प्रभुनाम : मन के कूकर की सीटी

लेखक : हरिकृष्ण शास्त्री सुरत गुजरात
फिजियोथैरेपी के वर्गखंड में 70 युवक-युवतियां बैठे थे। "आर्ट ऑफ़ कम्युनिकेशन" विषय पर मेरा प्रशिक्षणवर्ग 'व्यक्तित्व विकास' के अंतर्गत शुरू होना था। और मैंने शुरू किया: जय श्रीकृष्ण! कई छात्रों ने एक-दूसरे की तरफ देखा, हँसे, और प्रतिघोष किया : जय श्रीकृष्ण! मैंने तुरंत कहा: जय स्वामिनारायण। अब सबकी आवाज एक साथ आई : जय स्वामिनारायण। विद्यार्थियों को थोड़ा सा अजीब लग रहा था, शायद इसलिए कि कॉलेज के लेक्चर के आरम्भ की इस प्रकार की परम्परा उन्होंने आज तक देखी या सुनी नहीं थी...परन्तु प्रभुनाम को आत्मसात् करने का उनका उत्साह प्रतिक्रिया के रूप में तुरंत दिखाई दे रहा था। मन वास्तव में प्रसन्न हुआ । जब भी हमारा मन उदास होता है, कर्जदारों के फोन की घंटियां लगातार दनदनाती रहती हैं, घर में माता-पिता या सास-ससुर की गंभीर या पुरानी बीमारियों ने न केवल घर को, बल्कि मन और धन को भी घेर लिया होता है, बेटा या बेटी ने यदि अनुचित रास्ते पर चलकर सारे समाज में परिवार की छवि को धूमिल किया है, ब्याज की चपेट में बैंक बैलेंस ढह रहा है, कोर्ट केस की तारीख पे तारीख दिमाग और दिल को कुचल रही है, आधी रात में नींद उचट रही है, ऐसी हर स्थिति में, कहा जाता है कि "हरिनाम" से बड़ी सांत्वना कोई नहीं है। लेकिन क्या आपने वाकई श्रद्धा और विश्वास के साथ किए गए ऐसे नामजप का कोई स्वानुभव किया है? मुझे इसी सन्दर्भ में हमारे एक बुजुर्ग की विशेष आदत याद आ रही है। वे जब भी हाथ में अखबार लेते हैं और जब आत्महत्या, दुर्घटना, युद्ध, हत्या या दंगे से हुई मौतों के समाचार पढ़ते हैं, तो वे उच्च स्वर से बोल उठते हैं: हे राम, हे हरि, हे नारायण! इन सभी आत्माओं को सद्गति दें... जब कोई पूछता है चाचा, क्या आपकी यह प्रार्थना फलीभूत हो रही होगी? और वे सहज भोलेपन से मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘भाई, प्रार्थना सुनना-न सुनना भगवान का काम है। लेकिन ऐसी अपमृत्यु की खबरें सुनकर इतनी पीड़ा होती है, कि मैं तो इस प्रार्थना से अपने भीतर की उस पीड़ा को कम करने का काम कर रहा हूं। चाहे सब को लगे कि मैं कोई परमार्थ कर रहा हूँ, तो ठीक है, पर वास्तव में मैं यह अपने स्वार्थ के लिए ही कर रहा हूँ...! अगर तुलसीदासजी कहते हैं: "राम नाम एक अंक है, सब साधन है सब शून्य !" या कबीरजी कहते हैं: "जा मुख राम ना निकसे, वो मुख है किस काम?" या फिर गुरु नानक लिखते हैं कि "तू नाम जपन क्यों छोड़ दिया?" या ब्रह्मानंद स्वामी लिखते हैं, "प्रभु एक नाम तेरा सुखकारी!" तो हमें लगता है कि इन सारे संतों का तो जीवन-उद्देश्य ही यही था, इसलिए वे तो यह सब लिखेंगे ही ! लेकिन अब जो बातें आपके समक्ष रख रहा हूँ, उसे ध्यान से पढ़ें... हमारे तार्किक दिमाग को प्रभावित करने के लिए यह जानकारी बिलकुल सटीक बैठती है....। 