बाजारीकरण के युग में समाजवाद का ही रास्ता देश को नई दिशा दे सकता है- रामगोविंद चौधरी
डॉ. लोहिया भगत सिंह शहीद दिवस के कारण
अपना जन्मदिवस नहीं मनाते थे,
सो सपूत पुरखों के निमित्त नतशीश नमन-रामगोविंद चौधरी
लोहिया-मार्क्स और वर्ण-वर्ग और भारत का समाजवाद वास्तव में अलग है हमारे कई समाजवादी चिंतकों ने इसका विश्लेषण करते हुए आचार्य नरेंद्र देव एवं डॉक्टर लोहिया के समाजवाद को ही भारतीय मूल की अवधारणा में प्रयोगात्मक रूप से सही माना हम एक लोकतांत्रिक देश होते हुए गांधीवादी मार्ग पर चल कर अहिंसात्मक रूप से समाज को सबल बनाने वाले समाजवाद की कल्पना को लेकर आगे बढ़ रहे हैं जो लोग वर्ग संघर्ष से समता समानता संपन्नता का सपना देख रहे हैं मेरे हिसाब से यह रास्ता ठीक नहीं है समाजवादी आंदोलन में मैं भी भागीदार रहा हूं संपूर्ण क्रांति के प्रणेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का हिस्सा भी रहा हूं उनकी संपूर्ण क्रांति का मतलब था सामाजिक बुराइयों को पूरी तरीके से समाप्त करना व्यक्ति के अंदर मानवीय मूल्यों को जागृत कर देश को समाज को सभ्य और समृद्ध करना था वर्तमान की सत्ता उग्र हिंदुत्व वाद के बाजारीकरण पर जोर देकर समाज को फिर से उसी रास्ते पर ले जाना चाहती है जहां से हम लोग निकल कर के आज यहां खड़े यह देश उन तमाम त्रासदी से बाहर निकल चुका है परंतु ना जाने आज के वर्तमान सत्ताधारी इस देश को फिर उसी मुकाम पर ले जाकर के खड़ा करना चाहते हैं इसके लिए समाजवादियों को का संघर्ष करना पड़ेगा
देशज समाजवाद के पुरोधा चिन्तक डॉ. राम मनोहर लोहिया भारत में मार्क्स के वर्ग-संघर्ष की अवधारणा से पहले भारत में वर्ण के मसले को गहराई से समझने का आग्रह बराबर करते रहे थे | वे देश में जाति-तोड़ो की सतत वकालत करते रहे थे | लोहिया ने ऊँची जात वालों को खाद बनकर प्रायश्चित करने की बात कही थी |
डॉ. लोहिया 'निराशा के कर्तव्य' समझाते हुए कहते भी थे, "समाजवादी दल की जात-तोड़ो नीति पर जो चौतरफा हमला हुआ है और लोग अक्सर यह पूछते हैं कि गौतम बुद्ध नाकामयाब हो गए, स्वामी दयानंद और महात्मा गाँधी ख़त्म हो गए तो सोशलिस्ट पार्टी कौन सुरखाब के पर लगा कर आई है | जो इस जाति-प्रथा को ख़त्म कर डालेगी | यह बात सही है की जाति-प्रथा को ख़त्म करना करीब-करीब असंभव है | यह विनयी दिमाग बोल रहा है कि पिछले 4-5 हजार बरस में यह जाति-प्रथा कुछ ऐसी बन गयी है कि न केवल इसने अपने को फैलाया, बल्कि अपने ऊपर सुरक्षा के ऐसे कुछ किले बना डाले हैं कि इसको तोडना असंभव मालूम होता है | इतनी जबरदस्त गैरबराबरी हो गयी है | जन्मजात गैरबराबरी, संस्कार की गैरबराबरी, बुद्धि की गैर-बराबरी ,चालाकी की गैर बराबरी | इसको तोड़ोगे कैसे ? तोड़ने में जिनका हित है, जो तोडना चाहेंगे उनके अन्दर शक्ति बिलकुल नहीं है | और जो मालिक बना दिए गए हैं, जिनके हाथ में शक्ति है इसे तोडना नहीं चाहते और तोड़ने देंगे नहीं | उसी विनयी दिमाग का पुरुषार्थ यह कहता है कि निराशा का कर्त्तव्य करते है, फिर भी प्रयत्न करेंगे, महान प्रयत्न करेंगे, चाहे गिरेंगे, बार-बार उठेंगे और जाति-प्रथा के नाश को संभव बनायेंगे और नाश हो कर रहेगा |"
लेकिन अपने सोवियत-चीनी वामपंथी मित्रों को वर्ग से पहले वर्ण की जटिलता को स्वीकारने में हेठी महसूस होती रही है | जबकि वर्ण का मसला वैश्विक भी है . ...क्यों ? एक प्रसंग !
तीसरा सप्तक के मूर्धन्य कवि केदारनाथ सिंह ने अपने निधन से कुछ माह पूर्व कला-संस्कृति पत्रकार अजीत राय से लम्बी बातचीत में मशहूर किताब 'मेरा दागिस्तान' के लेखक रसूल हमजातोव से हुई उनकी मुलाक़ात का जिक्र छिड़ने पर चौंक कर बोल पड़े थे, "बहूत साल पहले मैं मास्को में एक लेखक सम्मलेन में गया था | यह तब की बात है जब सोवियत संघ टुटा नहीं था | रायटर्स यूनियन के सभागार में मंच पर हम अर्ध्वृत्त्कार बैठे थे | मेरी बगल में एक लेखक छोड़ कर एक ख़ासा हिष्ट-पुष्ट शख्स बैठा हुआ था | काव्य पाठ चल रहा था | मैंने अपनी अनुवादिका से पूछा तो उसने बताया कि ये रसूल हमजातोव हैं | मैं ख़ुशी से भर उठा | मेरा दागिस्तान के लेखक मेरी बगल में हुए हैं . ... मैं उनके पास गया | यह जानकर वे खुश हुए कि मैं भारत से आया हूँ | मुझे बताया गया की रसूल हमजातोव नस्ल-भेद के शिकार हैं | मैंने उनसे कहा की आपके रहते कोई दूसरा लेखक सम्मेलन की अध्यक्षता कैसे कर सकता है | वे मुस्कुराते हुए बोले, 'मैं नीची जात का हूँ | जो लेखक अध्यक्षता कर रहा है वह ऊँची जात का है |' अवाक रह गया | मैं सोचता था की भारत मैं ही जातिवाद है |"