरे हैं। नेता, चिंतक, लेखक, मीडिया, बुद्धिजीवी, पत्रकार, शिक्षक, शोधकर्ता, मानवअधिकार कार्यकर्ता, NGO, सेक्युलर, सामाजिक कार्यकर्ता, वकील आदि आदि। इस जमात का केवल एक ही कार्य होता है। इस देश की एकता ,अखंडता और सम्प्रभुता को कैसे बर्बाद किया जाये। इस विषय में षड़यंत्र करना। यह जमात हर देशहित और देश को उन्नत करने वाले विचार का पुरजोर विरोध करती हैं। इस जमात की जड़े बहुत गहरी है। आज़ादी से पहले यह अंगेजों द्वारा पोषित थी। आज यह विदेशी ताकतों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा पोषित हैं। संघ विचारक वैद्य जी द्वारा इसका नामकरण ब्रेकिंग इंडिया ब्रिगेड यथार्थ रूप में किया गया है। जो अक्षरत: सत्य है। अब आप देखिये कोरेगांव को लेकर हुए दंगों को मीडिया दलित बनाम हिन्दू के रूप में चित्रित कर रहा हैं। क्या दलित समाज हिन्दुओं से कोई भिन्न समाज है? दलित समाज तो हिन्दू समाज का अभिन्न अंग हैं। दलितों को हिन्दू समाज से अलग करने के लिए ऐसा दर्शाया जाता हैं। यह कोई आज से नहीं हो रहा। बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा 1924 में कांग्रेस के कोकानाडा सेशन में मुहम्मद अली (अली बंधू) ने मंच पर सार्वजानिक रूप से उस समय वास कर रहे 6 करोड़ दलित हिन्दुओं को आधा-आधा हिन्दुओं और मुसलमानों में विभाजित करने की मांग की थी। महात्मा गाँधी ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। जबकि उस काल के सबसे प्रभावशाली समाज सुधारक एवं नेता स्वामी श्रद्धानन्द ने मंच से ही दलित हिन्दुओं को विभाजित करने की उनकी सोच का मुंहतोड़ उत्तर दिया था। स्वामी श्रद्धानन्द ने उद्घोषणा की थी कि हिन्दू समाज जातिवाद रूपी समस्या का निराकरण कर रहा हैं और अपने प्रयासों से दलित हिन्दुओं को उनका अधिकार दिलाकर रहेगा। 1947 के पश्चात जातिवाद को मिटाने के स्थान पर उसे और अधिक बढ़ावा दिया गया। यह बढ़ावा इसी जमात ने दिया। जब दो भाइयों का आपस में विवाद होता है तो तीसरा पंच बनकर लाभ उठाता है। यह प्रसिद्द लोकोक्ति है। आज भी यही हो रहा है। पहले जातिवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है फिर दलितों को हिन्दुओं से अलग करना के लिए प्रेरित किया जा रहा है। आप स्वयं बताये आज देश में कहीं कोई दलित गले में मटकी लटकाएं और पीछे झाड़ू बांध कर चलता है। नहीं। क्या कोई दलित मुग़लों की देन मैला ढोहता है? नहीं। आज आपको प्राय: सभी हिन्दू बिना जातिगत भेदभाव के एक साथ बैठ कर शिक्षा ग्रहण करते, भोजन करते, व्यवसाय करते दिखेंगे। बड़े शहरों में तो जातिवाद लगभग समाप्त ही हो चूका है। एक आध अपवाद अगर है भी, तो उसका निराकरण समाज में जातिवाद उनर्मुलन का सन्देश देकर किया जा सकता हैं। मगर दलित और सवर्ण के रूप में विभाजित कर जातिवाद का कभी निराकरण नहीं हो सकता। यह अटल सत्य है। दलित हिन्दू अगर हिन्दू समाज से अलग होगा तो उसको ये विदेशी ताकतें चने के समान चबा जाएगी। एकता में शक्ति है। यह सर्वकालिक और व्यावहारिक सत्य है। दलित हिन्दुओं को यह समझना होगा कि अपने निहित स्वार्थों के लिए भड़काया जा रहा हैं। जिससे हिन्दू समाज की एकता भंग हो और विदेशी ताकतों को देश को अस्थिर करने का मौका मिल जाये।
आज हर हिन्दू अगर ईमानदारी से जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष करने का दृढ़ संकल्प ले, तो यह देशविरोधी जमात कभी अपने षड़यंत्र में सफल नहीं हो पायेगी। यही समय की मांग है और यही एकमात्र विकल्प भी हैं। अन्यथा भीमा कोरेगांव को लेकर हुई घटनाएं अगर अलग रूप में ऐसे ही सामने आती रहेगी।
-आलेख में लेखक के विचार है।संपादक का सहमत असहमत होना अनिवार्य नहीं है।