1970 के दशक में, जब हावर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक हर्बर्ट बेन्सन ने ध्यान, जप और मन के बीच के संबंध के बारे में एक के बाद एक अनेक रहस्य को उजागर करना शुरू किया, तो विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ वैज्ञानिक भी शरीर की बीमारियों के इलाज में आध्यात्मिकता की भूमिका को महत्त्व देने लगे। मेडिकल का पाठ्यक्रम चलाने वाले तीन अमरिकी मेडिकल कॉलेजों में 1995 से "चिकित्सा में आध्यात्मिकता" को एक महत्त्वपूर्ण विषय के रूप में पेश किया गया है। वर्ष 2000 में विश्वप्रसिद्ध ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय द्वारा "हैंडबुक ऑफ रिलिजन एंड हेल्थ" प्रकाशित की गई थी। जिसमें 40 साल के शोध को स्पष्ट किया गया और हर्बर्ट बेन्सन को "बोस्टन ग्लोब" में लिखते हुए उद्धृत किया गया कि It can bring scientifically stable benefits. अर्थात् आप ध्यान या जप से होनेवाले प्रत्येक लाभ को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर सकते हैं ! मूलतः यह विवरण है, ईश्वर की शक्ति के बारे में। जब हम त्सुनामी, भूकंप, मूसलाधार बारिश से हुए तबाही का मंजर, प्रलयकारी बाढ़, , या बड़े बड़े पहाड़ों को दो भागों में फाड़कर रख देनःवाले भयानक ज्वालामुखी के विस्फोटों को देखते हैं, तो तुरंत एहसास हो जाता है, कि मानव बुद्धि, मानव अनुसंधान, मानवनिर्मित तकनीक या उसकी कोई भी क्षमता प्रकृति के सामने कितनी बौनी हैं! नामस्मरण और नामजप के प्रभावों के बारे में भारत में कोई गहन वैज्ञानिक शोध क्यों नहीं हुआ, यह एक ऐसा प्रश्न है, जो उस क्षेत्र के डॉक्टरों, मनोचिकित्सकों या शोधकर्ताओं को पूछा जाना चाहिए । 2008 में "पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय"के न्यूरोसाइंटिस्ट डॉ. एंड्रयू न्यूबर्ग कई प्रयोग कर चुके थे कि हरिनाम के जप से मनुष्य का मन कितना शांत होता है, और उसकी याददाश्त कितनी बढ़ती है... उन्होंने मंत्र और ध्यान पर 12 मिनट का प्रयोग उन लोगों पर किया, जिन्होंने कभी मंत्र या ध्यान का अभ्यास नहीं किया था। इस वैज्ञानिक ने 8 सप्ताह तक सैकड़ों लोगों पर प्रयोग करके उन्हें ‘नामजप’ पर केन्द्रित किया। अंत में सभी की याददाश्त नापी गई। जो 12 फीसदी से बढ़कर 20 फीसदी हो गई थी। उन्होंने अपने इन अनुभवों को "हाउ गॉड चेंजेस योर ब्रेन!" पुस्तक में विस्तार से लिखा है। आपको स्वयं यह अनुभव हुआ होगा कि जब मन पर पीड़ा, कष्ट या यातना का जबरदस्त दबाव होता है, तो मुंह से स्वत: उद्गार निकल आता है कि हे ईश्वर! हे भगवान! अब तो तू ही एक सहारा है... बस, एक तू ही तारणहार है..! शायद यही उद्गार मन के भीतर उमड़ रहे शोक-दु:ख या उत्ताप के धुंएं को उड़ाने के लिए कूकर की सीटी की तरह काम करता है। अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. एच.जी. कोएनिंग ने दो तरह के लोगों पर विशेष प्रयोग किए, जिनकी उम्र 65 वर्ष से अधिक थी। उन्होंने 4,000 लोगों का अध्ययन किया, और निष्कर्ष यह निकला कि जो बुजुर्ग नियमितरूप से जप, ध्यान या प्रभु के दिव्य चरित्रों को सुनना आदि आध्यात्मिक और धार्मिक गतिविधियों में शामिल होते थे, उन लोगों की तुलना में, जो ऐसी गतिविधियों में शामिल नहीं होते थे, ऐसे लोगों में 60 से 75 प्रतिशत लोग मजबूत रोगप्रतिकारक क्षमता रखने वाले थे, साथ ही वे ज्यादा खुश और तेजतर्रार भी नजर आए! बैंगलोर, भारत में स्थित संस्थान "इंडियन जर्नल ऑफ फिलॉसफी एंड फार्माकोलॉजी" में ‘विवेकानंद केंद्र योग-रिसर्च फाउंडेशन’ 1995 से कार्यान्वित है। यहां सेंकडों लोगों के मन- शरीर पर ओम् कार ध्वनि का क्या प्रभाव होता है, इस विषय पर भारत और दुनिया के अनेक वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया है । उनका निष्कर्ष यही है कि ओम् कार के जप से हृदय की धडकनों की गति नियंत्रित होती है। भीतर ही रिलेक्सेशन, तथा अवेयरनेस - शांति और जागरूकता की अनुभूति होती है। ऑक्सीजन की मात्रा पूरे शरीर में ठीक से वितरित होती है, शरीर की हर कोशिका जीवित हो जाती है। आंतरिक रोग प्रतिकारक क्षमताएं बढ़ती हैं। और यह मधुमेह जैसी बीमारी को भी काबू में रखने में भी बहुत उपयोगी है... अब निम्नकथन को पढ़िए: "क्या आप तनावपूर्ण जीवन जी रहे हैं? तो जाइए, एकांत में बैठ जाइए। आस्था और श्रद्धा उत्पन्न करने वाला कोई शब्द (मन्त्र) सोचिए। उस शब्द का 10 से 20 मिनट तक हर सांस के साथ जाप कीजिए। आपका दायां और बायां दिमाग अवश्य आराम महसूस करने लगेगा।" आपको लगता होगा कि यह आदेश किसी साधु महात्मा की पुस्तक से लिया गया है ! लेकिन आश्चर्य है कि यह कथन डॉ.हर्बर्ट बेन्सन का है! और हाँ, अब उन वैज्ञानिकों से हटकर महर्षि वेदव्यासजी की ओर लौटते हैं। जिन्होंने श्रीमद्भागवत में कहा है: जिनकी जीभ पर दो अक्षर "हरि" रहते हैं, वे सभी तीर्थों का पुण्य, सभी वेदों का अध्ययन और सभी यज्ञों की दक्षिणा का पुण्य प्राप्त करता है! (6-2-578) यह हो सकता है कि ऐसी भाषा हमें धार्मिक लगती हो, परन्तु ऐसी आदतों के सारे परिणाम वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुके हैं, उसे बताने के लिए ही यहाँ अनेक विदेशी विचारकों को याद करना पड़ा है। मित्रों, हम ‘उसको’ याद करते रहें, जिसे याद किया जाना अनिवार्य हो, तो शायद परिणाम देनेवाले भगवान भी हमारा नाम अपनी सूची में सबसे ऊंचे क्रम में रख देंगे... आइए, हम संतों को ऐसा कुछ कहकर हमें फटकारने का मौका न दें: "तू नाम जपन क्यों छोड़ दिया, लोभ न छोड़ा, क्रोध न छोड़ा, सत्यवचन क्यों छोड़ दिया!!" यदि हमें मन की शांति के लिए इतना सटीक, परिणामलक्षी और प्रभावी उपाय मुफ्त में मिल रहा है, तो उसे न अपनाकर मानसिक रोगों के डॉक्टरों के पास जाने का मतलब यही होगा, कि हम अब भी भारतीय मंत्रविज्ञान के रहस्यों को समझने के लिए थोड़े से भी गंभीर नहीं हैं...

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